मंगलवार, 18 मार्च 2014

मनहूस का द्वार

सुबह सुबह
आवाजें आने लगीं
हर घर के सामने से
शनिवार था
दुर्भाग्यशालिनियां बेच रही थीं
अपनी आशीषें
बंट गयीं थीं सामूहिक आवाजें
आज के दिन
काफी बिकती थीं आशीषें
सौभाग्यशालियों में
उन्हें
जल्दी से जल्दी
बहुत से द्वार पर पहुंचना था
मन्दिर में भी तो बैठना था न
मुझ
नसुड्धे के द्वार
कोई न हांक लगाता था
शायद
उनकी नजर में
मैं मनहूस थी
उनकी आशीषों की खरीददार न थी |



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें