13
November 2015
19:41
-इंदु बाला
सिंह
बारी बारी से
आते
दो पूत
सपत्नीक तीन साल में
एक बार
कोई दो दिन
रहता
तो
कोई दस दिन
एक दिन दोनों
परिवार मिलते
माँ का ख्याल
रखते
समाज की
प्रशंसा पाते
फिर
लौट
जाते अपने अपने देश ..........
पूतोंवाली
अकेली माँ
सदा की तरह
अकेली ही रह जाती ..........
वह आंसू बहाती
कामवाली से
पूतों का गुणगान करती
सदा की साथिन
सहारा बनी
...अकेली बिटिया ....तानों के थपेड़ों में झूलती
उपेक्षा का
अपमान झेलती
रात्रि की
शीतलता में जीती ........साँसें लेती
और
समय के तूफ़ान
में अपनी जीवन नाव खेती ........
ये कैसा जीवन
पाया तूने
ओ री बिटिया !
कौन सी आग जल
रही थी तुझमे
जो तेरा पथ
प्रदर्शित कर रही थी तेरे मन का
क्या था तेरे
चित में ..........
शायद
अपमान की आग
ही इंधन थे
तेरे जीवन के
राकेट की सुतली के
और लम्बी समय
की सुतली .........धीरे धीरे सुलग रही थी .........
यह कैसा विधान
है विधाता का
कि
बिटिया न मैके
की
और
न होय ससुराल
की
समय के झूले
में झूलती........अपनी पहचान ढूंढती ........
क्या खूब
पराकाष्ठा थी जीवन की
कि
पूतोंवाली
निपूती माँ भी अपना अस्तित्व भूली रहती .......
पड़ी रहती हर
पारिवारिक उत्सव में
अपने कमरे में
......सजी धजी .......अपने स्वजनों की भीड़ में अकेली |
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