कितना मांजी
चरित्र बर्तन को
दाग न गया
अब कौन साबुन लगे
बोल बंधू मेरे तू !
चमकाया था
घर का फर्श मैंने
छाप न पड़ी
पैरों की तेरे कहीं
इतनी
गन्दगी थी !
खदबदाती
उफनती भावना
बह निकली
ताजी कविता बेची !
मुआ पेट न भरा |
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