गुरुवार, 4 सितंबर 2014

हम तो गीत सुनें घर में


28 August 2014
17:41
-इंदु बाला सिंह

जलेबी रेस है आरक्षण
बल बुद्धि ही गड़पे जलेबी
छोटे छोटे हाथोंवाले मजदूर रस्सी में लटकी जलेबी न जाने बूझे
वो तो बस पिता के बी० पी० एल० कार्ड से खुश
जन्मदाता की भूख मिटने में है ब्यस्त
कमाने के लिए सात सात सन्तान जन्माये पिता ने
हर सन्तान मजदूरी करे
तो भी न बदले घर का नसीब 
घर के प्राणी भूखे सोंयें हर रात
आखिर सुबह पखाल खा कर निकलना है न जरूरी
वरना चक्कर खा  कर गिर जायेंगे वे
किसी मकान की नींव पे
भला मजदूरों की शहर की अनधिकृत बस्ती के चतुर चोर को क्या दोष दूं 
जो शाम को बाईक उड़ायें सड़क पे
मोबाइल झटकें ....
चेन झटकें ......
आजादी के इतने बरस बाद भी
हर इंसान रोटी कपड़ा मकानधारी न हुआ अब तक
आज भी
कोई कूद रहा आरक्षण की जलेबी रेस में
तो कोई मुट्ठियां तान रहा सड़क पे
और हम अपने घर में बैठे सुन रहे

' पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय ' अपना मनपसंद गीत |

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