29 August
2014
12:19
-इंदु बाला
सिंह
आनेवाली
छांव की आस में
हम जीते जाते
हैं
ये कैसा श्रम
है हमारा
कि
सब बूझ कर
भी
हम खुद को
छलते जाते हैं
पर
रात होते ही
लग जाती नींद
फिर क्या राजा
क्या रंक फकीर
सब सुख हैं मन
की खेती
जिसने जैसा
बोया वैसा काटा |
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