गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

नया साल आया था



- इंदु बाला सिंह


कल रात आया था
नया साल
मेरे पड़ोस के बनते मकान में
और
रात भर धूम मचायी  थी उसने
मजदूर के घर में
देर शाम तक आती रही
हीटर पर बनते खाने की खुशबू
और
रात भर
रेडियो से गानों की आवाज    ...........
सुबह होते ही  चला  गया था
नया साल ..........
रोज की तरह
आज सुबह भी मजदूरों की भीड़ जुट गई
और
बेलचा चलाने लगी  । 

खुशी की गर्माहट



-इंदु बाला सिंह

खुशी तो सूरज है
लाख ढको
उसकी किरण निकल  ही जाती है
बादलों  से  ..........
दुआ है मेरी
खुश रहे तू सदा
और
तेरी खुशी की गर्माहट में
खुश रहूंगी
मैं
ओ !
मेरे कमरे के पड़ोसी । 

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

निकलने का पल आ रहा पास





-इंदु बाला सिंह


देखते देखते
बाट जोहते
वर्ष छोटे होने लगे
और
दिन लम्बे
चलूं
छांटना ......... बांधना शुरू करूं
अब
अपना असबाब  ..........
निकलने का पल आ रहा पास
मकान को
साफ़ सुथरा कर
छोड़ जाना
भली बात । 

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

एक दिन वह सर्वे सर्वा हो गया




- इंदु बाला सिंह



ज्यों ज्यों वह बड़ा होता गया
उसे लगने लगा
वह अपनी बहन से अलग है
वह पुरुष है
महिलाएं उसकी सेविकाएं हैं
मां भी महिला ही है
और
एक दिन
वह सर्वे सर्वा हो गया
अपने घर का  ........ समाज का । 

थक चुकी



- इंदु बाला सिंह

मैंने
तुझे बोलना सिखाया
और
तूने
मुझे मौन रहना .....
मेरी उमर
तुझे लग जाये
थक  चुकी
अब
मैं रह के चुप । 

श्रम मूल्य तो दिया होता



-इंदु बाला  सिंह

जीत का श्रेय
तुम्हारा
और
हार का मेरा
जय हो !
तेरी सोंच की
तेरे अंतर्मन की
काम करवा के घर  में
भिखारी बना के
छोड़ा तूने
कम से कम
श्रम मूल्य तो दिया होता । 

मुक्त हुये अपने



-इंदु बाला  सिंह

जीते जी
खाने को तरसा वह
तेरही के दिन
मृत्यु भोज मिला
लोगों को उसके नाम पे
और
अपने
मुक्त हुये..... संतुष्ट हुये
उसे भेज  स्वर्ग ।   

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

अचम्भा जीने लगी




- इंदु बाला सिंह

आनेवाला कल   ..... भूल चली
शाम को ....... क्यूं याद करूं
इस पल  में
चेतना का  चप्पू चला
बढ़ा   चली
मैं
अपनी नाव .........
सुनामी आयेगी
तो
उससे भी भिड़ लूंगी
ईमानदारी और समझौतों की आग से झुलसा मन
कब रुका है हार के   ...........
जरूरतें
जब कम होने लगें
तब
समझ लो
प्रसन्नता आ कर टिक गयी
आदमी के मन में
और
धीरे धीरे
मैं
आदमी होने लगी
जल में रह कर भी सूखी रही
मैं
यह अचम्भा  जीने लगी
शायद मजबूरी में पकड़ सांस की उंगली
मैं
शेरनी सी चलने लगी
जीने लगी
मुस्कुराने लगी
बिन पिये बहकने लगी
महकने लगी
हर सुबह चहकने लगी ।  

कैप वाला कोट



- इंदु बाला सिंह सिंह

सुबेरे देखा
एक कुत्ते को कैप वाला कोट पहने
और
अपने मालिक के साथ टहलते  ...........

मुझे याद आये तुम
नये
काम पे लगे
बिना  स्वेटर के
शाम को  अधबने मकान की पहरेदारी करते
रात भर खांसते
ओ ! चौकीदार  । 

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

ये कैसा मानसिक सुख




-इंदु बाला सिंह



दिल दुखाया जिसने
किसी
निकटस्थ रक्त सम्बन्धी का अपने
उसने
क्या जीवन  जिया
ईश्वर भी रो  दिया होगा जरूर एक दिन
देख
उस  मानव की स्वार्थपरता ...........
ऐसी भी   क्या महत्वाकांक्षा
ये कैसा मानसिक सुख
कि
पर्वत शिखर पर पताका लहरा तो  लिये हम
पर
लौटे
तो
घर में हमें छायायें ही मिलीं । 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

रात भर क्यों न चमकते तुम




-इंदु बाला सिंह


टिमटिम चमकते तारे
मन को भाते
बादलों के
टुकड़ों के पीछे
छुप जाते
खेलते
लुक्काछिप्पी मुझसे ...........
खोजूं हो परेशान
मैं उन्हें
देख मुझे परेशान
झलक दिखलाते वे अपनी
फिर छुप जाते ...........
ओ तारे !
क्यों छुपते तुम
रात भर क्यों न चमकते तुम
सुकून देता
मुझे
तुम्हारा झांकना
मेरे झरोखे से । 

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

सूरज कितने दिन बाद निकलेगा ?




-इंदु बाला सिंह


शिमले में बर्फ पड़ रही है..........
कह कर
रजाई में घुसी मैं
संग बच्चों के........
चली  कहानियां ..... किस्से
बच्चे खुश ........
आज नो होमवर्क ......
मम्मी !
सूरज कितने दिन बाद निकलेगा ?........
किलका मुन्ना  । 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

दोषी नाबालिग बच्चा या अभिभावक




- इंदु बाला सिंह




नाबालिग ने किया बलात्कार
तो
उसके अभिभावक को क्यूं न दोष दूं मैं ........
अपने सुख
अपनी महत्वाकांक्षा में डूबा मन
क्यूं भूल चला
पढ़ना
अपनी संतान की
चाहतें
समस्यायें ...........
केवल स्कूल
और
ट्यूशन भेज
क्यूं मुक्त हो चले
अभिभावक
अपनी जिम्मेवारी से ...........
क्यूं न कैंची चली
माता पिता  की
अपनी औलादों की मित्र मंडली पे......
अपने बच्चों में
सांस लेता
जन्मदाता
क्या मुक्त है
अपनी
नाबालिग संतान के अपराध से । 

क्या तुम मुझे याद रखोगी ?




- इंदु बाला सिंह



ऐंठ जाता है मन
जन्म देते वक्त
कविता को
और
नेत्रों को सजल करना भी मना रहता है..........
कविता !
क्या तुम मुझे याद रखोगी । 

रविवार, 13 दिसंबर 2015

कठुआये बीज


14 December 2015
12:50


-इंदु बाला सिंह



मुद्दतों बाद
मिली
मुझे मेरी खोयी किताब
और
उसमें से झांकी
एक कशिश ...........
तीली लगा दी
मैंने उसे ......................
धुयें के
गुबार ने
देखते ही देखते मिटा दिया
अहसासों के
कठुआये बीज .........
जीने के लिये
है  जरूरी 
भूलना बीते दिन |  |

दीवाली


13 December 2015
11:10
-इंदु बाला सिंह


अंधियारे मन में
रोशनी लाती
दीवाली
भले
बच्चों के लिये
मुस्कुरा देते
हम
एक दिन ....
और
न जाने क्यूं
दूसरे दिन से ही
इन्तजार करने लगता मन
अगले साल आने वाली
दीपावली का |

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

महत्वाकांक्षी औरत




- इंदु बाला सिंह



हर भोर शुरू  करती है
तोड़ना
महत्वाकांक्षी औरत
अपना पथरीला नसीब
कभी रंगों से
तो
कभी  शब्दों से .........
अकेली ही चलती है
वह
अपने  अंधियारे में
दृढ निश्चय  की मशाल थामे
जीवन पथ पर
इस आस में
कि
कभी तो मिलेगा
मीठा झरना
अधिकारयुक्त   .... गरिमामयी
रंगीन सांझ का । 

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

एक उलाहना




-इंदु बाला सिंह

तुम तो  बैठे मंदिर में
न समझो तुम सच की आंच
लोग कहें - ' मन में भगवन '
तो
क्यों मरता है मन
अब न फुसला सको तुम ....
मैं भी खूब समझूं
तुम बसते राजनीतिज्ञों के घर......
जाओ जाओ
वहीं रहो
मैंने
बंद कर दिये
अपने दरवाजे
तेरे लिये ।


आखिर क्यों




-इंदु बाला सिंह

चित्रित कर पाते हैं पुरुष कवि
स्त्री मन
पर
स्त्री खुद मौन रहती है
या
टरकाती  है
वह
हमें
अपनी रचनाओं में..........
आखिर क्यों । 

हमारा पार्क



-इंदु बाला सिंह

सकून पहुंचाये पार्क
हमारे मन को
चाहे
इसे
दूर से देखें
या
पास से
यह तो
हमारी
क्रीड़ा स्थली है
विचार स्थली है
कितना मन भावन है हमारा पार्क । 

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

प्रतिभावान बच्चा


10 December 2015
07:16
-इंदु बाला सिंह


एक बिंदु है
घर का
हर प्रतिभावान बच्चा
जो
पलटेगा
पूरी व्यवस्था
और
लायेगा
सुखद हवा का झोंका
मोड़ के
अपने घर के
आजादी के जंगल से .............

आओ !
सम्हालें
हम
इस चिराग को
अपने आंचल तले
अपने इर्द गिर्द फ़ैली जहरीली हवा से |

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

सड़क सुरक्षित थी




- इंदु बाला सिंह


एक दिन महिलाएं आफिस जा रहीं थीं
और
दुसरे दिन पुरुष
सड़क
शांत थी
सुरक्षित थी
घर में
बच्चे खुश थे
मैं पसीने पसीने था
आँख खुली .....
पत्नी बच्चों समेत मैके में थी
और
आज रविवार था । 

रविवार, 6 दिसंबर 2015

करकता रहता है



- इंदु बाला सिंह

स्टेशन पे मिलनेवाला
गड़ जाता है
मन में
अड़ जाता है
तिरछे हो कर
और
करकता रहता है वह
आजीवन
याद बन खाली पल में । 

डगमग चलती नन्हीं बिटिया



- इंदु बाला सिंह


बेटी निकली  घर से
पहुंची
नयी दुनियां में
नये नये लोग मिले
भूल चला मन मां का स्नेह
पर
अपने घर में बैठी मां
करे चिंता
दूरस्थ बिटिया की
याद आये
उसे
डगमग कदमों से चलती
नन्हीं बिटिया अपनी । 

ईश्वर



- इंदु बाला  सिंह

चेतना मिटी
ईश्वर गुम हुआ ....
विकल मन । 

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

काश ! शीत निद्रा से जग जाता मन



- इंदु बाला सिंह

काश !
लौटते बीते दिन
तो
हम आज भी मुस्काते
और
हो के निश्चिंत
बांधे रहते
हम
अपनी मुट्ठी में
अपना मनचाहा आकाश
काश !
शीत निद्रा से जग  जाता
सोया मन मेरा । 

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

आज खेलें हम



- इंदु बाला सिंह

मिट्टी है
तो
हम हैं ..........
चलो खेलें
गीली मिट्टी में ..........
आओ
आज बनायें
हम
अपने अपने घरौंदें । 

उसे ' चीफ की दावत ' के इंजीनियर का इन्तजार था




- इंदु बाला सिंह


पुरनिया
अपने मर्द के बनाये मकान के
पिछले अटैच्ड बाथरूम वाले कमरे में सोती थी
जागती थी
और
अपने इतिहास में जीती थी ।
उसकी
आलमारी भरी थी
उसके
अपने मर्द द्वारा उसे उपहार में मिले
हर मौसम के कपड़ों से ।
वह
बैठना चाहती थी
अपने डाइनिंग रूम में
पर
वहां बैठते ही वह आहत हो जाती थी
किचन में काम करने वाली कामवालियों की अपनी भाषा में शुरू हो गई बातों से
और
डाइनिंग टेबल पर दबी जबान में बतियाते आये दिन टिके निखट्टू मेहमानों  के सपाट  चेहरों से |
वह
अपने ड्राइंग रूम के सोफे में बैठ अभिवादन स्वीकार करना चाहती थी घर में आनेवाले मेहमानों का
उनसे होनेवाली चर्चा में अपना मत प्रकट करना चाहती थी ...........
अपने घर के बरामदे में अपने मर्द की लम्बी कुर्सी पर बैठ अपने पैर पसार सड़क का नजारा देखना चाहती थी
पर
बेटे की तनी भृकुटि उसे रोक देती थी ।
 उसे असह्य था
अपने बेटे का तपाका
और
बहू की मुस्कुराहट ।
पुरनिया को
इन्तजार था अपने स्कूल में पढ़ी  कहानी के चरित्र
अपने
सपने  के ' चीफ की दावत ' के इंजीनियर का
जो कभी न कभी तो आनेवाला था
और
उसके द्वारा बनाई गयी
ड्राइंग रूम में टंगी पेंटिंग की प्रसंशा करनेवाला था । 

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

नशा इन अनबोले शब्दों का



-इंदु बाला सिंह


न लाना कभी जुबान पे
आई लव यू ...
टूट जाएगा
जादू इन शब्दों का ........
कुछ शब्द
अंदर ही भाते हैं ........
वे
मिश्री  की डली सा घुलते हैं मन में
गमकते हैं बालों में ...........
निराशा के पलों में
चढ़ता है नशा इन अनबोले शब्दों का
और
हम मुस्कुरा कर मीलों सफर कर जाते हैं ।

रविवार, 29 नवंबर 2015

हम गुलाम हो गये गाड़ियों के



-इंदु बाला सिंह

पांव ने छोड़ दिया
साथ हमारा ......
बहुत याद आती   हैं सड़कें
जहां से
गुजरे  थे हम पैदल गाड़ी के भाव में.........
खाली थी जेब
तो क्या हुआ
आतुर थे
हम
लिखने को अपना नसीब..........
 वे
राजसी पल  छूट गये
और
हम गुलाम हो गये
गाड़ियों के । 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

शायद यही नरक भोग है



-इंदु बाला सिंह

बिस्तर में पड़ी रहती है वह .........
वह  बुजुर्ग महिला
बोल नहीं सकती
सुन नहीं सकती
चल नहीं सकती
उसे उठा कर बाथरूम ले जाना पड़ता है ........
अस्पताल में भर्ती करने के लिये
चाहिये पैसे
फिर देखभाल के लिये चाहिये एक नर्स
कहां से आये  पैसे !
घर की युवा महिला सदस्य नौकरी करती है ........
सुन कर
पड़ोसन  मुंह से
एक बुजुर्ग की त्रासदी
दुखित  हो गया जी.........
शायद यही नरक भोग है । 

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

न बंधूं मैं


27 November 2015
08:57

-इंदु बाला सिंह


क्यूं बंधूं  मैं
हवा हूं
बहुंगी
झाड़ियों से धीरे धीरे निकलूंगी
रुकुंगी
बार बार जन्मूंगी
और
मिलूंगी तेरी मिट्टी में
ओ री धरा !
न बांटना मुझे किसी घर में
न दान करना मुझे
तेरी थी
सदा तेरी ही रहूंगी |

सत्य न जाने क्यों बढ़ता ही नहीं


27 November 2015
07:49


-इंदु बाला सिंह


न जाने कब और कैसा बीज पड़ा
कि जन्मे
जुड़वां
सत्य और चोरी
जब से होश सम्हला है
परेशान है सत्य चोरी से ........
चोरी दिखती नहीं
पर
कहीं न कहीं यह अपनी उपस्थिति
दर्ज करा
अपने जीवित होने का प्रमाण दे ही जाती है ........
कभी यह निकम्मे के पीछे छुपती है
तो
कभी लालची के पीछे
और
बढ़ती ही जाती है
उंची होती ही जाती है |
सत्य छोटे बच्चे सा ठुमुक ठुमक चलता रहता है
जो भाता मन को जरूर है
पर
कितना भी इसे बाढ़ की टानिक पिलाया जाय
पर
यह न जाने क्यों बढ़ता ही नहीं |

बुधवार, 25 नवंबर 2015

तुम इतनी श्रीहीन क्यों हो


26 November 2015
07:24


-इंदु बाला सिंह


1987 में लिखी गयी थी



केवल खाना कपड़ा पर काम करनेवाली
ओ री व्यवस्थापक !
मातृत्व के बल पर तुम इज्जतदार हो .....
घर की महत्वपूर्ण समस्यायें समझी जाती हैं .............सुलझायी जातीं हैं
केवल मर्दों द्वारा ..........
तुम खुश हो
तुम्हारे पास अपना मर्द है ....बेटा है ........ छोटा भाई भी है
तुममें
बात समझने की
निर्णय लेने की क्षमता नगण्य क्यों है ?
तुम तो शक्ति पुंज हो ...........प्रकाश स्तम्भ हो
तुम इतनी श्रीहीन क्यों हो |

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

गमकाती हूं


24 November 2015
13:09


-इंदु बाला सिंह



डाल दी है राख मैंने
तेरे दुर्गुण पे ........अपने जी के सुलगते अंगारे पे
तू सामने नहीं
तो
क्यूं बांटू मैं
आज
जी में संचित कड़वे रस का चटखारापन.............
बीते समय के 
बाग़ से
मैं चुन लाती हूं
हर दिन
तेरे एक एक सद्गुण के फूल
और
उन से गमकाती हूं
मैं
अपना मुहल्ला ..........
मित्रों में
रोशनी बिखेरती हूं
अपनी
मुस्कुराहट की |

रविवार, 22 नवंबर 2015

गुरु बनाओ औरत को



-इंदु बाला सिंह

व्रत उपवास से पुण्य कमाना
रो  रो के गम का पहाड़ पिघलाना
सीखना है तो
आओ
गुरु बनाओ
औरत को । 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

वह बड़ी उम्र की थी



-इंदु बाला सिंह


वह
अकेली थी
बड़ी उम्र की  थी
मकान  मालकिन थी
बिल्डिंग में उसे दादी कह कर बुलाते थे
पर
वह मोटी चमड़ीवाली थी
या
दिल से  दबंग
पता  नहीं
ब्याह के  मंडप पे
उसी की कामवाली ने
नहीं बुलाया था ………
ब्याह  गीत जब  गाने लगीं औरतें
तब वह खुद को रोक न सकी
और
बैठ गई मंडप के सामने
अपने  दरवाजे पे.......
देखने लगी
ब्याह की रस्में
नहीं  बुलाये तो क्या हुआ  ...........
यह कैसा रिवाज है
अकेली औरत को  न पहचानने  का
ब्याह की  रस्मों के समय । 

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

वह बिटिया अभी भी नहीं गई क्यों ?



-इंदु बाला सिंह


पीछे के मकान  से ब्याह के गीत के बोल फूटते ही
पड़ोस के बंद घर के बरामदे में
न जाने क्यों आ खड़ी होती है पड़ोसी की फ्रॉक पहनी  डेढ़ वर्षीय बिटिया .....
कभी कभी तो वह  अपनी माँ का चप्पल पहन  चलने लगती है
माना कि बिटिया का अंतिम कर्म निपटा  घर छोड़ दिया है पड़ोसी ने
पर उनकी वह बिटिया अभी भी नहीं गई है
ऐसा क्यों ?

बुधवार, 18 नवंबर 2015

वह सजा देगा तुम्हें



-इंदु बाला सिंह
ईश्वर के नाम पे डरानेवालो !
ईश्वर गर है
तो
वह सजा  देगा
जरूर
तुम्हें ।  

भाई की दबंगई


18 November 2015
13:24
-इंदु बाला सिंह


छत पर से
छुपके
फेंकता था गिट्टी के टुकड़े 
छोटी बहन का भाई
बहन की मित्र मां बाप की एकलौती सन्तान के छत पे
और डर के
कहा करती थी मित्र -
न जाने कौन मेरी छत पे रोज दोपहर में फेंकता है पत्थर |
जान के भी अनजान बनी रहती थी
छोटी बहन
शायद
वह आनन्द उठाती थी
अपने भाई की दबंगई का  |

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मैं बावरी हतप्रभ खड़ी


18 November 2015
09:45
-इंदु बाला सिंह


गलत सही ना कुछ इस जग में
सही है बस  पैसा ..........
पैसे की न जात .....न रंग .....न धर्म
पैसा तो
सर पे चढ़ के बोले
जी हजूरी कराये
वक्त के संग मिल कत्ल  करे..............
पैसे को कोसें
सब 
अपने ड्राइंग रूम में  
और पूजें बेड रूम में 
मैं बावरी हतप्रभ खड़ी
देखूं
रंग बदलती औरतें .........सफेदपोश मर्द ......पूतोंवाली निपूती माता |

सड़क सुधारेगी उसे


18 November 2015
07:13

-इंदु बाला सिंह


दिमागवाली लड़की को
छोड़ दिया मैंने ..........
पैसा कमाना इतना आसान नहीं
सड़क सुधारेगी  उसे .....
लड़की और कुत्ता पट्टे में जंजीर लगने पर  ही प्यार पायें |

रविवार, 15 नवंबर 2015

उठ खड़ा हो


16 November 2015
12:36


-इंदु बाला सिंह


ओ रे मित्र !
किस गम में टूटा तू
जगा चेतना
उठ
खड़ा हो
कि
कर्तव्य रहा तुझे पुकार ........
देख जरा तू अपने  हाथ
ये ही तो तेरे सुख दुःख के साथी
तुझे खिलायें ..........पोंछे ..........तेरे आंसू
उठ साथी !
सार्थक कर
अपना मानव जन्म .......
कुछ नया कर
कुछ बीज दे जा इस जग को
लहलहाएगा तू जरूर ...........निस्सीम आकाश के नीचे |

शनिवार, 14 नवंबर 2015

क्या छुपाये तुम दिल के अंदर


15 November 2015
07:53

-इंदु बाला सिंह


समन्दर !
क्या छुपाये तुम दिल के अंदर
क्यों हो तुम क्रोधित ...........उफन उफन डराते ..........
रात में
तुम आ जाते
मेरी बंद खिड़की पे
हो ओ ओ ...... हो ओ ओ ...........हड्म हड्म ......
डराते मुझे ..........
मैं तो तेरी मुग्धा
सुबह ....... शाम ........सूर्य की किरणों संग तुम सोना बिखेरते
दिन भर तुम क्या करते ?
ओ समन्दर !

आज तुम बतला ही दो न |

पूतोंवाली निपूती


13 November 2015
19:41


-इंदु बाला सिंह


बारी बारी से आते
दो पूत सपत्नीक तीन साल में
एक बार
कोई दो दिन रहता
तो
कोई दस दिन
एक दिन दोनों परिवार मिलते
माँ का ख्याल रखते
समाज की प्रशंसा पाते
फिर
लौट जाते अपने अपने देश ..........
पूतोंवाली
अकेली माँ
सदा की तरह अकेली ही रह जाती ..........
वह आंसू बहाती
कामवाली से पूतों का गुणगान करती
सदा की साथिन
सहारा बनी ...अकेली बिटिया ....तानों के थपेड़ों में झूलती
उपेक्षा का अपमान झेलती
रात्रि की शीतलता में जीती ........साँसें लेती
और
समय के तूफ़ान में अपनी जीवन नाव खेती ........
ये कैसा जीवन पाया तूने
ओ री बिटिया !
कौन सी आग जल रही थी तुझमे
जो तेरा पथ प्रदर्शित कर रही थी तेरे मन का
क्या था तेरे चित में ..........
शायद
अपमान की आग ही इंधन थे
तेरे जीवन के राकेट की सुतली के 
और लम्बी समय की सुतली .........धीरे धीरे सुलग रही थी .........
यह कैसा विधान है विधाता का
कि
बिटिया न मैके की
और
न होय ससुराल की
समय के झूले में झूलती........अपनी पहचान ढूंढती ........
क्या खूब पराकाष्ठा थी जीवन की
कि
पूतोंवाली निपूती माँ भी अपना अस्तित्व भूली रहती .......
पड़ी रहती हर पारिवारिक उत्सव में
अपने कमरे में ......सजी धजी .......अपने स्वजनों की भीड़ में अकेली |






शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

रिश्ते




- इंदु बाला सिंह

इतने स्वार्थी कैसे बने तुम
पुत्र प्रेम में
कैसे इतना डूबे तुम
हैरत है ...........
अपने कर्तव्य पथ से च्युत हुये
और
अपनी दी जबान से विमुख हुये
न जाने किस विद्यालय में पढ़ कर तुम बड़े हुये
आज सोचूं मैं
तुम ही तो रख चुके थे नींव
स्वार्थ के महल का
जिसे पूरा किया तुम्हारे बेटों ने
और
रिश्ते कुम्हला  गये । 

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मौन मन




- इंदु बाला सिंह



कल
तुम बोलते थे
अपने निकम्मेपन को भूलते थे
तृप्त होते थे
मुझ पे लांछन लगा लगा के
आज
तुम चुप हो
मैं तो कल भी चुप थी
और
आज भी चुप हूं..........
औरत बोलती है
तो
इतिहास करवट लेता है.………
भूगोल की पढ़ायी  सदा  राह दिखाये
अंतरिक्ष उन्मुक्त करे मन
आज मौन मन चाहे डालना
 दाना
चिड़ियों को
और
हराना
चिड़ियों को नभ में ।

माता और ब्याहता पुत्र



- इन्दु बाला सिंह


पैसे की गर्मी
बढ़ी  ऐसी
कमाऊ पूत पे
कि
चढ़ी
चर्बी आँख पे ...........
दिखायी न दें
वृद्ध पिता
न आये पहचान  में
लो भई अब तो अपनी माता ..........
ब्याहता बिटिया की शिकायत कर कर हारी माँ
पर
जीत न पायी मन
अपने पुत्र का...........
मुहल्ले में प्रसंशा कर कर हारी
पुत्र प्रेम में अंधी
वृद्धा माँ
पर
द्रवित  न कर पायी मन अपने पुत्र का..........
ये कैसा संबन्ध बनाया
ओ दयु !
तूने
आज
माता और  ब्याहता पुत्र का ।

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

शौक से देखेंगे हम



-इंदु बाला सिंह

आज जंग है
अंधकार से दीये के प्रकाश की
शौक से देखेंगे हम
अँधेरे का दम
और
चमकते
जुगनू  भूखों की आँखों के । 

बंटी मिठाईयां



- इंदु बाला सिंह

तुम रोये
मैं मुस्कायी
बंटी मिठाईयां ...........
तुम मुस्काये
खुशबू उड़ी दूर तक
अंगड़ाई ली आशा ।  

स्नेह डालना न भूलना



-इंदु बाला  सिंह


नारी मन है लौ
एक अकेले  दीपक की
जलती
रौशन होता उसका अपना घर ...........
लौ
है आशा
हर भटके मुसाफिर की
जो
कभी मंद जलती
तो
कभी भभकती
यों लगता है अंतिम पल अब उसका ..........
दीये  में है जबतक तेल
तबतक  तो लौ मौन जलेगी ...........
स्नेह डालना न भूलना गुजरने से पहले
ओ भटके राहगीर ।

रविवार, 8 नवंबर 2015

लड़कियों का आरक्षण



-इंदु बाला सिंह

कमाऊ मर्दों के
अपने काम पे जाते ही
औरतें
निकल जातीं हैं घर से बाहर
बतियाती रहती हैं
अपने मर्दों के घर लौटने तक ...........
मैं न समझ पायी
आज तक
उपयगिता लड़कियों के आरक्षण की
विद्यालय या कालेज में ।

शहर और गांव कितने दूर



-इंदु बाला सिंह

आज वह छोटा है
कल बड़ा हो जायेगा
रिलेशन बना रहना चाहिये -
शहर ने सपाट चेहरे से कहा
गांव तैश में था -
उसकी इतनी हिम्मत !
भिखारी कहीं का !
खाने को अन्न नहीं घर में !
अपने कर्म भूल गया वह ?
अरे ! किस घर का लड़का है ! इतिहास याद रखा होगा  वह  जरूर । 

शनिवार, 7 नवंबर 2015

दुःख चुपचाप दुबका पड़ा था



-इंदु बाला सिंह

पल भर में गुजर गयी
वह मां के पीछे पीछे डुगुर डुगुर चलने वाली बिटिया
स्तब्ध रह गयी मैं...........
अस्पताल पहुंचने से पहले ही  निर्जीव हो चुका था
उस बिटिया का  शरीर
और
अब बाकी रह गईं थीं
रीति ...........
दुःख चुपचाप दुबका पड़ा था
कहीं कोने में ।


कुछ पल बाद याद आयी मुझे
तीन दिन बाद आनेवाली दीवाली । 

सोमवार, 2 नवंबर 2015

आज भी खुश है वह बिटिया


03 November 2015
09:57

-इंदु बाला सिंह

बिटिया को देखा जो पिता बने
ऐसी बहायी हवा उन्होंने
कि
बना दिया है उसे
आज 
अपाहिज
पर
आज भी खुश है वह बिटिया
याद कर के
अपना पितृत्व |

रविवार, 1 नवंबर 2015

श्रोता कामवाली




Mon 2 Nov 9 : 29 : am


- इंदु बाला सिंह



नानी तो है झूठ की गठरी
जब खुलती
उसमें  से  निकलते
अजूबे किस्से
जिसे  सुनती
गाल  पे रख के हाथ कामवाली
आखिर बातें सुनने के ही तो पैसे मिलते उसे
छोड़ के अपने बच्चे
अपनी बस्ती में
सुबह से शाम तक डटी रहती मालकिन के घर में
और
मुक्त रखती
वह
बहुरानी को
दिन भर के सिरदर्द से । 

कूद पड़ी थी वह बिटिया



Mon 2 Nov  7 : 56 : 07

-इंदु बाला  सिंह


चौके में
जूठे बर्तन के पास आंगन में
गंदे कपड़े के पास बाथरूम में
मातृत्व को साकार करती
माँ के पीछे पीछे चलती
बिटिया ने
होश सम्हाला
आफिस में
अपने जीवन साथी के घर में
सड़क पे
और देखते ही देखते
आ गयी तलवार हाथ में
कूद पड़ी थी
वह बिटिया जीवन युद्ध में
जीतने को
अपना अस्तित्व । 

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

ओ री ! प्यारी लड़की सुन !



- इंदु  बाला  सिंह

ओ री !
लड़की सुन !
कितनी प्यारी है तू
तू ही तो मुद्दा है
ड्राइंग रूम का
नुक्क्ड़ का
पान की दूकान का
स्कूल डेज का
कालेज लाइफ का
ओ री !
ब्याहता लड़की सुन !
कितनी प्यारी लगती तू
जब लौट के जाती अपनी ससुराल तू
मैके  का आंगन मुस्काता गमकता तेरे  जाते ही
मुक्त होती भाभियां
दीर्घ सांस लेते पिता
निश्चिन्त होती माँ
तेरे घाव को लोग भूल जाते
आखिर क्यों बतियायें
अरेंज्ड मैरेज है
सारा दोष उन पर आयेगा
ओ री !
प्यारी लड़की सुन !
वापस न लौटना
तू तो बतरस की है गठरी
आखिर कोई कितना ढोये तुझे
ऐसे ही चलती है दुनिया ..........
मैं भी तो तुझसे मुक्त हुयी
तुझपे लिख के । 

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

छाया ही है सच्ची गुरु


29 October 2015
10:07


-इंदु बाला सिंह 

देख के
होते कुपित या रूठते
सूरज को हम पे
सदा साथ रहनेवाली हमारी मित्र छाया
छुप जाती है पल भर में
और
समझा जाती है हमें ..............
कितना ही अपना कोई क्यों न हो
छोड़ देगा 
वह साथ हमारा
आ खड़ी होगी मुसीबत सामने हमारे ...........

छाया ही तो है
सच्ची गुरु
इस नश्वर जग में   |

ओ ! जानेवाले टूटते तारे



-इंदु बाला सिंह

ओ !
जानेवाले टूटते तारे
दे जाओ
कुछ भी
तुम जाते जाते
बस  जाओगे
तुम
मेरे अन्तस्तल में |

सपनों के कटघरे से मुक्त हुआ मन




-इंदु बाला सिंह

कहानी जली
जला  उपन्यास
टूटा मन
छपी रचनाएँ जली
गुम  हो गए हम
अपनों के खत जले
हस्तलिपियों से  आती महक गुमी
चित्र जले चिंदी चिंदी हो कर
अंतिम बार झांके चेहरे चिन्दियों से
और मैंने सोंचा -
साँसों से संबंध टूटने के बाद
काश ! देख पाती मैं खुद को जलते हुये…...........
सपनों के कटघरे से मुक्त हुआ मन
स्तब्ध सा
आज
आ खड़ा हुआ यथार्थ की जमीं पर । 

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

कागजी यादें




-इंदु बाला  सिंह

बेहतर होता है नष्ट  देना  कागजी  यादों को
सच्ची थी होंगी
तो
आयेंगी याद
बनेंगी
जीने  ऊर्जा
वर्ना आखिर कितनों को समेटें हम
अपने पिटारे में
सुविधाजनक होता है चलना सड़क पर
ले कर हल्के असबाब……
और देखते ही देखते धू धू जल उठीं यादें
एक तीली से....
आवाक खड़ा है मन ।


सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

गजब के पत्थर थे हम


27 October 2015
09:04

-इंदु बाला सिंह

न जाने किस मिठास की चाहत लिये
गुजरते रहे
महसूसते रहे
जीते रहे खट्टे अनुभव .........
खड़े रहे
देखते रहे मुंह फेरते रिश्ते
गजब के पत्थर थे हम
जो
इन्तजार करता रहा
जौहरी का
अपनी नियति का |

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

राजनीति अच्छी नहीं माओं से

- इंदु बाला सिंह

बांट दिया है तुमने औरतों को
जेवर
जरीदार कपड़े
थाली भर अन्न दे कर
और
राज कर रहे हो तुम ....
बेटियों से छीन  उनका हक
भर रहे हो  तुम
अपने बेटों का घर.......
राजनीति अच्छी नहीं माओं से
लड़ाओ नहीं तुम बहनों को अपने भाईयों से । 

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

बिदकी नानियां


16 October 2015
08:11


-इंदु बाला सिंह


एक के पीछे एक चलती भेड़ें
जो बिदक गयीं
उन्होंने बसा ली अपनी बस्ती ..........
आज
बिदकी भेड़ों के पोते पोतियां
सुनती हैं ....पढती हैं उत्सुकता से
अपनी नानियों
और
परनानियों की भेड़चाल की कहानियां |

अब उकता गये हैं


15 October 2015
12:12

-इंदु बाला सिंह

जाल बुनने में मजा आया ...........
सोये थे
हम
रेशमी जाल में
अब उकता गये हैं .........
जाने का वक्त आ रहा है पास
यूं महसूस होने लगा है ..............
लो
अब हम काटने लगे हैं
आशा का हर रेशमी धागा |

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

अनुभूतियों का ग्राफ


14 October 2015
22:10

-इंदु बाला सिंह


पीछे पलटते ही
दीख जाता है
अतीत और अपनों की अनुभूतियों का ग्राफ
एक अजीब सी बेचैनी छाने लगती है .............
तब
बेहतर लगने लगता है
आगे बढ़ना
नये अनुभव लेना |

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

मुड़ जाती हैं राहें


11 October 2015
13:01

-इंदु बाला सिंह

बोलना न बोल ऐसे
कि
बन जायें वे
कभी न भर पानेवाले घाव
अपनों के दिल में
और
बन जायें 
वे पल 
मोड़ जीवन के |
हर बार समझौते करनेवाला भी
ले ही लेता है निर्णय कभी कभी ...............
देखते ही देखते 
पल भर में
मुड़ जाती हैं राहें |

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

दबंग सड़क


11 September 2015
07:18


-इंदु बाला सिंह

दबंग सड़क घुस आयी है
पोर्टिको में
ट्रैफिक रुल न मानना शान है ........
बड़ी आतुर है
वह  घुसने को घर में 
 दरवाजा तोड़ के  |

मुफ्त की साड़ियां


03 October 2015
07:31
-इंदु बाला सिंह



जीवन से
जल्दी मुक्ति पाने के लिये
वह भी लाईन में लग गयी  ..........
चुनाव गये थे
मैदान में मुफ्त की साड़ियां बंट रहीं थीं |

बुधवार, 30 सितंबर 2015

आत्ममुग्धा



-इंदु बाला सिंह 


लेखक नहीं हूं मैं 
पर 
लिखती हूं 
पाठक नहीं हूं मैं
पर  
पढ़ती हूं अपनी रचनाएं 
आलोचक नहीं हूं मै
पर 
आलोचना करती हूं खुद के वर्णित चरित्रों की 
रचना के भावों की 
मुग्धा हूं  मैं
अपनी रचना की |

अकेलापन


30 September 2015
23:04


-इंदु बाला सिंह

लटक गयी
या लटका दिया गया
पता नहीं
पिता की इकलौती सन्तान
जो
अपने पिता के
गुजर जाने के बाद
अपना अकेलापन दूर करने के लिये
बनी थी
दूसरी पत्नी एक युवा की
और आर्थिक रूप में सहायक थी
अपनी सौत की |

लिंग भेद


30 September 2015
22:41
-इंदु बाला सिंह


दस हजार की तनख्वाह पानेवाले सुपुत्र होते हैं
मिलती है उन्हें
अपने  ब्याह में
कार जेवर के साथ लड़की
पर
दस हजार तनख्वाह पानेवाली लड़की सुपुत्री नहीं होती
उसके जन्मदाता
अपनी दुखी रहते हैं
उनकी बेटी बिनब्याही रहती है
वह
आजीवन समाज से कटी
अपनों के लिये बोझ बनी रहती है
बस सुधार का
सपना देखते रह जाते हैं हम |

सोमवार, 28 सितंबर 2015

अनूठे लेखक


- इंदु बाला सिंह


ओ लेखक !
ओ गजब के  दूरदर्शी हरिशंकर परसाई और प्रेमचंद  !
स्वर्ग में बैठ मुस्काते
तुम हम पर
तुम सरीखे  न कोई आज मेरी धरती पर
भला क्यों ?

रविवार, 27 सितंबर 2015

कहीं कुछ होनेवाला है



- इंदु बाला सिंह

विश्वास हारा
खोया खोया
इलेक्ट्रॉन मन भटक रहा  है
प्रोटॉन की  तलाश में
जल रही है धरती मौसम की मार से। .......
जी शंकित है
आज देख आकाश में
इलेक्ट्रॉन के  काले उमड़ते घुमड़ते  बादल
कहीं कुछ होनेवाला है ..  शायद ।  

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

बचा के रखो



-इंदु बाला सिंह


बस यूं  ही कहने  की बातें हैं
मुसीबत में
काम आते हैं अपने
बचा के रखो यारो ! अपना स्वाभिमान और स्वावलंबन
अपने  हृदय के  बैंक में
जब चाहो निकाल लोगे  इन्हें तुम
अपने विचार के ए०  टी ० एम ० से
और
खरीद लोगे
तुम पल भर में
अपनी मुस्कुराहट इनसे  । 

रविवार, 20 सितंबर 2015

आ पल भर मौज करें



-  इंदु बाला सिंह


व्यवस्था को सुधारने से बेहतर है माहौल सुधारना
अपनी निष्क्रियता को भाग्य  का नाम दे
ईश्वर को
नहीं  कोस सकते तुम
तेरी मुट्ठी में है बन्द तेरा सुगन्धित समय
जरा पढ़   न तू
अपनी हथेली  का लेखा
अरे ओ ! निराश मन
आ चल चलें
' एलिस ' की अद्भुत दुनियां में
आ न जरा
पल भर मौज  करें । 

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

तुम मुझे मिलने से रहे



-इंदु बाला सिंह

थे होगे
तुम किसी के प्यारे
हमारे लिए
तो इस व्यस्त जिंदगी में
तुम
पढ़ने लायक खबर भी नहीं
गुजर गए तुम आज किसीकी जिंदगी से
तुम्हारे कर्मकांड के बाद
तुम्हारी सम्पत्ति पाने वाला निश्चिन्त होगा
भला अखबार में पढ़ कर
तुम्हारे जाने की खबर
क्यों बर्बाद करूँ
आज
मैं अपना समय
अखबार के शीर्षक ने मुझे बता दिया-
अब तुम मुझे मिलने से रहे । 

बुधवार, 16 सितंबर 2015

दिल में रहो न




-इंदु बाला  सिंह

सब कर्मचारी
आफिस देर से पहुंचते
तू क्यों बसा है  मंदिर में
तेरे नाम पे सब अपने कमरे की सफाई  करते
ओ भगवन !
तुम क्यों न रहते सबके दिलों में ।

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

न बरसना तू




-इंदु बाला सिंह



बादल !
आँखों से न बरसना तू
बस
यूं ही उमड़ घुमड़
मेरा मन भिंगोना तू
हरियायेगा  मेरा बीज
पनपेगी मेरी लता
एक दिन
धरा का
यह अटल विश्वास है । 

रविवार, 13 सितंबर 2015

तुम मेरे हो




-इंदु बाला सिंह


तुम 
मुझसे दूर कभी न जा पाओगे
मैं बसी हूँ
तुममें
तुम्हारे ख्यालों में
जब जब अकेले होगे तुम
मुझे पाओगे सदा ही अपने पास
क्योंकि
तुम मेरे ही अंश हो |

सोमवार, 31 अगस्त 2015

ठंड है जरूरी


01 September 2015
12:09


-इंदु बाला सिंह

मन !
ठंड रख .........
वर्ना हो जायेगा तू पागल
अपनी
इस सुख दुःख की गर्मी से
एक दिन |

बुधवार, 26 अगस्त 2015

कराह न सका


27 August 2015
07:06



-इंदु बाला सिंह

गृहस्थ के एक वस्त्र ने
मारी ऐसी मार
कि
कराह सका संसार |

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

नन्हा पौधा


21 August 2015
12:08


-इंदु बाला सिंह

वृद्धाश्रम में है
हमारा जीवित इतिहास
और
अनाथाश्रम में भविष्य ......
बरगद तले उपजा एक नन्हा पौधा
है सोंच रहा ...
कब बनेगा वह विशालकाय |