मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

झाड़ू............रहीम के दोहे से प्रेरित

इंदु झाड़ू राखिये  
झाड़ू बिन सब सून
भला बिन झाड़ू कैसे साफ़ हो
घर सड़क मैदान |

गरीबी का घड़ा

अपने पूर्वजों से मिला
गरीबी का घड़ा
जिसे सिर पर रख मैं चला
फेंकने समन्दर में
उम्र बीती
समन्दर न मिला
फिर थमा दिया मैंने
वह घड़ा
अपनी सन्तान को
इस नसीहत के साथ ....
राह में न फेंकना
वरना बीज बिखर जायेंगे

ढेर सारे पेड़ लग जायेंगे गरीबी के |

जल बचाएं

जल बचाईये 
जल है अनमोल 
सजीव की तो शक्ति ये 
मरनेवाला भी चाहे 
दो बूँद जल की |

दया क्यों चाहे ?

लगा लम्बी छलांग
पार कर ले गरीबी रेखा
क्यों चाहे तू
बी० पी० एल० कार्ड
कंधे से कंधा मिला के
बढ़ता जा
आरक्षण क्या करेगा तू
दया दुःख देगी
तू देश का प्रतीक है
तुझसे ही देश का मान है |

चलो बहिस्कार करें

नव संस्कृति का चलो
आज से हम बहिस्कार करें
ये घर न तेरा है
न मेरा है
यह घर हमारे बुजुर्गों का है
हमारे बच्चों का है
हम तो हैं
इस घर के संरक्षक 
इसकी खुशियों की गर्माहट में
हम मुस्कायेंगे
भूलेंगे
हम सारे
बाहर के दुख |


रविवार, 29 दिसंबर 2013

पुत्र सरीखी नहीं क्या ?

मेरा अपमान 
तुम तभी शुरू कर देते हो 
जब मेरी फोटो खिंचवा कर पाकेट में डालते हो 
और छुट्टियां ले गाँव में 
रिश्तेदारों के पास 
मित्रों के पास 
भटकने लगते हो 
अच्छे लड़के की तलाश में 
और वह लड़का तुम्हारा बैंक बैलेंस महसूस कर 
मेरी फोटो से आंखें फेर लेता है 
मुझे न पसंद करने के कई बहाने बनाने लगता है
जितना तुम गली गली भटकते हो
मेरी फोटो के साथ
उतना ही मेरा मान गिरता जाता है
मैं छोटी होती जाती हूँ
खुद की निगाह में
मौन होती जाती हूँ धीरे धीरे
बेटी हूँ
तो क्या तुम्हारे पुत्र सरीखी नहीं मैं |

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

खेल लें हम

शतरंज एक खूबसूरत खेल है
इस खेल में
सोंच समझ कर चलने वाला
कम चाल में ही
विरोधी को घेर लेता है
प्रश्न केवल ठंडे दिमाग और रणनीति का है
निर्धारित अवधि तक टिके रह शतरंज के बोर्ड पर 
हम सामने वाले को कभी बौखला देते हैं
और विरोधी गलती कर बैठता है
जीवन जिसने खेल माना
वह जी लिया
खिल गया |

न मुस्कुराऊं मैं

मुस्कुराना गुनाह है तेरी बस्ती में
लो हम मुस्कुराना भूल चले
जीना है किसी के लिए
इसीलिये जी लिए
किसी की मुस्कुराहट में
मुस्कुरा दिए 
खिल खिलाना मना था
सो खिलखिलाना भूल चले
पांव में था दम
सो चलते रहे हम
चूँकि मन में थी लगन
इसलिए नैन दीप जलते रहे |

दबंग की जय

सच  के बगल खड़े होता
सदा सहोदर झूठ
जिसे जैसा पोषण मिलता
वो मजबूत शक्तिशाली बनता
राज  करता
दबंग बनता
घर हो या बाहर
पोषणकर्ता की है जय
दबंग की जय |

सड़क पर चलना भला लगे

एक हाथ में पतला सा डंडा
और दुसरे हाथ में पोलीथिन की थैली लिए
प्रतिदिन दिखती थी
वह  महिला
एक दिन पड़ गयी मेरे सामने
और रुक गयी
अपने पुत्र और बहू की उपलब्द्धि गिना दिया उसने
बेटी का भी अच्छे घर ब्याह करना उसकी अपनी उपलब्द्धि थी
बेटी के सहारे बेटा बहू ले कर तीर्थ घूम आयी वह
आखिर बेटी का भी तो कुछ फर्ज है
पूछ बैठी ....
आपके घर में फूल का पेड़ नहीं है ...
सामने नौकरीपेशा महिला को पा
गिनाने लगी
अब वह अपनी मजबूरी ...
क्या करूं जमीन नहीं है मकान में
फूल कहाँ लगाऊं
फूल के बहाने चल लेती हूँ
पैर जम जायेगा घर में बैठ कर
मौसा नहीं हैं
घर में अच्छा कैसे लगे
नौकरी करती तो मित्र रहते
अकेली हूँ
भरे पूरे घर में
जी भी न लगे बुढ़ापे में
सड़क पर थोड़ी देर
किसी बहाने चलना भला लगे |

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

परिश्रमी बनें

स्त्री और श्रमिक
सदा से रहे हैं दमित
विद्रोह दमित का
जला देगा समाज को एक दिन
क्यों न हम रखे ख्याल उनका
मन जीतें उनका
कम से कम अपने आसपास का
मकान शान नहीं सकून है
बड़े मकान में पलता है
घरेलू कर्मचारियों का आक्रोश
आज व्यापारीवर्ग भी व्यापार से दूर रहना चाहें
पढ़ लिख नौकरी करना चाहें
किसान असंतुष्ट गाँव में
चकाचौंध शहर की ललचाये भूखे को
लड़की पढ़ने बाहर निकले
तो ब्लात्कृत हो
गरीब स्त्री
डाईन या बिकाऊ  कहलाये
दूर की समस्या दूर है
बेहतर है
परिश्रमी बनें हम
और अपना घर साफ करें
कम से कम
घर में न राजनीति करें |

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

अनोखी सरकारी कर्मचारी

एक नई सरकारी कर्मचारी
ट्रांसफर हो कर आयी
हमारे पडोस में
घर में मात्र चार प्राणी थे
एक थी विधवा सास
जो कि मृत सरकारी कर्मचारी की पत्नी थी
एक था पति
जिसे नौकरी न मिलती थी कहीं
एक था दो वर्षीय बेटा
जो पिता के साथ खेलता रहता था
बातें करता रहता था
यह चार प्राणियों का परिवार अनोखा था
और अनोखी थी वो पत्नी
जो पडोसियों  से न मिलती थी
पर जब वे घर से बाहर पैदल निकलते थे
सास के साथ
वह सरकारी कर्मचारी चलती थी
उनके पीछे उस कर्मचारी का पति और बेटा चलता था
सब उन्हें कौतुहल से देखते थे |





गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

छुट्टियों में त्यौहार

त्यौहार ही उमंग है
मेल का प्रसंग है
पल भर भूलते
हम गम जिन्दगी के
दूर के रिश्ते भी अपने लगते
पर सच्ची खुशी तो
तब होय
जब पढ़ पायें अपनों के मन प्रतिपल
भले वो हमसे दूर हों
पर मन से करीब हों
अपनों के परेशानियों से वाकिफ हों
महसूस करें  घर का सकून
भले हम विदेश हों
अपनों के प्यार से
प्यारा कोई  रंग नहीं
अपनों की मुस्कान से बड़ी सुगन्धि नहीं
अपनों की खिलखिलाहट सी फुलझड़ी नहीं
छुट्टियों में रिश्तेदारों के आगमन से बड़ा त्यौहार नहीं |

सहिष्णु बनें हम

जाति धर्म लिंग
छूटे हमसे मृत्यु के पश्चात् ही
यह जान कर बढ़ाएं मनोबल
हृदय में सहिष्णुता
आत्मा में पवित्रता
नैतिकता का  शीतल प्रलेप करें तन पर 
खून में सत्य का उबाल ले
जब चलेंगे
और बढ़ते चलेंगे
तब अपने मुस्कायेंगे
धरा मुस्कायेगी |

बीज बो इमानदारी के

इंसान नहीं वह 
हृदय में
जिसके करुणा की रस धार  नहीं
मानव नहीं
वह पत्थर है
जिसे मनुज से प्यार नहीं
दुसरे के दुःख से
जो सदा लापरवाह है
जन्म देता है
वह दुःख को ही सदा
हमारा रूप पड़ोसी देख रहे
बोलें भले न
सब समझें
आहों से विस्फोट होने न दे
तू
सोच समझ कर कर्म कर
बीज बोये जा
इमानदारी  के
तू न खाया गर तो
औलादें खायेगी तेरी ही |

मीठी सी चाह है

स्वदेश का प्यार हो
विदेश के प्रति मान हो
घर में नैतिकता हो
नई तकनीक ग्राह्य हो
पूर्वजों पर शान हो
पैतृक प्यार का ऋण हो
सन्तति के भविष्य का कर्तव्य बोध हो
वर्तमान में जियें हम
सादा जीवन उच्च विचार हो
परिवर्तन की खुशबू बहे

बस इतनी ही मीठी सी चाह है |

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

स्त्री की समझ

कहते हैं
स्त्री घर की धुरी होती है
माँ बहन बेटी हो या पत्नी
दादी हो या नानी
मैं कहूं
पुरुष होता है धुरी सदा
घर का
उसके भौं संकुचन पर
मुस्कान पर
न्योच्छावर है हर महिला
उसे प्रसन्न करने हेतु
कट मर जाती हैं
और इस तरह सदा शोषित होती रहती हैं
जिसने समझ लिया
यह नीति घर के पुरुष की
उसने सम्मानपूर्ण जीवन जी लिया
पर जब जब उसने बदला लिया
लक्ष्मी बन
डगमगाया जगन्नाथ का सिंहासन 
भटकते रहे दर दर
सुख शांति की तलाश में |

न हारना कभी तू

जानेवाला
लौट कर नहीं आता
जिन्दगी से मुंह मोड़ने वाला
अपने लिए तो सुख तलाश लेता है
पर उसके अपने
आजीवन उसे भूलने की चेष्टा करते रहते हैं
भगोड़ा कह कर कोसते रहते हैं
एक निर्जीव नन्हा दिया लड़ लेता है अकेले ही अन्धकार से
हम तो सजीव हैं
मन में लग्न की आग लिए
सतत चल रहे
हारना न कभी तू रे मन
तेरा जीवन समाज की जरूरत है |

आफिस में सुख

सुन मेरे प्यारे
सरकारी आफिस में काम करने गुन
एक चौथाई समय काम
दो चौथाई समय बास की ब्यथा सुन
एक चौथाई समय मित्रों को चाय पिला
नौकरी में प्रोमोशन की ओर से निश्चिन्त रह
आफिस में ए० सी० का सुख पायेगा
ज्यादा इमानदारी दिखायेगा
सबकी आँखों में गड़ जायेगा
ट्रांसफर इंटीरियर गाँव में हो जायेगा
बच्चे बीबी ससुराल रहेंगें
बाप माँ पानी पी दैव को कोसेंगे |

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

दुनियावी पाठ

पत्नी वही भाए
जो कमाए
बच्चे पैदा कर घर भी बसाये
पति की मनुहार करे
इसी में उसकी सुरक्षा निहित है
बिलबिला कर जब निकल पड़ती है
वह घर से
तब कहानियाँ बनती हैं
उसकी
टूटी औलादों की
आज वे परिवार कहाँ
रिश्तों की जगह नहीं घर में
बच्चे कैसे पहचानें प्रेम
रिश्तों का
नौकरों से सीखते वे
दुनियावी पाठ |

जय हो माँ की !

: बच्चे हों
पांच बेटे
और एक बेटी हो
पांचों बेटे विदेश  में हों
हो एक बेटी पड़ोस में
तो माँ की चांदी है
बेटों की प्यारी है
क्यों कि
भाईयों को न देना है
धन दौलत पड़ोसी बहन को
जय हो माँ की
नौकरों से भरे घर की |

वह अभागा लड़का

सर पर  ट्रंक रख तक पहुंचाता था
गाँव से शहर के स्टेशन तक
वो खून के रिश्तों के ......
बड़े बाप का बेटा
वह गांव में रह
बाप का धन बचाता था
मंद मंद मुस्काता था ......
चौबीस पचीस का युवा वह
पिता माता से दूर
रिश्तों की डांटे खाता था .....
न स्कूल गया न प्यार पाया
घर में ही
अपनों का मजदूर बना .....
न जाने क्यों कहीं चला गया
एक हकदार कम हुआ
मारो साले को ...अच्छा हुआ चला गया ....
इस सम्बोधन के साथ
वो गुम गया
इस जग में .......
वह अभागा लड़का
उसकी यादें भिंगों देती हैं पलकें
बरबस टपक बड़ती हैं बूंदें .....
कहते हैं
पुत्र जन्म से खुशी होती है
मैं कहूं
सुपिता मिले तो खुशी होती है |

मैं तो अंगद का पांव हूँ

स्थिरता हो पांव में
जमे रहे वजूद अपना
जीत की चाह हो
तो काट ही डालेगा
उंगली का सुदर्शन चक्र
हर गुनाह को
माना कि राजनीति छल है
हम वंशज है
महाभारत के देश के
पाप का घड़ा तो रिसेगा ही
और तब
धरा काली हो जायेगी
क्या उगाओगे फिर तुम
क्या खाओगे
कोई न कोई तो रहेगा ही
विक्रमादित्य के सिंहासन पर वही बैठेगा
राज वही करेगा
आस रहेगी जीते जी
तुम क्या दिखाओगे  स्वप्न
हम खुद देखेंगे
अपना स्वप्न
और साकार भी करेंगे खुद ही
हम खुद ही निज भाग्य विधाता
तुम्हारी तरह ही हैं हम
धनी न सही
नैतिकता की पुस्तक हाथ में धर
हम चलते रहे
जब जब नैतिकता ह्रास हुआ
हम तो आम जनता हैं
बस आम ही रहे
अंगद का पांव बने रहे
और मुस्कुराते रहे
दुश्मन को तड़पाते रहे |





सोमवार, 16 दिसंबर 2013

प्यारी धूप

धूप !
छोटे बच्चे हम
जाड़े के मौसम में
क्यों न रहती
हरदम तुम
दिन भर तो
बाहर संसार बसायें हम
खेलें कूदें
पेड़ पर चढ़ें अमरुद के
इस डाली से उस पर डाली चढ़
बन्दर बन जायें हम
कितना भला लगती है
स्कूल की जाड़े की छुट्टी
छत पर बैठ
माउथ आर्गन बजाएं हम
लान में लेट
हैरी पॉटर पढ़ें हम
पर न भाए हमें रात में घुस जाना
अपने कमरे में
प्यारी धूप !
तुम रात में भी रहती तो
हम सो जाते
खेलते खेलते बालकनी में |

गणित से निकला मन

निकल आयी
तुम्हारे गणित  से बाहर
तुम्हारे उत्तर के गलत होने की
उत्तरदायी नहीं मैं
क्यों कि
तुम्हारा
गणित को हल करने का
तरीका ही गलत था
नम्बर तो
हल करने के तरीके पर मिलते हैं .......
गणित का प्रश्न
युद्ध नहीं
जिसे तुम समाधान कर लोगे
छल बल कौशल से
और
उत्तर मिला लोगे मित्र की कापी से |

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट रचना मानव

संत सांप सा
केंचुल उतारता मन
हर समय नया बन जाता है
भूल समय के दिए घाव
हो मस्त उड़ता है
नभ में
भूल लिंगभेद ,जातिभेद ,धर्मभेद
वह
तो बस ज्योतिपुंज रहता है
जो अनुभव कर सकता है
सुख
चिरन्तन सुख
और देखता रहता है
इंच इंच जमीन के लिए कटते मानव
और अपने इर्दगिर्द बाड़ बनाते
पर जितना बांधते खुद को
उतना असुरक्षित रहते
कितना भाता है उड़ना पंछी सा
पर अशरीर
महसूसना जग को
जग से रह दूर
और फिर वापस लौट आना
अपनी दैनिक क्रिया में
सर्वशक्तिमान को धन्यवाद दे
दैनिक जीवन के कर्म में .......
सच में
मानव तू सर्वोत्कृष्ट रचना है प्रकृति की |

अपनी जगह मैं खुश था

राजनीति का खेल निराला
वो न सगी किसी की 
जो सुधारने चला
वो सुधर गया
झाड़ू दे दे हारा
कचड़ा तो
सामने से जितना हटता गया
पीछे उतना जमता गया
झाड़ू बेचनेवाला आज खुश है
आज खड़ा हैरान है जी
आखिर
किस क्षण पकड़ी
उसने झाड़ू हाथ में
चला था करने सफाई
अपने घर की
पिछला जीवन ही भला था
चार बातें सुन
टी ० वी ० देखता था
आराम से सोफे पर पसर कर
समन्दर किनारे
आज बैठा मन
आज है विचारमग्न |

शिक्षक चले मंथर गति से

सुधार सुधार बैठा तन
थक हारा मन
गाली दे
मनोबल गिरावै जग
क्या पढावें विद्यालय में शिक्षक
खाली गिनें पगार
ये भूले सब पाठ बिसरावे मुन्ना
जब घर में रिश्तों में
ठगी देखे पापा मम्मी के
दुकानदार से पर्ची में उलट फेर करा पापा
आफिस से कमायें एक्स्ट्रा मनी
ठोकें बंगला सुंदर सा
इमानदारी का पाठ पढावे मास्टर
और मान न पाए जग में .......
मुन्ना भी समझदार हो चला
छल बल कौशल से
मात्र डिग्री पाने को आतुर हो चला .......
थके शिक्षक को
बुद्धि ने जब पिलाई घुट्टी
भोर भोर वह मंथर गति से विद्यालय बढ़ चला |

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

आज

न याद करूं मैं
उन अपमान भरे पलों को
मुट्ठी में है आज |

गले की फांस

सम्बन्धों को जोड़नेवाली फेविकोल
घर की कर्ता धर्ता बनते ही
फ़ांस बन जाती है गले की
और सदस्य गण पढ़ने लगते हैं
चेहरे एक दुसरे के
आँखों ही आँखों में |

निश्चिन्त हुईं

झाड़ू
जब से मर्दों के हाथ में आई
घर की सफाई
की ओर से निश्चिन्त हुईं
महिलाएं |

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

सच्चाई की राह

मुश्किल होता है
बेईमानों की  बस्ती में
इमानदार बने रहना
झूठों के देश में
सच बोलना
पाखंडियों के समूह में
साँस लेना
उफनती नदी में
खुद को बचाए रहना सा लगता है
अपने निश्चय को बचा कर रखने की
कोशिश करते वक्त
भीड़ में
जीवन तपस्वी सा लगता है 

तू तो चितचोर है

मैं  न आऊँ
पास तेरे
लेखक
तू तो चितचोर है
पढ़ ले मन की बतियाँ
लिख दे फेसबुक पे
सखियाँ मारें ताने
बस स्टैंड पर |

कैसे बोलूं

सुख की मिठास
गूंगे के गुड़ का स्वाद है
दुःख का त्रास
रुकी हुयी सांस है
कैसे मुखरित हो भाव !

जग टिका है

जग टिका है
जुनूनी के जूनून पर
जिनने लाये परिवर्तन
परिष्कार किया
हमारी सड़ी मान्यताएं
और आजीवन जीता रहा
अपने उसूलों पर |

अपनी भाषा हम भूले

अपनी भाषा में 
हम अपनी आभा में गमकते हैं
हम हंसते हैं और रोते हैं
अपने घर के संस्कार में डूबते और उतराते रहते हैं
यह जानते हुए भी
कि परदेशी भाषा
हमारे तन को आकर्षक बनाती है
हम अपनी ही लाश को सजा कर
जीते हैं
खिलखिलाते हैं
प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं
और शान से कहते हैं .....
ये लो हम तो अपनी भाषा भूल चले |

मित्र तो है जरूरी

मुर्ख मित्र पर दया
कष्ट देती है
और अपने मुर्ख हों
तो कष्ट द्विगुणित हो जाता है
भोग विलास की आकांक्षा
मुर्खता  में कोढ़ का काम करने लगती है
जिस दिन विस्मृत हुआ यह मूल मन्त्र
उस दिन खोएगा तू खुद को
सुन रे !
मेरे साथी !
ओ मेरे मन !
मित्र तो हैं जरूरी
याद रख
कर्म और ज्ञान सा न मित्र कोई
कभी न अकेला छोड़े हमें
हमारे शरीर त्याग के बाद भी
हमारी सुरभि फैलाये
जनमन में |

जीत की मिठास

न हंस पाता है
न रो पाता है
आज वह
ये अलग बात है
गर रोता भी तो
खुशी के ही आंसू  निकलते उसकी आँखों से  ......
मन जल से निकली मछली सा
छटपटाता
तिलमिलाता सा रह जाता है
जब बरसों नचाने के बाद
मिलती है उसे
उसकी  अधिकृत वस्तु .......
आंखे तो मौन रहती हैं
पर मुख से बरबस निकल पड़ता है
चलो आखिर सत्य और धैर्य की जीत हुयी
लेकिन अंतर्मन से एक चीत्कार उठती है
I have won the game ….
लेकिन मन धीरे से फुसफुसाता है
यह तो विराम नहीं
रास्ता तो आगे की ओर जा रहा है
और तुझे चलते रहना है |



    


.



प्रचंड सूरज

मन
जब धरा बन जाता है
उस पर बर्फ का पहाड़ भी बन जाता है
जाड़े की भोर का सूरज पिघला नहीं पाता उस बर्फ को
पर प्रचंड गर्माहट सूरज की 
गर्मी के मौसमवाली
पिघला देती है पहाड़ ........
देखते ही देखते जल - धार बह निकलती है
मन में बसंती फूल खिल उठते हैं
घर महक उठता है ....

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

शेरनी प्रसन्न हुयी

जिन्दगी भर उसने लिया न था कुछ
अपनी जिन्दगी अपने शर्तों पर जीने के बाद
अब घायल शेरनी सी चाट रही थी
अपने घावों को
सबसे छुपकर एक कोने में
उसके पंजों के निशां से शिकारी पहुंच गया था उस तक
पर पत्ते से लटकी चींटी ने काटा उसे
न जाने उसे कैसे
बंदूक का निशाना चूक गया
और घायल शेरनी उस पर टूट पड़ी
आज भोजन स्वयं चल कर आया था उसके पास .......
शेरनी प्रसन्न हुयी  |

अविस्मर्णीय चरित्र

मन तो हवा है
किसीके  बांधे न बंधा है
जोगी हो या संसारी
कर्तव्य की बांसुरी में
हवा फूंक
जिसने न साधा
सुर ताल जीवन का  भोर भोर
वो क्या कभी मधुर लगा है
फुर्सत के क्षणों में 
साधते हम पलों के तार
कभी जोड़ते , कभी बदलते टूटे तारों को
छेड़ते मधुर तान
आंखो में मधुर बचपन का बिम्ब लिए
पहचान बनते भोर की
अविस्मर्णीय चरित्र की |

सो गया है बचपन

हम झूठ बोते
झूठ की रोटी खा
मित्र बनाते
दिमाग की खाद दाल
विकसित करते जीवन का वृक्ष
बड़ी जल्दी फलता ये वृक्ष
हम ये कैसे उद्यान लगा रहे हैं
अपनी जीव्ह संध्या के लिए
आज अंतर्मन
हो निमग्न जलता है 
खोजी मन तलाशता है  अपने  निर्दोष बचपन को
जो शायद कहीं सो गया
झूठ की रजाई में |

बच्चे की समस्या

मैं दस वर्षीय बच्चा हूं
मेरी समस्याओं के लिए फुर्सत नहीं
माँ के पास
वह रसोईं में व्यस्त है
पिता के पास फुर्सत नहीं
वे आफिस से थक कर लौटते हैं
शिक्षक के पास फुर्सत नहीं
किसी छात्र की व्यक्तिगत समस्याओं के लिए
मित्रों के पास फुर्सत नहीं
वे व्यस्त हैं अपने पैसे खर्च करने में कंटीन के अंदर
और मैं हर शाम बैठ जाता हूँ मौन
घर के सामने पार्क में
एक दिन एक पिता आया
उसने मेरी समस्या सुनी बड़े धैर्य से
हम दोनों मित्र बन गये
एक दिन मेरे बगल से गुजरती कार से
एक हाथ निकला
मैं कर के अंदर खींच लिया गया
फिर मुझे होश न रहा
आज मैं भटक रहा हूँ बम्बई की सड़क पर
मेरे माता पिता रोते होंगे मेरे लिए
भटक रहे होंगे
परेशान होंगे
अब मैं अपनी समस्या बताता नहीं किसी से
होटल में प्लेटें धोता हूँ
पैसे जोड़ता हूँ
पोस्ट आफिस में
मैंने एक पोस्ट कार्ड डाला है
पिता के पास
वे न आ पाए तो मैं पहुंच जाऊंगा
उनके पास |


  


            

सजीव प्रतिमा है माँ

हमारे लिए श्रद्धेय है हमारी माँ
घर के किसी भी सदस्य को कुछ बातें अन्य को बताना है
तो हम माँ को कहते हैं
और अपना वांछित काम कर डालते हैं
आखिर माँ से पूछ कर किया है हमने वह कार्य
माँ सबसे बड़ी है
हमारे घर की सबसे बड़ी है माँ
उसकी सहमति के बिना पत्ता नहीं हिलता
हमारे घर का
हम अपनी पत्नियों का कहा नहीं मानते
माँ हमारे लिए सर्वोपरि है
आखिर बैंकों का फिक्स्ड डिपाजिट और मकान
हमारे पिता ने अपने श्रम से ही बनाया है
हम शहर के विभिन्न दर्शनीय स्थानों में जाते हैं
तो माँ को साथ ले जाना चाहते हैं 
पर माँ जाना नहीं चाहती
एक बार बीमार पड़ी माँ तब उसे घुमा लाये
उसे शहर का मन्दिर
हम इज्जत करते हैं अपने माँ की
हमारे पड़ोसी भी हमारी प्रशंसा करते हैं ....

सुंदर सजीव प्रस्तर प्रतिमा सी विराजमान है माँ |

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

वास्तविक दुनिया

आदर्शों की दुनिया
कितनी भली होती है
इस दुनिया में
सदा सत्य की जीत होती है
झूठ को
सदा सजा मिलती है
जिन्दगी
मायावी बनी रहती है
बच्चे बूढ़े एक सरीखे होते हैं .......
का पाठ मैंने
बिस्तर पर न उठ बैठ सकने लायक बीमार पिता को
जब याद दिलाया
तब वे बोल उठे ........
नहीं बेटा ... बच्चे प्यारे लगते हैं ..बूढ़े नहीं ...
उस दिन ही
मेरी आदर्शों  की दुनिया लुप्त हो गयी
और मैंने
वास्तविक दुनिया में पहला कदम रखा |

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

पितृ पक्ष

जीते जी पानी को तरसे ....
मरने पे पिलावें पानी ....
वाह री जिंदगानी.....
तेरी अजब कहानी |

शिक्षक एक तपस्वी

बच्चों को समझाते
राह दिखाते
मुस्काते
ऐसे शिक्षक बन गये हम
कि हमेशा राह ही दिखाते रहे
और लोग हमसे कतराते रहे
आदर्शों की पोटली कौन ढोए......
मित्रहीन हम
प्रकाश स्तंभ बने रहे
भटके बच्चों को राह दिखाते रहे
जीवन के हर पड़ाव में
बच्चे आते रहे
हमारे लिए मित्र बने रहे |
छात्रों  का विश्वास
शिक्षक के मन में
दीपक सा जलता रहा
और हम  आजीवन  मुस्कुराते रहे |

सम्बन्धों के मकड़जाल

एक जगह रम जाने से
सम्बन्धों का प्रेम
मकड़जाल बना लेता है
तब घुटने लगता है स्व
और परेशान हो
मन आगे बढ़ निकलता है
भर पूर सांस लेने को
आत्म मुग्धता की अवस्था में
हम पाते हैं
अरे ! ........
कुछ जालों को चिपके हुए
निज तन से
जो निकले ही नहीं
वे सम्बन्ध टूटे नहीं अब तक ....
उस पल एक अजीब सी खुशी अनुभव होती है
लगता है
किसी को  जरूरत हैं हमारी अब भी
और ये जाल  हमसे लिपटे
हमारे मित्र बने रहते हैं
आजीवन साथ रहते हैं
हमसे बातें करते रहते हैं |



अख़बार

अख़बार बताते हैं
बहू ने सास को मारा
पुत्र ने पिता को पैसे के लिए मारा
स्कूल में मिडडे मील खा कर बीमार हुए बच्चे
बैंक के ए०  टी ० एम०  से चोरी हुयी
गरीब पितृहीन लड़की को नौकरी का लालच दे मित्र ने एक लाख में बेच दिया
डाईन के संदेह में गांव वालों ने वृद्धा को मार दिया
इत्यादि इत्यादि ....
जी करता है बंद कर दूं यह क्षेत्रीय अख़बार
जो कि भर देते हैं
जी में नकारात्मक ऊर्जा
कुछ पठनीय लेख
राजनीतिक खबरें
और नौकरी के विज्ञापन रोक देते हैं हाथ हमारा
क्या पता हमारे लायक कोई आकर्षक नौकरी का विज्ञापन हो
और आखिर आते रहते हैं अख़बार घर में
बिछते रहते हैं अलमारी पर
सब्जी के छिलके रख कर फेंकने के काम आते हैं
अनपढ़े अख़बार
और पेड़ कटते रहते हैं
हमारे अख़बार के लिए |

हर सांस एक कहानी

हर सांस एक कहानी है
जिसे लिखवाता पवन जबानी है
कैसे भागूं
घर , वन , सड़क , आफिस
सभी जगह कहानियाँ हैं
कब्रिस्तान भी अछूता नहीं
दिन तारीख  भी अंकित है हर कब्र पर
और उसमें बंद एक उपन्यास है
श्मशान भी तो खाली नहीं
हर पल घटित होती उसमें कहानियाँ हैं
जिन्हें लिखवाता रहता है
पवन मुझसे
जब तक मैं जिन्दा हूँ
कलम चलती रहेगी
लेकिन पवन जब बौरा जायेगा
तब कहानियाँ गड़ जायेंगी जहाँ की तहां
और सिन्धु घाटी  सी एक नई सभ्यता जन्मेगी |

शैतान छात्र

हर शैतान छात्र को
महत्व  दे कर
उसका मन जीता 
उसकी समस्याएं हल किया
और आजीवन इज्जत पाता रहा
वह शिक्षक
छात्र से
और अभिभावक से
शैतान छात्र एक चुनौती होता है
हर शिक्षक के लिए
जिसका सामना करना
उसके  काबिलियत की पहचान होती है |

जाड़े की धूप में बतियाती हैं हम

कितना मजा मिलता है
जब हम घर बैठ कर
बस और सड़क की धक्के खाती
ऑफिस खट कर लौटती औरतों को
चरित्रहीन कह कर उसका मान मर्दन करते हैं
आखिर उसका आदमी कमाऊ हैं
क्यों जाती है वह सड़क पे
और आदमी निकम्मा है तो
ताने देने में और मजा आता है ....
देख न कैसे बन ठन कर निकलती है
जरूर चक्कर होगा कोई .....
बिनब्याही निकलती है सड़क पर
तो बाप भाई के नाम पर कोसते हैं हम
मर्दों के दोष निकाल नहीं सकते
डर लगता है उनसे
कामकाजी घर बाहर से थकी हारी 
न सुहाती हमें
क्यों कि पैसे कमाती है वह .....
अपने बाप भाई को भी तो पैसे भेज देती होगी वो ....
जाड़े की धूप में
कभी किसी के छत पर तो किसी के छत पर
बतियाना आखिर कितना सुखद रहता है
और मस्त रहता है मुहल्ले का रिपोर्ट लेना |