सुबह सुबह
आवाजें आने
लगीं
हर घर के
सामने से
शनिवार था
दुर्भाग्यशालिनियां
बेच रही थीं
अपनी आशीषें
बंट गयीं थीं
सामूहिक आवाजें
आज के दिन
काफी बिकती
थीं आशीषें
सौभाग्यशालियों
में
उन्हें
जल्दी से
जल्दी
बहुत से द्वार
पर पहुंचना था
मन्दिर में भी
तो बैठना था न
मुझ
नसुड्धे के
द्वार
कोई न हांक
लगाता था
शायद
उनकी नजर में
मैं मनहूस थी
उनकी आशीषों
की खरीददार न थी |
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