न जाने क्यों
बुरे न लगें
मुझे
रोटी चुरानेवाले
दुखी होता मन
बस |
क्रोधित
हूँ
उस बाप पर
जिसे
जन्म देते
वक्त औलाद
हुई खुशी
पालते वक्त दुःख |
अभावग्रस्त की फौज
हमारी
भला कर रही
धनिकों का
जिसे मिलते
नौकर
सस्ते में
एक
के छोड़ते ही दूसरा |
ये विशाल फौज
घरेलु नौकर , रेजा , कुली की
बुढ़ापे में क्या करती
किसे फुर्सत सोंचने की
हमारे भवन बने
हमारे कमरे चमके
इति |
क्या स्वार्थ का कारोबार
माँ - बाप
थोड़ा घर के
काम में
हाथ
बंटा दें
तो नौकर
क्यों रखें
चोरी
से तो बचे हम |
ये अंधी
सुख - सुविधा की दौड़
कहाँ ले जा रही
क्यों सोंचे हम
क्या हम सिरफिरे हैं
कल की कल सोंचेंगे |
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