यह कैसी आग
है
जो दिलों में
जल रही है
और
झलक रही है
आँखों
से .......
वह कौन सा
चाणक्य है
जो सुदूर बैठ
फूंक
रहा है दिलों को ........
और
पुश्तों पहले
हुए
अपने
पूर्वजों के अपमान का
बदला लेना
चाह रहा है
देखो
आतुर है
वह
निगलने को
हर कमजोर को
बना लिया है
उसने
हर
दिल को अपना घर ......
जल रहे हैं
दिल
और
अपने हाथों
लगायी आग में ही
मिट रहे हैं
नासमझ
........
समाज का एक
तिहाई हिस्सा
भूल चूका है
श्रम . संतोष
और आशा का मोल
ये कैसी हिंसा
है
इर्ष्या है
खोखला कर रही
है
हमें
खडाऊं पूजन तो
मात्र एक
प्रतीक है
बड़े के अनुभव
व छत्र का
जो हमें
सुरक्षित रखता है आंधी में .........
और
चित्र की
हर तलवार हमें याद दिलाती है
स्त्री सम्बल
की ......
इतना समृद्ध
इतिहास ले
अब
हम किस गली से
निकल रहे हैं
न जाने क्यूँ
किस सुख की
तलाश में
चल रहे हैं
दिलों को फूंक
रहे हैं
दिशा
निर्देशित कर रहे हैं
न जाने
किस अनागत का
......|
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