घर से अकेली
बहन को
उसकी बेटी
समेत
बाहर न कर
सकूंगा तो क्या हुआ
मानसिक
अपाहिज तो बना ही सकता हूं
कोई
मित्र न आ पायेगा घर में .....
बाहर
जायेगी !
ताला लगा दुंगा कमरे में
देखता हूँ
कैसे घुसेगी अंदर
कौन सा हक ?
कैसा हक ?
कानून तो मैं
खुद हूं .....
एक बार गर्मी
चढी पैसों की ...
उठा कर पटक
दिया न सामान तेरा
उस समय तो
बिस्तर पर पड़े पिता का भय था .....
पर अब जिस दिन
चाहूंगा
उस दिन
भागऊंगा
जा कर रहे
अपनी बेटी के साथ
भाड़े के घर
में ........
कमाती है उसकी
बेटी
नहीं रह सकती
क्या वह भाड़े के घर में
देखता हूँ
कैसे रहती है यहां ......
पैसा सर पर चढ़
कर बोलता है
जब तक जान है
तब तक गर्व
भरा मस्तक है
मर्द का बच्चा
सदा होता है प्यारा
अपनी माता को
पड़ोसी को
क्योंकि
वह काम में
आता है उनके
सुख दुःख में
ये अलग बात है
माँ की
जरूरतें कम होती हैं
खाना कपड़ा ही
चाहिए न
लोक लाज भी
होता है
घर की बातें
छन कर जाती हैं बाहर
नौकर की आखों
देखी .....
ब्याहता बहन
की तरफ से आंख
मूंद बैठते हैं हम सब
नसीब ही खराब
था उसका
कोई पाप किया
होगा न
तभी तो अकेली
हो गयी है
इस कम उम्र
में .....
यह सोंच दयालू
रिश्तेदार बूढ़ियाँ
हरि ॐ जपने
लगती हैं
पुरुष
सत्तात्मक घर
कामांध शौकीन
स्त्री हो अनुचर
तो
हर घर का मर्द
बन जाता है
मदांध रावण |