बुधवार, 27 अगस्त 2014

दुर्भाग्य का क्लोन


26 August 2014
20:49
इंदु बाला सिंह

यूं लगता है
दुर्भाग्य कुत्ता है
जो पकड़ के रखा है हमें
अपने जबड़े में
और
झिंझोड़ता है रुक रुक के
ओ रे दुर्भाग्य !
तेरे कितने क्लोन हैं ?
धरा पे
मुझे तो लगता है
धरती की नब्बे प्रतिशत जनता को तूने जकड़ा है अपने थोबड़े में
तो
तू नब्बे प्रतिशत जनता के बराबर है क्या
आज विचार मग्न है मन
और सोंच रही हूं मैं
क्यों न मैं तोड़ दू तेरे थोबड़े को
आ न जरा पास |

सोमवार, 25 अगस्त 2014

हम तो पुरानी कालीन को बदल देते हैं


25 August 2014
20:18
-इंदु बाला सिंह

रोमांचित हो जाता है तन
याद कर के वह रिश्ता
और बचपन का वह  पल
जब
दूर गाँव से
वे शहर आये थे
अपने भाई के परिवार को ट्रेन पर चढाने
पर
ज्यादा पैसा कूली के मांगने पर
अपने कंधे के गमछे को गोल कर
अपने सर पे रख
कहा था उन्होंने
मेरे पिता से
पकड़ और चढ़ा अटैची मेरे सर पे
और
हमें चढ़ा दिया था 
धड़धड़ाती आयी मेल ट्रेन में  |
उनका  मन   
अपने छोटे भाई को गांव से
शहर के लिये ट्रेन पर चढ़ाते समय
कितना भींगा होगा
और
लौट कर वे
बिजलीहीन गांव में क्या महसूसे होंगे
यह अलग बात है
पर
रिश्ते का वह प्यार
शहर में
आज भूल चुके हम
आखिर 
कमजोर रिश्तों को क्यों ढोयें हम
टाट में पैबंद लगाने के हम शौकीन नहीं
हम तो हर साल पुरानी कालीन को
कालीनवाले को दे देते हैं
उससे नयी कालीन 
खरीद लेते हैं |

गरीबी को पहचाने अब जा के हम


25 August 2014
19:55
-इंदु बाला सिंह

आज अचम्भे में डूब जाता है मन
यह सोंच कर कि
वह कैसा निश्चिन्त बचपन था
जब बड़े ठाट से विद्यालय में
लिखे थे निबन्ध हम
' गरीबी वरदान है ' 
और
इतने सारे कारण गिनाये थे अपने निबन्ध में
कि
चमत्कृत शिक्षक से  
सबसे ज्यादा नम्बर मिला था निबन्ध में हमें
पर
आज वही हम हैं
और
पढ़ रहे हैं जिन्दगी की पाठशाला में 
कि
गरीबी अभिशाप है |
आज
पूछता हैं मन
परमशक्ति से
कि
किसी को तुम कैसे गरीब बना देते हो
और
गर गरीब बनाते भी हो तो
उसके घर में बिटिया क्यों जन्माते हो |

अंगूठा छाप


25 August 2014
11:03
-इंदु बाला सिंह

ओ हो !
मां जी
भैय्या भी अंगूठा छाप हो गये
हमारी बिरादरी में आ गये
कहा जब हंस कर
कामवाली ने
तो
मैं खून का घूंट पी कर रह गयी
और
मन ही मन कोसी
उपस्थिति लगाने की नई तकनीक को |

एक अजीब चाहत


25 August 2014
10:34
-इंदु बाला सिंह

कुछ बन पाने की चाहत में
हम चलते चले जाते हैं
समय बीतने पर
महसूस होने लगता है
चलना ही तो थी
चाह  हमारी
और जिसे हमने भरपूर जिया भी |

ग्लास सीलिंग


25 August 2014
10:22
-इंदु बाला सिंह

बंगाल का अकाल
गर मानव निर्मित है
तो
स्त्री प्रतिभा का अकाल भी
मानव निर्मित है
जो
प्रोमोशन से वंचित रहती
कैरियर में
ऊच्च पद से
क्यों कि
लोगों का कहना है
ग्लास सीलिंग रहती
महिला के सर पे सदा ही |

तुझसे बेहतर आयेगा


25 August 2014
07:59
-इंदु बाला सिंह

कर्मचारी 
कविता लिखें 
नौकरी बचायें
पेट में अन्न नहीं तो 
रह जायेगी 
सारी इमानदारी धरी की धरी 
तू जायेगा 
तो 
तुझसे बेहतर कर्मचारी आयेगा |


हम सुधारेंगे


25 August 2014
07:45
-इंदु बाला सिंह

हम नहीं बिलौटे
हम शेर के बच्चे हैं
हम सुधारेंगे समाज |

मैंने भी कहानी किताब छपवाई


24 August 2014
20:12
-इंदु बाला सिंह

छपवाई मैंने
अपनी कहानी की किताब
एक छात्र के पापा से
दिया हर छात्र को
दस किताब हर छात्र को
अपने पापा के हित मित्रों में बेचने को
और
हर उस छात्र के गणित के कठिन प्रश्नों को हल करने में
सहायता की
बुला कर उन्हें अपने घर में
जो मेरी किताब के प्रकाशन से जुदा था |
वाह जी वाह !
कितना सरल था मेरा काम
कहानी की पुस्तक छपवा कर
नाम कमाना
पैसे कमाना
आखिर शिक्षक हूं
कोई मामूली जीव नहीं |

कार चलाना सीख लो


23 August 2014
14:31
-इन्दुबाला सिंह

मैं नहीं बेकार
मेरे पास है कार
आओ तुम्हें सिखलाऊंगा
मैं कार चलाना
कार चलाने का
लाईसेंस भी दिलवाऊंगा मैं 
फीस जो मनभाये तुम दे देना
पर एक शर्त है मेरी
कार चलाना सीखने से पहले
हर रोज
तुम मेरी कविता सुन लेना
और
थोड़ा वाह वाह भी कर देना |

बाप अकेला रहता है


23 August 2014
12:56
-इंदु बाला सिंह

हमशा रहे
बाप बन के
पर
एक बाप को बुढ़ापे में मिट्टी कोड़ कमाते
पेट भरते देखा
तो
बहुत सारे बाप आ गये आंख के सामने
जो
अकेले हैं पड़े दूर खुद कमाते खाते
आज मान ले रहा है जी
कि
हम भी यूं ही जी लेंगे
आखिर
हम भी बाप ही तो थे |

तेरी ही दुलारी


23 August 2014
07:33
कभी नहीं मैं परायी
सदा ही मैं तुम्हारी बिटिया
राज दुलारी
मेरी सन्तान में तू मुस्काये
मेरी सन्तान तेरा वंश रौशन करे
मेरे पिता |

इन्द्रधनुषी हम


22 August 2014
21:22
रंग बिरंगा मन 
गुब्बारे जैसे उड़े आकाश में
किलक उठे हम |

ब्लैक आउट


22 August 2014
09:59
-इंदु बाला सिंह

कितना सन्नाटा सा लगता है
न जाने क्यूं
और
बस हम चलते जाते हैं मौन
चिराग भी जलाने की चाहत न होती
कहीं बाहर में ब्लैक आउट तो नहीं |

सती


22 August 2014
07:00
-इंदु बाला सिंह

एक सवाल
सती को महिमामंडित करनेवाले से
क्या तुमने शिव का मन पढ़ा
या सती का ?
उसी सती से मांगते तुम
अपने पुत्र का सौभाग्य |

स्किप कर जाईये खबर


21 August 2014
23:45
-इंदु बाला सिंह

कुढ़ कर कहा मैंने .......
ये
अख़बार है
या
रेपिस्तान
हर दिन खबरें छपती
बच्चियों के बलात्कार की |
मेरे पास बैठे सज्जन की बात ने
मुझे सलाह दी .......
स्किप कर जाईये वह खबर |

क्यूं जन्माऊं बेटी


21 August 2014
07:31
-इंदु बाला सिंह

क्यूं जन्माऊं बेटी
बिगाडू अपना बैंक बैलेंस
और
बसाऊं तेरा घर मैं
तूने ही तो समझाया मुझे
स्वर्ग न मिलता कभी कन्यादान से |

मृत संवेदना


20 August 2014
12:47
-इंदु बाला सिंह

सुनायी वह बड़े ताव से
निज मित्रों को अपने ब्याह की सुघड़ कहानी .......
कोर्ट में
किया था उसने अपने प्रेमी संग ब्याह ........
मैंने महसूसा ....... उसके प्रेमी का बल
और पहचाना उसकी बेईमानी
मृत सम्वेदना
रही कसर भी उसने यह कह कर पूरी कर दी
कि
उसने तो उस दूकान के लिये
मुकदमा भी ठोक दिया है
जो इस समय उसके पिता के पास है ........
जिसे वह अपने ब्याह से पहले
बड़े श्रम से चला रही थी |


बंदरिया


20 August 2014
08:41
--इंदु बाला सिंह


आज बंदरिया
सुबह आफिस में कम्प्यूटर का बटन टकटकाती है
और 
शाम को
टी शर्ट और ट्राउजर में
अपने एक नन्हे को पेट पर बेल्ट से बांध
दूजे का हाथ पकड़ घूमने निकलती है
अपने मातृत्व को सदा स्मरण रखती है |

स्कूल से निकला मन


20 August 2014
07:07
-इंदु बाला सिंह

स्कूल से निकला मन
सड़क की पुलिया पे बैठा सोंच रहा .........
सरकारी कालेज में दाखिला न मिला उसे
क्या सरकारी आफिस में
झाड़ूदार पिता का पुत्र होना गुनाह है उसका
या
सवर्ण कुल में जन्म लेना
पचास वर्षीय उसके पिता कब तक ढोयेंगे
परिवार का बोझा
और
क्या अब वह पढ़ न सकेगा कालेज में कभी |

विदेशी नौकरी


19 August 2014
11:10
-इंदु बाला सिंह

नौकरी में आरक्षण
और
भागो हमारे राज्य से .......
सुन के
मैं भागी
की अप्लाई
और झपट के पकड़ी
विदेश की नौकरी
अब
आज खुश है मेरा परिवार
और मैं
चमचमाती सैलेरी से |
बाकी कल की कल सोंचेंगे |

कंस की दुविधा


19 August 2014
08:23
-इंदु बाला सिंह

परेशान है कंस
जन जन में हैं कृष्ण
किसे मारूं अब ?

अपनी पकायी रोटियां


14 August 2014
22:51
-इंदु बाला सिंह

हाय !
ये रोटियां 
कितना दौड़ाये ये रोटियां
भूख लगायें ये रोटियां 
स्वप्न में आये रोटियां 
रोटियां ही रोटियां 
गोल गोल हों या टेढ़ी मेढ़ी रोटियां
तृप्त करे हर सुघड़ मन को अपनी अपनी पकायी रोटियां |

सरकारी टीचरी


07 August 2014
22:49

-इंदु बाला सिंह 

हाय 
कोई मुझे भी दिला दो 
सरकारी नौकरी 
कितनी प्यारी प्यारी लगे मुझे 
सरकारी टीचरी |

सोमवार, 18 अगस्त 2014

जीत का सूरज उगेगा


07 August 2014
08:26
-इंदु बाला सिंह

हिम्मत न हार
चलता चल
इतना जान ले तू
हर रात की सुबह होती है
इतना न घबरा तू
हम तो आजीवन लड़े किस्मत से
किस्मत ही थक जाती है
हमारी चुनौती से
इस आशा में जिये हम
कि
हार के अंधियारे में ही जरूर
हमारी जीत का सूरज उगेगा
और
हमारे गीले कपड़े सूखेंगे |

पुस्तक सबसे प्यारा साथी


07 August 2014
20:57
पुस्तक ही साथी
पुस्तक ही सहारा आदमी का
पुस्तक बिना न मिले
कभी आदमी को 
शहर के लुभावने
भवसागर का किनारा
पर
पुस्तक के लिये
निष्ठुर शहर के जी में
जगह नहीं
इतनी कमाई कराती है मॉल
कि
सरकारी लाइब्रेरी किसी कोने में उंघती है |
शहर
बड़ा समझदार है
पैसे  कमवाना  जानता है
पर
उससे समझदार है आदमी
क्योंकि
वह सदा अपने बैग में
एक अच्छा साहित्य रखता है
और
साल में एक बार
सपरिवार  अपनी जड़ों से जुड़
भूला देता  है
शहर की चकाचौंध |
अपने कमाये पैसों से उपजी गर्मी को
वह
अपने बुढ़ापे के लिये
बैंक में रख
भूल जाता है
क्योंकि
पुस्तक ने उसे सदा सिखाया ........

बुढ़ापे के ठंडे दिनों की गर्माहट है पैसे |

पंडित जी ! तुम क्यों गुमे ?


18 August 2014
22:00
-इंदु बाला सिंह

ओफ !
कितने जोश में तुम
गा रहे हो फ़िल्मी धुन में भजन
रात दस बजे के बाद !
चुप हैं मकान
और
सड़क
और
मुझे याद आ रहे हैं
वे पंडित जी
जो इस जन्माष्टमी में
मौजूद नहीं
मेरे पड़ोसी ने बताया
वे गांव गये थे
वहीं
गुजर गये
बूढ़े थे न ........
बुलावा आया था ........
पंडितों की अर्थी न दिखे कभी
ठीक चिड़ियों की तरह
वे जहां से आते हैं शहरों में कमाने खाने
वहीं लौट जाते हैं
आख़िरी सांस अपनी मिट्टी में अपनों के बीच लेने के लिये |
तुम्हारी ये जोश भरी भजन गाती आवाज
मुझे इश्वर की नही याद दिला रही है
क्यों कि
इश्वर का रूप तो मेरे हृदय में ही विराजमान है |
तुम्हारा भी
बुलावा आयेगा
तुम भी इसी तरह घरों में
बुलावे पर भजन गाते
बिना मेडिकल इन्श्योरेंस के कमाते खाते
गुजर जाओगे एक दिन
पर 
हम रहेंगे
तुम सरीखों को अर्थ दान दे कर
क्यूकि
अपना पूण्य बैंक के लाकर में
सुरक्षित रखा है |


कुब्जा का नसीब


18 August 2014
19:32
-इंदु बाला सिंह

ब्याह के लिये राजी हुआ
वह
कुब्जा बिटिया से
और
भाग खुला कुब्जा के बाप का
बिदा किया उसने
बिटिया को |
दूसरी पत्नी बनी कुब्जा से
भाग खुला
चार बच्चे घर में छोड़ के भागी पत्नी के मजदूर पति का |
कुब्जा ने मालिक के घर में काम कर
रहने को घर दिलवाया पति को
और
सजाया अपने नसीब को सौतन के बच्चे पाल |
नसीब ने
जन्माया कुब्जा के गर्भ से  एक
मानसिक अपाहिज बच्चा |
कुब्जा से
पले सौतन के
सुंदर सलोने चारो बच्चे
बसे
अपने अपने घर में
और
अपने नसीब का सलीब ढो रही कुब्जा
अब
अपने बूढ़े पति और अपाहिज पुत्र संग
क्योंकि
अब कोई मालिक उसे काम न देने को तैयार |


हिमालय टूटे ना


18 August 2014
15:46
-इंदु बाला सिंह

सूख जायेगी गंगा
हिमालय टूटने न देना कभी
याद रखना तू |

तुम कब मुस्काओगी


17 August 2014
15:38
-इंदु बाला सिंह

सीता !
तुम कब मुस्काओगी
तुम्हारा बाल रूप
मुझे न दिखा कभी |
आज
मुस्काते बाल कृष्ण
देख
मन्त्र मुग्ध हुआ मन मेरा
और
याद किया
मैंने
तुम्हें  |

रात


16 August 2014
23:49
-इंदु बाला सिंह

रात के दिन बनते ही
उंघती सड़क चौंक जाती है ..........
ओह !
कहीं दूर से आया शंख नाद
लग रहा है
कृष्ण कहीं जन्मे हैं
अरे !
ये लो
सड़क भी पल भर में 
मोगरे के खुशबू से गमक उठी है |

कर्मक्षेत्र


16 August 2014
23:29
-इंदु बाला सिंह

माना कि जाना है
खाली हाथ
पर
मोह और कर्म
हाथ पकड़ कर चलते हैं
सदा
साथ साथ परिवार में
और
गृहस्थ से बड़ा न सन्यासी कोय
जितना लेता है
उसका
चार गुना दे जाता है
वह
इस जग को |

पितृ सत्ता की जन्मदात्री


09 August 2014
09:15
-इंदु बाला सिंह

सामने के द्वार पर
लगा दिया था उसने ताला
जिससे न लगे कि बहन है घर की मालकिन
और
अपमानित बेटी निकलती थी बाहर
घर के पिछवाड़े से  |
माँ निकलती थी
घर से बाहर अपने कमरे के दरवाजे से
एक दिन उसकी माँ पिछवाड़े का दरवाजा बंद करना भूल गयी
चोर घुसे घर में पीछे से
हल्ला हुआ
भागे चोर
माँ बोली .....
इसीलिये तो लगाया है हमने ताला
सामने के दरवाजे में |
वाह !..जी वाह !...क्या बात है ....
जय हो !....पितृ सत्ता के जन्मदात्री की
घर में पालनेवाली राजनीति की |

बेटी में भी तू है


09 August 2014
06:58
-इंदु बाला सिंह

तुम्हारी बेटी
तुम्हारा दर्पण है
किस में दोष ढूंढते तुम |
तेरे कुनबे
तेरे समाज
तेरे कर्म का ही तो
वह प्रतिरूप है |

वर्दी में सुरक्षित हम


08 August 2014
12:16
-इंदु बाला सिंह

बड़े तन्हा हैं हम 
वर्दी में ढूँढ़ें
सुरक्षा 
और
सुरक्षित रखें हम
निज सन्तान |
हम न चाहें
अब
प्यार तुमसे
तेरे दुलार के
हम न भूखे |
हमारी टुकड़ी है रखवाली
सड़क पे चलनेवाली
बहन बेटियों की |
हम हैं
देश के वीर
महिला सिपाही
और
शान है हमारी
अपनी वर्दी
नाज है हमें निज कर्म पे |

हम हैं मस्त सहोदर


08 August 2014
06:56
हम मतवाले दोपाया होते ही
निकल पड़े
सडकों पे |
घर - बाहर
हंसते खिलखिलाते
सड़क गमकाते
हम सहोदर |
हम उदाहरण
मुहल्ले के
हर घर के
अपना भाग्य निर्माता |
हममें न किसी सत्ता का बीज
हम सिपाही आजादी  के
नैतिकता के
बगीचे के फलदार वृक्ष |
हम भाई - बहन हैं हर माँ की हसरत
सरकारी जीप के  ड्राइवर हमें जब सैल्यूट दे
तब पड़ोसी अख़बार हटा कर पल भर हमें देखें
हम हैं ऐसी सन्तान |

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

झांकता है बचपन


16 August 2014
08:19
-इंदु बाला सिंह

आज के
हरिशंकर परसाई जी 
तीक्ष्ण करते हैं 
हमारे तीर 
और 
बचपन छिप कर 
दरवाजे की ओट से 
झांकता है बड़े आश्चर्य से .......
आखिर ये बड़े 
इतना क्यों लड़ते हैं |

सपने की रोशनी


16 August 2014
06:57
-इंदु बाला सिंह

भोर का सपना होता है
लक्ष्य
दुनियां को सुनाये नहीं कि
झूठा हो जाता है
टूट जाता है
क्यूंकि
दुनियां
हमारी अम्मा नहीं
जो जीती है
हमारे सपनों में
यह नसीहत सुनते ही
मैंने
लिख डाला
सपना अपना
और
बंद कर दिया उसे
एक अंधियारी कोठरी में ......
अब मैं विस्मित हूं
क्यूंकि
जब
रात को 
अपनी बालकनी में
बैठता हूं
मैं
तो
जगमगा जाती है
मेरी बालकनी
मेरे सपने को रोशनी से
और
हर भोर
मुझे
मुझे वही एक लक्ष्य दिखता है
सपने में |

चमत्कार की आस


15 August 2014
21:51

-इंदु बाला सिंह

दलदल में फंस जाने पर
क्यों न हम
फ़ोन करें मोबाइल से
भगवान को
Is विश्वास के साथ
कि
जरूर आएगा
उनका हेलीकाप्टर
हमें बचाने को
क्यूंकि
हम जानते हैं
जितना हम हाथ पांव मारेंगे
बाहर निकलने को
उतना ही
अंदर डूबते जायेंगे |
सच ही कहा है
जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं
तब
हम चमत्कार की आस करने लगते हैं |

किराये का मकान


14 August 2014
14:16
-इंदु बाला सिंह

वह मकान
जो
शहर के शानदार इलाके में हो
पर
महीनों से खाली पड़ा हो
और
उसमें किरायेदार न आ पाते हों
तो
उस घर का मकान मालिक जरूर गलत आदमी होगा
यह उसे
उस समय अनुभव हुआ
जब
वह उस मकान मालिक से भुक्तभोगी हुआ |

ए री औरत


14 August 2014
13:15
थक गये हम
अब पक गये हम
तेरी बातें सुन सुन के
री औरत !
कितना झूठ बोलती तू
मिर्च मसाला लगा के सुनाती तू
अपने पुत्र को
किसी भी बात को .....
ए औरत
तेरे पास कोई विषय नहीं क्या
कान पक जाते मेरे
सुन सुन के तेरी बातें
रिश्ता कितना भी नजदीक का हो
पर
कितना मुश्किल लगता
ऐसी औरत के संग जीना
जो
शुरू हो जाती भोर से ही
बजने लगती रेडियो सरीखी तू
और
मैं
परेशान  होती
सुन सुन तेरे झूठ
कैसा होगा वह घर
सोंचुं मैं आज
कहाँ  के हवा पानी में तू बड़ी हुयी |



मन एक अनोखा प्राणी


14 August 2014
11:59
-इंदु बाला सिंह

आदमी का मन
बड़ा अनोखा है
यह न चले सदा
एक सा
बचपन में हो यह उत्सुक
ढेर सारी बातें जानना चाहे
जवानी में
यह हो आल्हादित
अपनी दुनिया में हो मस्त बंद करे
मन के दरवाजे
ज्यों ज्यों
हम होंय बुजुर्ग
हमारा मन
बच्चा बनता जाये
और
वह शैतानी करने को हो उत्सुक
गोलगप्पे खाना  चाहे
घर में ठहाका मारना चाहे
बैठना चाहे पार्क में देर तक
कितना कमीना है ये मन
जो
अब भी
पन्द्रह अगस्त
और
छबीस जनवरी के दिन
ऑफिस जैसा माहौल चाहे |

हवा में लहराती आवाज


14 August 2014
10:05
-इंदु बाला सिंह


निस्तब्धता में
जब
मन
के तार जब बजने लगते हैं
वह गा उठता है
अनजाने में |
हवा में लहराती उसकी आवाज
एक पल को ठिठका देती है
समय के पांव
और
प्रकृति भी हो जाती है
निस्तब्ध |
मन 
चेतना  के लौटते ही
चौंक उठता है
अपनी साथिन बुद्धि को गुमसुम बैठे देख
वह
चुप हो जाता है |