बुधवार, 31 दिसंबर 2014

पहचान


01 January 2015
10:14
-इंदु बाला सिंह

सारा पूजा पाठ
तीर्थ हैं मिट्टी
गर तूने न पहचाना
निज
रक्त सम्बन्धों को
अपनों को |

चलो देखें सौगात


01 January 2015
08:18
-इंदु बाला सिंह


विदा हुआ
वर्ष
बदली छायी थी
कल गमगीन था आकाश ......
पर
आज खिला है आकाश
गुनगुनी धूप निकली है मेरे शहर में
प्रसन्नचित्त है मन
और
रोमांचित है तन
देखो आया है नया साल
हमारे घर में
यारो !
अब हम खोलें
तोहफे अपने अपने
देखें
क्या दी थी सौगात हमें
जाते हुये 

बीते वर्ष ने |

नया मेहमान


01 January 2015
06:11
-इंदु बाला सिंह

हुई भोर
और
सदा की तरह खोला
जो मैंने द्वार
खड़ा था
मौन नव वर्ष ........
ओह !
इतना व्यस्त थी
कि
भूल चुकी थी इस पेईंग गेस्ट को
चलो आबाद रहेगा मेरा घर
इस नये अतिथि से
खुश हुई मैं ........
एक वर्ष के लिये
मुझे
एक काम मिल गया ........
स्वागत किया ........
मैंने अपने नये मेहमान का |


आकश में लिखेंगे


31 December 2014
20:57
-इंदु बाला सिंह

धीरे धीरे आ रहा है करीब
नये सपनों के साथ
नई आशा की सुरभि लिये
कोमलांग नूतन वर्ष ......
चलो
हम सब बांध दे डायरी के पन्ने
बीते वर्ष के .....
नये सिरे से अब हम लिखेंगे
एक ख़ूबसूरत रचना आकश में
अपने मन की कलम से |

सपनीली भींगी आँखों से विदा कर दिया


31 December 2014
21:20
-इंदु बाला सिंह


उसे विश्वास था
यों कहिये पूरा विश्वास था
इस वर्ष उसे अपने हिस्से की धूप मिल कर रहेगी
वह अपनी धूप में अपने कपड़े सुखा पायेगा
और
जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद उठा पायेगा
उसे
अपने कर्म की ऊर्जा पर
पूर्ण विश्वास था
अतः
खुशनुमा ख्वाब में डूबी
अहसानमन्द भींगी सपनीली आँखों से
उसने
दो हजार चौदह को अलविदा कर दिया |



वह गरीब कितनों को एक जून खिला गया


31 December 2014
18:46

-इंदु बाला सिंह

इस घर में थूकने भी नहीं आऊंगा ....
अपनी जमीन पर हक छोड़ निकला वह एक दिन
तो
लौटा मकान में
उसका पार्थिव शरीर ..........
बड़े धूम से उठाया था जनाजा उसका अपनों ने
अयोध्या में क्रिया कर्म किया था
रिश्तेदारों ने ....
दो बसें भर कर पहुंचे थे हितैषी
शान से किया  था दसवां और तेरही उस अपने का ..........
जो कष्ट से रहता था
एक छोटे से कमरे में
मुश्किल से अपना पेट भरने का इंतजाम करता था
वह बर्फीले ठंडे दिन में गुजर गया
पर
कितनों को
अपने जाने के बाद
एक जून खाना खिला गया |

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

घर तो बन गया मन्दिर


31 December 2014
09:28
-इंदु बाला सिंह

हे राम ...हे राम ....
जय कृष्णा ...जय कृष्णा ....कृष्णा ..... कृष्णा ........
श्री राम चन्द्र कृपालु भजमन ......
जो मेहमान आयेगा घर में अभिवादन मिलेगा ........' हरे कृष्णा ' के सम्बोधन से
घर तो बन गया मन्दिर
पर
मन कब बनेगा मन्दिर !
सत्कर्म कब करेगा तन |

समय का खेल


30 December 2014
20:57
-इंदु बाला सिंह


पत्नी की कमाई नहीं चाहिये
रिश्तेदार क्या कहेंगे नौकरी करते देख बहू को
सदा तुम पर निर्भर रहनेवाली पत्नी
क्या करेगी तुम्हारे न रहने पर
यह सोंचे होते
तो
एक दिन तुम चुपचाप
एक स्टेशन पर न उतर गये होते ....
तुम्हारा छोटा सा
छूटा परिवार
अब समय की धार में बहेगा
रिश्तेदारों के सहारे रहेगा
तुम्हारे पेशन , इंश्योरेंस ,आफिस की लिखापढ़ी , खेत , मकान के कागजात
रिश्तेदारों के इशारे का इंतजार करेंगे ......
तुम्हारे परिवार की भटकन देख
बुद्धिमान चौकन्ने हो जायेंगे ......
समय बड़ा बलवान रे भैय्या !
इसके तेवर निराले
जो समझ गया
वो जी लिया |

रविवार, 28 दिसंबर 2014

मुखाग्नि देनेवाली बिटिया


29 December 2014
10:21
-इंदु बाला सिंह

मन की आग
ले जाती है
जीवन पथ में निरंतर ....
पिता को मुखाग्नि देनेवाली बिटिया को जलानेवाला षड्यंत्रकारी
पैदा हुआ 
और
होगा पैदा जग में |

आज भी लौ जल रही


28 December 2014
22:28
-इंदु बाला सिंह

ओ समय !
शक्ति देना ........
मन मजबूत करना ........
अपने कर्तव्य पथ से न भटकूँ मैं
दिग्भ्रमित न होऊं मैं
लाख अपमानित करें स्वजन
लड़खड़ायें न कदम
कि
अभी सांस है बाकी
और
जाना है दूर बहुत ........
याद रखना है मन में ठगी अपनों की ...............
माना कि सच्चाई का पथ कष्टकर होता है
पर
आत्मतुष्टि तो वह देता ही है .........
जीत का विश्वास ले के
चले थे हम
आज भी
वह लौ माद्धिम सी जल रही है
मन में |

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

ये कैसा प्रश्न उठा मन में


28 December 2014
09:00
-इंदु बाला सिंह


मैं एक मन्दिर में गया था 
वहां ढेर सारी औरतें थी
कितनी औरतें बाल खोल कर झूल रही थीं
मुझे डर लगा ......
माँ ने बताया ...इनपे देवी आयी है ...
टीचर !
देवी के पास इतना टाईम है !
कि
वो सबके पास पहुंच जाती है ?........
छात्र के मन में उठे 
इस बाल प्रश्न ने
निरुत्तरित कर दिया आज मुझे |

शराब का अविष्कार किसने किया ?


28 December 2014
00:13
-इंदु बाला सिंह

शराबी ही बन सकता
शराबी का मित्र
दुसरे तो
बस सहते हैं उसे
वह भी
जब तक चार दिन तक .......
हैरान  हूं
आखिर शराब का आविस्कर
किसने किया |

शराब सूदखोर है


27 December 2014
23:51
-इंदु बाला सिंह

शराब सूदखोर है..........
इसके कर्ज में
जो डूबता
वह आजीवन कर्जदार रहता
और 
उसका ऋण चुकाती है
उसकी सन्तान ........
जिसने यह समझ लिया
उसने
शराब से मुंह मोड़ लिया |

मन न तोड़ना


27 December 2014
23:40
-इंदु बाला सिंह


मन न तोड़ना यारा !
कभी भी ..........
एक बार टूटे
तो
फिर न जुड़े
लाख कोशिश कोई करे |

निगेटिव चार्ज की खान हूं


27 December 2014
18:42
-इंदु बाला सिंह

दिन भर पाजिटिव चार्ज चुनते चुनते
अब यूं लगे मुझे
मानो
निगेटिव चार्ज की खान हूं
मैं |

हार के अंधेरे में प्रकाश


27 December 2014
17:16
-इंदु बाला सिंह

मन
जब जब हारता था
तब तब पुकारता था
उस  विराट ज्योतिर्पुंज  को
जिसने रचना की थी
उसकी ........
क्या नाम दूं
बड़े फेर में हूं
अब ऐसे मन को
जो अंधियारे पल में भी
ज्योतिर्मय हो उठता था
उस सृष्टिकर्ता के प्रकाश से |

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

हम इतने स्वार्थी क्यों ?


26 December 2014
18:28
-इंदु बाला सिंह

बेटा कितना भी बड़ा हो जाये
माँ के सामने
छोटा ही रहता .........
कह के तूने
मूरख धनी माँ का दिल तो जीत लिया
पर
मैं पढ़ सकती
तेरा मन ...............
काश तू वही वाक्य अपने पिता को कहा होता
तो
पिता का सीना उस समय गर्व से फूल गया होता ..........
याद है मुझे आज भी वह वाक्य
जब तूने गर्व से कहा था ........
मैं अपने बाप की नहीं सुनता तो तेरी क्यों सुनूं ?........
आज यह मौसम
मुझे सोंचने को प्रेरित करता ........
हम इतने स्वार्थी क्यों "

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

हम छोटे हैं भई !


25 December 2014
12:07
-इंदु बाला सिंह


बड़े लोग हैं आप ... भई !
आप तो
शापिंग करते हैं ........
मुर्गा काटते हैं .......
मछली तो बड़ी टेस्टी लगती है .....
हर धाम की यात्रा करते हैं .......
कहते हैं कि जिसे बुलावा आता है ..वही पहुंच पाता है दाता के दरबार में .........
हम तो
आम आदमी हैं .........
शापिंग जन्मदिन में कलेजा कड़ा कर के करते हैं .......
मुश्किल से घर चला पाते हैं ...........
सन्तान को स्वावलंबी बना पाते हैं .........
हमारा धाम तो
हमारी संतानें हैं ........
हम छोटे हैं .... भई !
तो क्या हुआ ........
हम खुश हैं |


वक्त कंगाल करेगा तुम्हें एक दिन


25 December 2014
08:04
-इंदु बाला सिंह

भिखारी बनाये
और
दान देने के लिये
हाथ उठाये
तुम ! ........
वक्त कंगाल करेगा तुम्हें एक दिन |

चले हम अब



25 December 2014
07:06

-इंदु बाला सिंह

मूल का मोह छूटा
तो
कैसा सूद 
चले हम अब
जिधर राह पहुंचाये
मान के तेरा अहसान
ओ वक्त !
हमने
अपने कदम हैं बढाये |

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

बीमार था जवान


24 December 2014
11:00
-इंदु बाला सिंह


ओह रे जवान !
कैसी मौत मरा तू !
बीमार हुआ ...
छुट्टी मिली आसानी से
और 
घर भागा तू अपने घर  ..........
प्रेम बीमारी का इलाज नहीं है
डाक्टर जरूरी है
और
पहुंचा जवान घर से दूर एक सरकारी अस्पताल
पर बेड न मिला तुझे ........
चटाई पर सोया तू
तेरा जांडिस बिगड़ा ........
कल्याण निधि से इलाज के लिये
मिले दस हजार से भी न बच पाया तू 
प्राइवेट अस्पताल का आई० सी० यु ० में भी !
ओ रे पच्चीस वर्षीय सिपाही  ............
किसे दोष दूं मैं !
एक परिवार की आशा का दीप बुझ गया ....
पढ़ कर खबर आज अखबार में
भींज गया मन ........
ओ सम्पादक !
खुशी की खबरें क्यों नहीं छापते तुम |


सरल होता है रास्ता


24 December 2014
08:10

-इंदु बाला सिंह

बड़ा सरल होता है रास्ता
जब
हम आगे करते हैं अपनी सहगामिनी को
तब
पुरुष कटते हैं .......
महिलायें डरती हैं ........
आराम से
हर जंगल काटते हुये
महिला आरक्षण की तलवार से
हम आगे बढ़ते जाते हैं ........
और
अपने मकान में आराम फरमाते हैं ...............
चैन की बंसी बजाते हैं हम |

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

बोगी में मिली नवजात कन्या


22 December 2014
13:56
-इंदु बाला सिंह


दो दिन पहले मिली थी
एक नवजात कन्या रेल की बोगी में
एक झोले के अंदर .......
कपड़े में लिपटी हुयी जाड़े से बचने के लिये शायद
आज फिर मिली उसी स्थिति में
एक और कन्या ......
पढ़ अखबार में खबर कितने चेहरे घूम गये आँखों के आगे ..........
शायद बच्ची के माँ गरीब थी
या
शायद उसे कन्यादान कर
पुण्य कमाने की इच्छा न थी ....
जो भी था मन में उस माँ के
पर
अपनी कन्या को भाग्य भरोसे छोड़
अपनी जैसी ही बनने की
वसीयत नहीं लिख दी थी क्या वह  ........
सोंच में पड़ गयी मैं |



रविवार, 21 दिसंबर 2014

उस वर्ष शीत लहर चली थी


20 December 2014
07:25
-इंदु बाला सिंह

अनाथ ही सही मैं ......
खुश रह तू
सजाती रह
अपने पुत्र का घर ........
और 
एक दिन
उसने पिंडदान कर दिया था
उस अपने का ........
उस वर्ष तेज शीत लहर चली थी .......
माओं ने
अपने बच्चे दुबका लिये थे
अपने सीने में ...........
मर्द पाकेट में हाथ डाल चहलकदमी कर रहे थे
अपने बेडरूम में |

स्वारथ का संसार


21 December 2014
23:25


-इंदु बाला सिंह

जाने कैसे भूल जाते
बहन की गोद में खेल कर बड़े हुये
उसके हाथ की पकाई रोटी खा कर तंदरुस्त हुये
धनी बलवान बीबी बच्चोंवाले भाई
अपनी बहन को
कि
उसकी सिर छुपाने लायक पैतृक छत भी
उन्हें असह्य लगने लगती
ये बराबरी का पाठ पढ़नेवालों के
दीये तले
सदा अँधेरा ही रहता  .........
स्वारथ का सब संसार
शहरों में कैसे कैसे रिश्ते !
जो अपने के नहीं
वे 
पराये के हों कैसे |

प्रेम है


19 December 2014
22:36
-इंदु बाला सिंह

मेहमान आये हैं बाल बच्चों समेत .....
डाईनिंग टेबल भरा है
खाने के सामान से
जितना चाहो जो चाहो उठाओ और खा लो ......
उम्रदार की मस्ती है
बच्चे खुश हैं
लिहाज है न ............
कोई रोकेगा उन्हें कैसे
सबके बाप हैं संग में
अरे ! बीमार पड़ेंगे लोग तो क्या हुआ
तभी न मौका मिलेगा सेवा का .................
प्रेम प्रदर्शन का .......
बरसों बाद तो मिलता है ऐसा मौका मिलने जुलने का
संयुक्त जायदाद है ....
याद भी रखना है नाम |



शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

आने तो दो गर्मी का मौसम


20 December 2014
09:36
-इंदु बाला सिंह

तुम आये
मुसकाये
खिल उठी
दिल की बगिया मेरी
हुआ सबेरा .....
मेरा मन बोला |
बुद्धि बोली ........
ओफ्फ !
फेंकना रजाई
अभी तो जाड़े का मौसम है ........
आने तो दे
गर्मी की सुबह
फिर चलेंगे हम घुमने
मुंह अंधेरे
और
मन ने मान ली बात
दुबक गया फिर से
रजाई में |

बड़े घर के बच्चे


20 December 2014
09:03
-इंदु बाला सिंह

नाम ले के  पुकारते
कामवालियों  को
जब
बड़े घर के छोटे छोटे बच्चे
तब
अंदर से कुछ टूट सा जाता |

प्रेम देता ज्ञान हमें


20 December 2014
07:58
-इंदु बाला सिंह

प्रेम कभी नृशंस नहीं होता ....
स्त्री के मन में उपजा प्रेम हो 
या 
पुरुष के मन में उपजा प्रेम .....
वह 
सदा ज्ञान ही दे जाता है हमें |

छोड़ दिया तुझे



20 December 2014
08:21

-इंदु बाला सिंह

मन तो कहे .........
थाम ले
आत्मबोध और इमानदारी में ढली लाठी
और
कर प्रहार ....
हो जाय कपालक्रिया तेरी ....
ओ दुश्मन मेरे ! .......
पर छोड़ दिया मैंने तुझे
जीने के लिये
वक्त के साए में
क्योंकि सुन ली थी
उस क्षण मैंने
अपनी बुद्धि की |

लड़की चहकती .... भाग्य संग



19 December 2014
13:30

-इंदु बाला सिंह


कितना सहज होता जीना
औरतों का
भाग्य पर भरोसा कर
हंस लेतीं वें  ...
रो लेतीं वें ........
अपनी किस्मत को दोष दे दे ........
बसा देतीं वे किसी का घर .........
नाचती गातीं वें
उस बसाए घर में ........
सैकड़ों साल में
पैदा होती है
कोई एक लक्ष्मीबाई
जो लड़ती है अपने नसीब से .............
बांध  अपनी सन्तान पीठ पे .........
लेकिन
वो भी नाम पा जाती देवी के अवतार का ......
ओ रे समय !
जरा तू ही बता
ऐसा क्यों है
कि
बढ़ती हैं लडकियां आरक्षण के सहारे .........
पलती है वें  पिता पुत्र , भ्राता के सरंक्षण में ..........
और
वे खुश रहती हैं .......
चहकती हैं .........
भाग्य के संग |

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

बेईमान मन


19 December 2014
11:58
-इंदु बाला सिंह

बेईमान मन सदा छलता 
बन के बच्चा
पर
हाथ पैर हैं बड़े इमानदार
सदा बता देते
मेरी उम्र
न जाने क्यों |

उसका मालिक तो समय है


19 December 2014
07:48
-इंदु बाला सिंह

माना
कामवाली ज्ञानी है
पर
जिसने
उसे गुरु बना लिया
उसका मालिक
तो
समय है |

जीवित मृत


19 December 2014
07:06
-इंदु बाला सिंह

तुम्हारा कुकर्म तुम्हें महसूस करा के
मैंने
तुम्हें क्षमा कर दिया ........
और
मैं जानती हूं
कि
तुम
अब जीवित रह कर भी
मर चुके हो |


रूपये खर्च करना है


18 December 2014
16:59
-इंदु बाला सिंह

हाय ! कितने सुंदर ब्लाउज
अरे ! साड़ियां देखी आपने !
ये जो पहनी है मैंने आर्डिनरी है ......तीन हजार की है
अच्छी साड़ियां तो दस हजार से शुरू होती हैं
लंहगा भी खरीदना है न
अरे ! कल फिर जायेंगे दूकान ........
हाय ! औरत न होती तो रूपये कहां खर्च करते हम !
मन चहक  रहा था
बुद्धि दुबला रही थी
किसी को उसकी चिंता न थी
वैसे बुद्धिजीवी औरतें अच्छी न होतीं
वे कभी ठहाके न लगातीं
गुपचुप के ठेले पे
और
घर कितना मनहूस रहता उनकी उपस्थिति में |

मैं तो एक आम इंसान


18 December 2014
17:13
-इंदु बाला सिंह

इतने ऊपर तुम बस गये भगवन !
कैसे पहुंचुं तुम तक भगवन
मैं तो एक आम इन्सान
तेरे नाम की माला जप जप ... मुझे डराते तेरे  पैसेवाले भक्तगण
मैंने तो कर्म को धर्म समझा
बोल जरा
मैंने क्या गलत किया
तुम मूरत में ही बसते क्या ?
तेरे पूजक हैं मुझे छलते
कैसे माफ़ करूं मैं
उन अपनों को
जिसने छला मुझे .......
जिनके कारण कितना कुछ खोया मैंने .....
जिन्होंने धमकाया मुझे ........
तुझ पर छोड़ा अब
ओ रे वक्त !
मुझमें तो अब दम नहीं |

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

हाय ! पैसा ने छीना परिवार


18 December 2014
13:03
-इंदु बाला सिंह

फांय फांय अंगरेजी बोलते हमारे बच्चे
सुन सुन तरसते हम
कि
कब निकलेगी उनके मुंह से हमारी भाषा .........
.....................................
हाय रे पैसा !
तूने तो छीन लिया मुझसे मेरा परिवार
ये कौन सा पाठ पढ़ाया तूने
मेरे अपनों को विदेश में
और 
दूर कर दिया है
तूने उन्हें
भला क्यूं आज मुझसे |

जिन्दगी की कविता


18 December 2014
07:23
-इंदु बाला सिंह


जिन्दगी का उपन्यास पढ़
भूल जाते हैं हम
पर
जिन्दगी की कविता
पीछा न छोड़ती हमारा
अकेले होते ही चुभोने लगती ........
महसूस कराने लगती हमें यह हमें अपना अस्तित्व ........
इतना आसान भी न होता भूलना उसे
और
ऐसी रचनाओं को
भूलते भूलते
कभी मैं एक कविता न बन जाऊं
यह भाव लिये बस चलता रहता यह अनूठा जीवन |

अनुभव न पहचानें


17 December 2014
22:31
-इंदु बाला सिंह


विदेश में बढ़े बच्चे
कितने आत्मविश्वासी होते
मौसम को न पहचानते
अनुभव को नकारते
हर पल अपने में मस्त जीते
उनके लिये
जेब का रुपय्या सर्वोपरि .........
क्या सचमुच अनुभव मिट्टी है ........
आज सोंच में पड़ गयी मैं .........
ये कैसा परिवर्त्तन है
वसुधैव कुटुम्बकम के नाम पर |

किसे दोष दूं


17 December 2014
21:28
-इंदु बाला सिंह

जस माँ

तस सन्तति

किसे दोष दूं |

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

भस्मासुर न बनना


17 December 2014
08:57
-इंदु बाला सिंह

कभी भस्मासुर बनना प्यारे !
कि
पुस्तक से निकल कर आना पड़े
मोहिनी रूप धर
विष्णु को
माना पुस्तकें कल्पना या इतिहास हैं
पर
मांजती हैं वे ही हमारे पीतल तन को
चमकाती हैं वे
हमारे चरित्र को
सो
कभी भूलना  पुस्तक
मेरे प्यारे
भस्मासुर बनना
  राजदुलारे !

क्यों भूल जाते हम आज को


16 December 2014
21:07
-इंदु बाला सिंह

कितने पत्थरदिल हम ........
पड़ोस की बिलख न सुनाई देती हमें .......
यह भी शायद जीने की कला है
कि
घर के बुजुर्ग की लाश छुपा बेटी ब्याहते हम ......
सोंच में पड़ा है आज मन
आखिर क्यों कोई बना धनवान
तो कोई अभावग्रस्त ......
ऐसा भी क्या स्वार्थ कि भूलते हम अपनों को
अपना घर बसते ही ......
कैसे निर्मोही बनते हम अपने खून के रिश्तों से
एक टुकड़े जमीन के लिये कटते मरते 
आपस में ........
यह कैसी शान है हमारी बुद्धि और बल की
कि
हम नापते केवल अपने दिल की धड्कन
और भूल जाते अपने जन्मदाता को ..........
ये  कैसा मोह है हमारा आनेवाले कल के प्रति
कि
भूल जाते
हम अपने आज को |