गुरुवार, 30 जनवरी 2014

खुश है

औरों पर तो
जग हंसे
जो निज का मखौल उड़ाए
वही खुश है
और
एक जिंदादिल इंसान है |

ले प्रभु का नाम

प्रभु का नाम
जितनी जोर से
उच्चरित होगा
घर में
घर के प्राणियों के
कट जायेंगे पाप
कट जायेगा तेरा भी जीवन
देख
इसी लिया तो
रखा है सबने पुजारी
बड़ी अट्टालिकाओं  में
सुबह शाम दिया जलाने को
और
ईश्वर भजन को  |

   

खाना बनाने वाली

बहुत मिल जायेंगी
नौकरानी
जो बना देंगी
भगा दिया पुत्र ने
सहायिका को
और
अब माँ रोटी बेल रही थी
धन्यवाद दे रही थी
प्रभु के भजन गा रही थी
हे ईश्वर !
हाथ पैर चलते
बुला लेना अपने पास
ओ तारणहार !
पर ईश्वर ने
इस बार
नई सहायिका रखी गयी
पर
अपनी भक्तिन की सहायिका को
बुला लिया अपने पास
अनाथ हो गयी
अकेली सहायिका की
एक मात्र औलाद
शायद
माँ की जरूरत अभी
अभी भी धरती को  थी |

अनागत


यह कैसी आग है
जो दिलों में जल रही है
और
झलक रही है
आँखों से .......
वह कौन सा चाणक्य है
जो सुदूर बैठ
फूंक रहा है दिलों को ........
और
पुश्तों पहले हुए
अपने पूर्वजों के अपमान का
बदला लेना चाह रहा है
देखो
आतुर है
वह
निगलने को
हर कमजोर को
बना लिया है उसने
हर दिल को अपना घर ......
जल रहे हैं दिल
और
अपने हाथों लगायी आग में ही
मिट रहे हैं
नासमझ ........
समाज का एक तिहाई हिस्सा
भूल चूका है
श्रम . संतोष और आशा का मोल
ये कैसी हिंसा है
इर्ष्या है
खोखला कर रही है
हमें
खडाऊं पूजन तो
मात्र एक प्रतीक है
बड़े के अनुभव व छत्र का
जो हमें सुरक्षित रखता है आंधी में .........
और
चित्र की
हर तलवार  हमें याद दिलाती है
स्त्री सम्बल की ......
इतना समृद्ध इतिहास ले
अब
हम किस गली से निकल रहे हैं
न जाने क्यूँ
किस सुख की तलाश में
चल रहे हैं
दिलों को फूंक रहे हैं
दिशा निर्देशित कर रहे हैं
न जाने
किस अनागत का ......|

नौकरी की कुर्सी

आज मैं सोंचूं 
अपनी कुर्सी पर ही बैठ मैं 
करता राजनीति 
तो आज 
मैं भी 
सोता घर में 
अपने परिवार के साथ 
नौकरी बनी रहती 
हर महीने सैलरी आती बैंक में 
और 
हर चार साल बाद 
प्रोमोशन पाता रहता |

त्यागी है

हम
पीते रहे गरल
शिव बने
पर
मानव न बन पाए
बस
जीते रहे
और
खुद को
हम तो भोले कहते रहे ......
लोग कहें हमें ....
ये  तो बड़ा त्यागी है .....
और
हमें जबरन सूली पर चढ़ा चले |

हम तो चले

राह चले
पहुंचाए
हमें गन्तव्य तक
कितने आकर्षक नजारे
प्रकृति दिखाए
मन मोहे
न जानें क्यों
सहयात्री झूठ बोले
ठग ले
दबंगई करे .......
माफ़ कर उन्हें
हम तो चले
समय को रख पाकेट में |

हमारी आत्म मुग्धता

साथ
जब छोड़ देते हैं लोग
तब
उंगली पकड़ती है हमारी
सदा छाया सी साथ रहने वाली
आत्म मुग्धता
और
खींचती ले चलती है हमें आगे
और राह भर
समझाते रहती है
भला क्यों
दुखी है
दिग्भ्रमित है तू
इतना खुबसूरत परोपकारी  मन
और
जन्मजात बुद्धि के रहते
जीने का सहारा बनी रहती है |

 



बुधवार, 29 जनवरी 2014

मैं हूं अज्ञानी

धर्म की ध्वजा
मेरे हाथों में पकड़ा कर
तुम राजनीति नहीं कर सकते
मेरे हाथ में तो फावड़ा है
मैं मिट्टी खोदता हूं
फसल उपजता हूं
अपना पेट भरने के साथ साथ
तुम्हारा भी पेट भरता हूं
समय मिलने पर
कुल्हाड़ी  उठाता हूं
अपना चूल्हा जलाने के लिए
लकड़ी काटता हूं
मैं अज्ञानी
समझूं न तुम्हारी

बातें शहरी  |

हंसी हवा

जी किया
कुछ पल के लिए मर जायें हम
तो तैर लें
हम भी सागर
जल पर आसानी से
पर
हंस कर बोली हवा  ........
भला
एक बार मर के
कोई जिन्दा हुआ है ?

मित्र अख़बार हैं


मित्र तो मित्र होते हैं
कुछ सच्चे कुछ झूठे होते हैं
कुछ अपने सरीखे होते हैं
पर यह तो सत्य है
कि
मित्र चलता फिरता अख़बार होते हैं |

जूनून भीड़ का

अपनों ने दौड़ाया
वह घुस गया एक गली में
बाहर न निकला
बहुत दिनों तक न लौटा वह घर
सगे खोजते रहे
अपनों के घरों में
पर कहीं न मिला वह
बहन इंतजार करती रही
सोंचती रही
ये कैसा समय है |

आईना बन गये


कुछ कर न सके
किसी के लिए
सुधार न सके जग को
तो एक दिन
आईना बन गये हम
पर लोग
हमसे मुंह फेर लिए
उन्हें आईने की जरूरत न थी
क्यों कि
उन्होंने मुखौटा पहन रखा था |

प्यार भूले

गाँव क्या छूटा
रिश्तों की पहचान छूटी
आपसी प्यार भूल चले हम
निश्छल ऑंखें
गुम गयीं शहर की भीड़ में
देखो जी
हम ने तरक्की कर ली
बिजली से चकमक आलीशान मकान के सुख में
ऐसा डूबे 
कि
सगों  के नाम लेना भूल चले
सम्बन्धी का प्यार तो
अब
हमें टाट में पैबंद लगे |

धनी की बोझ

उफ्फ !
लटकी है
चिपकी है घर में
जाती नहीं
माता ही मुंह फेर ले
तो पड़ोसी तमाशा देखें
चुटकी लें
मंद मंद मुस्काएं
फुसफुसायें कान में माता के
क्या लड़की है
ऐसी लड़की देखी न जग में
बेटोंवाली माँ दुखी थी
बेटों के दुःख से
बेटे के सर पर बैठी थी
बोझ बन कर उसकी बिटिया .......
हाय !
अब क्या करूं
हैरान थी
माँ
परेशान थी माँ
छाती पर बैठी थी बेटी
और
मुंग दल रही थी
गले की फांस बन गयी थी
बिटिया
जो माँ के मुंह से
न उगलते बनती थी
और
न निगलते .......
हैरान हूँ
क्या नाम दूं आज
इस माँ को
इस स्वयंसिद्धा को
स्वार्थसिद्धा को |



रविवार, 26 जनवरी 2014

संस्कार

संस्कार
खुद को संस्कारित करे
देखो
समय से ग्रहण करे
यह
नित भोर भोर शुद्ध हवा
थपकी दे सुला दे
हमारे मन में सोये पशुत्व को
और
बांधे दे
हमें समाज में |

मुट्ठी में तूफ़ान

लो
हम तो बांध चले
मुट्ठी में तूफ़ान
खोलेंगे न अब यह मुट्ठी
भोर हुई
लम्बी नींद से
अब तो जाग गये हम
सत्ता न चाहें .......
मान न चाहें .....
पर
लंगडी न मारना
हम बस जीना चाहें खुली हवा में |

आंसू न गिरा

पत्थर बन गया है सीना

इस्पात बन गयी हैं

अब तो ये बाहें

कतरा भर भी

आंसू न गिरा

किसी दुखद पल में

लगता है

पहाड़ चीर ही डालेगा

अब ये तन

धूल भरा आकाश है

सुनाई दे रही  देखो

अब तो अश्वों की टाप है |

शनिवार, 25 जनवरी 2014

SAMPOORNA JANA GANA MANA WITH LYRICS

अनास्था का आगमन

घर के सब प्राणी व्यस्त हों
अकेले बैठ
गीता को श्लोक गानेवाला प्राणी
उठते बैठते हरि ॐ
बरबस निकल पड़नेवाले जीव के मुख से
हरि नाम न निकले
मरणासन्न अवस्था में
तब ईश्वर की निरर्थकता पर
विश्वास होने लगता है
बूढ़े दादाजी
पुनर्जन्म में विश्वास खत्म
जीवात्मा के अस्तित्व पर चुप्पी 
दर्शाने लगा था  
हमें
परम शक्ति के प्रति
उनमें पैदा हुयी अनाशक्ति का
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवित रखती है
हमें .............
पर
जीवन में वांछित फल न मिलने पर
दादा जी चुप हो गये थे .........
शायद बिस्तर पर पड़े पड़े लेखा जोखा कर रहे थे
अपने कर्मों का
धीरे अपनी वस्तुओं से मोह भंग करते हुए .........

आखिर हृदय गति रुक गयी एक दिन
रोते हुए आये थे
अपने पुत्र को एक जोर की चीख से पुकार कर
चले गए दादा जी
अपनी सारी धन सम्पत्ति यहीं छोड़ कर ...........
शायद कुछ कहना चाहते थे दादाजी ........
पर सुनने को
मौजूद न था पुत्र अस्पताल में
अकेले आये थे
अकेले चले गए दादा जी
हमें कर्म की महत्ता समझा कर |

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

चतुरा चाची

सब
सो गये
जब रात में
तब लॉकर खोला चतुरा चाची ने
निकाल नोटों का पुलिंदा
परखने लगी हर नोट पर लिखे साल को
हैरान रह गयी वह
जब उसने पाया एक दस रूपये का नोट
जिस पर न छपा था साल

सुबह सुबह
बिना साल वाले नोट को दे कर सब्जीवाले को
चला लिया
चाची ने
वह नोट
आखिर अकेली चाची
किसका सहारा लेती
उस बिना साल वाले नोट को
बदलने का

शाम को हंस कर कहा बताई
चाची ने पड़ोसन को
सुबह की घटना .....

पड़ोसन ने घबरा कर कहा  ....
अगर देख लेता सब्जीवाला उस नोट को तो !

हंस कर चाची ने कहा .....
अरे बेटा ! ..मैंने देखा नहीं था ...
अभी दूसरा नोट लाती हूँ |






गुरुवार, 23 जनवरी 2014

मुन्ना दुखी है

मुन्ना
अखबार पढ़
दुखी है
उसका स्कूल दिल्ली में होता
तो क्या ही बढ़िया होता 
कितने मस्ती रहती
इतने ह्ड़ताल होते हैं वहां
स्कूल से छुट्टी मिलती
पार्क में
खेलने मिलता
भोर से ही |

  

अखबार पढ़नेवाली चाची

चाची परेशान है
जब देखो चश्मा चढ़ा कर
देखती रहती है
छपे साल नोटों पे
फेरीवाला भी हैरान है
जब वापस करता है
वह नोट
तो रोके रहती है
उसे चाची .......
हाथ के चश्मे को
नाक पर अटका कर
नोट पर छपे साल को पढ़ती है ......
और
उसे वापस कर देती है
दो हजार पांच से पुराना नोट .......
मन ही मन कोसता है
फेरीवाला
अखबारवाले  को
जिसने बना दिया है
चाची को
बुद्धिमान |

जीवन संग्राम

सोंचा था
युद्ध
खत्म हो जाएगा एक दिन
सकून
मिलेगा एक दिन
पर
अब लगे
युद्ध ही जीवन है
विश्राम हार है
यह चेतना आते ही
फिर से चमका ली है
मैंने
अपनी तलवार
और
अब तो 
घोड़े पर ही
सोती हूं
जागती हूं  |

हरीतिमा छा जायेगी

उठी है
ललकार........
लो अब तो
निकल पड़े हम
सीना चीरने
समय का
जग के लिए
अजूबी है 
हमारी चाल
और हम
अब तो
बांध भी लिया है
हमने 
अपनों की आशाओं के बीज
जहां भी गिरेंगे हम
वहीं
उग जाएगा आशाओं का वन 
हरीतिमा छा जायेगी
और 
पक्षीगण 
दूर से आयेंगे
गीत गायेंगे

चहकेंगे |

माँ की प्यारी औलादें

लोग कहें
अपनी सभी औलादें
प्यारी लगें
माँ को
मैं जग देख कहूं
माँ को
प्यारी लगें
निज जीवन में
वे सफल औलादें
जो माँ का नाम रोशन करें |

आज रात बड़े सोये सड़क पे

आज
रामू और रमिया दोनों खुश हैं
सड़क पर
बड़ों को सोते देख .........
लाख लाख शुक्र है तेरा
भगवन !
कोई तो उनकी ठंड महसूस कर रहा |

बड़ों की बस्ती

पड़ोसन झोपड़ी
बड़ों की बस्ती में
अपने पर पड़नेवाली
गिद्ध दृष्टि से
हर पल बचाती रहती थी
खुद को
भय रहता था उसको
सो चुप रहती थी

एक दिन
जब अकेला था बड़ा मकान
तब पूछ बैठा पड़ोसन से  ...
मित्र !
तुम बोलती नहीं हो
इतनी चुप चुप क्यों रहती हो ......
कुछ तो बोलो
देखो
मेरे दीवारों पर कितने घाव हैं
वे
आपस में बतियाते रहते हैं
रोते हैं मेरे घर में
लोग
मुझसे अकेले में अपना  दुःख बांटते हैं
फिर न जाने कहां चले जाते हैं
मैं उनका इंतजार करता रहता  हूं
दुखी रहता हूँ
काश !
मैं भी तुम्हारी तरह खुश रह पाता .......

उसके दुःख से द्रवित हो गयी
झोपड़ी
पर चुप रही
बड़ों की बातों में पड़ना
बुद्धिमानी नही ......
यह बात
उसके इकलौते मालिक ने
उसे समझाई थी |







सोमवार, 20 जनवरी 2014

सोने की नगरी

रावण अच्छा था
या बुरा
ये विचारणीय नही है
आज ....
पर
इतना उदाहरण
तो मिल ही गया हमें
कि
घर में पता कर विभीषण का
कोई नाश कर सकता है 
हमारी
सोने की नगरी का .....
आज
हम
लड़की  को
उसका कानूनी हक
न दे रहे ..........
उसे हम
कौन सी राह
दिखा रहे हैं ........
क्यों न हम
इसे
अपनी सोंच का विन्दु  बनाएं |

शनिवार, 18 जनवरी 2014

खुश करना है तुझे

चले जी !
हम तो
परेशान करने
तुझे
गलतियां निकालेंगे तेरी 
बौखलायेगा तू
मारने दौड़ायेगा  तू
हमें
हम कब्जे में न आयेंगे
तेरे
दूर खड़े मुस्कायेंगे
तुझपे
क्रोध में तू भूल जायेगा
अपने सारे दुःख
दुःख गह्वर से निकल जाएगा
मुझ से चिढ़ कर तू  ........
यही
मेरी सफलता है |




शहर में सदाबहार पेड़

शहर में
सदाबहार पेड़ मिलते ही नहीं
कोई महीने की चार तारीख को सूख जाता है
तो कोई बारह तारीख को
इनकम टैक्स भरने के बाद
अफसर भी रुदाली बन जाते हैं
पत्नी के सामने
ठूंठ से पेड़ों के जंगल में
कोई पक्षी आएगा भला कैसे
गीत गायेगा कैसे
तब निस्तब्ध रात्रि में
गाँव की बगिया याद आती है
कालेज याद आता है
जहाँ सपने पलते थे हमारे
हैरान परेशान हो
मैंने
अपने शहर में ही
चार कमरे का मकान बना
बच्चों का पुस्तकालय खोल दिया है
और
खाली पड़े विराट स्थान में
आम और नीम का पेड़ लगा दिया
अब
मेरा घर
किलकता है
मुहल्ले के बच्चों से
गर्मी में
आम ललचाते है ......
गुलजार रहता है
घर मेरा
साल भर
किसी को नीम का पत्ता चाहिए
दवा के लिए
तो किसी को आम का पत्ता चाहिए
पूजा के लिए
छुट्टियों में
अपनों का विश्रामागार है
मेरा घर
ये लो
मैंने तो
अपने घर को ही
सदाबहार बना लिया है |

सन्न कर दिया तूने

( श्रद्धा सुमन सुनन्दा पुष्कर को )


सन्न हूं
तेरी मौत पे
तेरी जीवन की कहानी पढ़ के
तेरे पुत्र के रुदन पे
कामना करूं
तेरे पुत्र के चित्त की शांति की |

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

प्रतिभा तो तुलसी का बिरवा है

प्रतिभा
सदा अकेली होती है
पहाड़ की चोटी पर बैठ
हमारा मार्गदर्शन करती है
ऐसा भला क्यों ?
इसीलिये शायद
कुचली जाती हैं प्रतिभाएं
पर भला बांध पाया है कोई माई का लाल
नदी का जल
वह तो बहेगा जरूर
भले ही राह क्यों न बदल जाये
जब गुबार उठेगा मन में
बांध भी तोड़ डालेगी प्रतिभा
क्यों न मान करें हम
प्रतिभा का
और
घर में रोपें उसे
तुलसी के पौधे सा
हम उसे जल डालेंगे प्रतिदिन
कल्याण करेगी
वह हमारा |


                   

पूजा पाठ करो यार !

उनके दुर्व्यवहार भूल कर
क्षमा कर देते हैं
हम उन्हें
कहा जाता है
क्षमा प्रदान करती है
चित्त को शांति
पर क्षमा करते करते
हम
छननी बन जाते हैं
निस्तेज
नीरस
सूखे वृक्ष बन जाते हैं
जिस पर पंछी नहीं फटकते
लोग कहते हैं ......
पूजा पाठ करो यार
मन प्रसन्न हो जायेगा ......
मैं सोंचूं .....
तब तो सारा जग प्रसन्न - चित्त रहता |

कम उम्र में अकेली

घर से अकेली बहन को
उसकी बेटी समेत
बाहर न कर सकूंगा तो क्या हुआ
मानसिक अपाहिज तो बना ही सकता हूं
कोई मित्र न आ पायेगा घर में .....

बाहर जायेगी !
ताला लगा दुंगा कमरे में
देखता हूँ कैसे घुसेगी अंदर
कौन सा हक ?
कैसा हक ?
कानून तो मैं खुद हूं .....

एक बार गर्मी चढी पैसों की ...
उठा कर पटक दिया न सामान तेरा
उस समय तो बिस्तर पर पड़े पिता का भय था .....
पर अब जिस दिन चाहूंगा
उस दिन भागऊंगा
जा कर रहे अपनी बेटी के साथ
भाड़े के घर में ........
कमाती है उसकी बेटी 
नहीं रह सकती क्या वह भाड़े के घर में
देखता हूँ कैसे रहती है यहां ......

पैसा सर पर चढ़ कर बोलता है
जब तक जान है
तब तक गर्व भरा मस्तक है
मर्द का बच्चा सदा होता है प्यारा
अपनी माता को
पड़ोसी को
क्योंकि
वह काम में आता है उनके
सुख दुःख में
ये अलग बात है
माँ की जरूरतें कम होती हैं
खाना कपड़ा ही चाहिए न
लोक लाज भी होता है
घर की बातें छन कर जाती हैं बाहर
नौकर की आखों देखी .....
ब्याहता बहन
की तरफ से आंख मूंद बैठते हैं हम सब
नसीब ही खराब था उसका
कोई पाप किया होगा न
तभी तो अकेली हो गयी है
इस कम उम्र में .....
यह सोंच दयालू रिश्तेदार बूढ़ियाँ
हरि ॐ जपने लगती हैं
पुरुष सत्तात्मक घर
कामांध शौकीन स्त्री हो अनुचर
तो
हर घर का मर्द
बन जाता  है
मदांध रावण |






अपनी झांसी नहीं दूंगी

औरत हूँ भई !      
देवी नहीं
नारी हूं मैं  
नारायणी नहीं
सुसुप्त ज्वालामुखी हूं
आकाश सी सहिष्णु नहीं
जागने का मन होगा तो
जग जाउंगी
मैं थी .....
और रहूंगी मैं .....
सदा ही रहूंगी मैं .......
बसी रहूंगी हर कन्या में
कितने भ्रूण मारोगे तुम मेरा
बारम्बार जन्मुन्गी मैं
तेरा संहार करने
अपनी झांसी नहीं दूंगी मैं
जीते जी
मेरी झांसी मेरी शान है
मेरी आन है |

मर्द बच्चा

मर्द बच्चे हो यार !
जाल बुनना सीखो खुद
औरतों को
लपेटना सीखो
देखो कितना सहज होगा जीना
आज औरत सा इमानदार कोई नहीं
औरत सा अभावग्रस्त न मिलेगा तुझे कहीं
ये मूल मन्त्र है जीवन का
औरतें प्रसन्न रहेंगीं
तुझ पर गर्व करेंगी वे
तू निश्चिन्त रहेगा |

टूटे रिश्ते

हम भाई बहन
हंसते खेलते बड़े हुए
हमारा बड़ा होना
हमें दुःख दिया
न हम हम रहे
और न तुम तुम रहे |

छात्र है राजा

टीचरों ने
मम्मी पापा को
डांट लगा कर
ट्यूशन लगवाई थी
सफेद सफेद झकाझक यूनिफार्म  में
शर्ट पर कोट डाल
पालिश्ड शू में
मुन्ना 
जब चलता था
सड़क भी खुश हो जाती थी
राजा था मुन्ना अपने घर का .....

आफिस में सर की डांट खा
कुर्सी पर बैठा थका हारा
सोंच रहा
वो हो परेशान
काश आज भी मैं छात्र होता |

जाड़ा आया शहर में

जाड़ा आया इस बार
शहर में
बड़ा भयंकर है
भगाना है
प्रिंसिपल ने डर से
स्कूल बंद किया
अभिभावक ने छुपा दिया
अपने बच्चों को
रजाई में
और निकल पड़े
जैकेट जींस कैनवस के जूतों में सडकों पर
सिर कान छुपाये
ये लो
बूढ़े  तेज कदम चले
अपने बच्चों को बचाने जाड़े से
इतनी हिम्मत जाड़े की !
घुस कर राज करे हमारे शहर  में
पर
आज डर से दुबके हैं
घर में अकेले बच्चे
दादा दादी , नाना नानी  बने हैं सेनापति
फौज चल रही सडकों पर
सूरज निकला
कोहरा छंटा
डरा जाड़ा
भगा सरपट ....
खिलखिलाते निकल पड़े
बच्चे सारे सडकों पर
बड़े लग गये
अपनी दैनिक कार्य प्रणाली में |

     
  


               

ओफ्फ ये बूढ़े !

परेशान हैं हम
बच्चे तो बच्चे हैं
बूढ़े पीछा छोड़ते नहीं
कब्र में पैर लटकाए बैठे हैं
नसीहतें देना छोड़ते नहीं
कुर्सियों पर बैठे हैं
हमारे लिए जगंह छोड़ते नहीं
हरि ॐ जपते नहीं
अपने कमरे में रहते नहीं
बैठक घर में आ कर बैठ जाते हैं
हमारे मेहमान आने पर
जाड़े में
बालकनी में दिन में धूप सेंकते हैं
और
गर्मी में
रत को हवा खाते हैं ठंडी
और तो और
अति हो जाती है
उस समय जब गेट के सामने
निज मित्र जुटा कर हंसी ठिठोली करते हैं
अपने घर में हमारा राज नहीं
आओ 
हम सब मिल कर बहिष्कार करें
अपने अपने घर के बूढों का
हर अच्छे काम की शुरुआत
हम
अपने घर से ही करें |

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

मुन्ने की धमकी

मुन्ना बोला ...
ओ मेरी अम्मा !
तू गर नहीं ले गयी मुझे बाजार 
मैं फोन कर दूंगा 
मेरे घर आएगा देखना 
अंकल केजरीवाल |

रविवार, 12 जनवरी 2014

पूजा पाठ करो यार !

उनके दुर्व्यवहार भूल कर
क्षमा कर देते हैं
हम उन्हें
कहा जाता है
क्षमा प्रदान करती है
चित्त को शांति
पर क्षमा करते करते
हम
छननी बन जाते हैं
निस्तेज
नीरस
सूखे वृक्ष बन जाते हैं
जिस पर पंछी नहीं फटकते
लोग कहते हैं ......
पूजा पाठ करो यार
मन प्रसन्न हो जायेगा ......
मैं सोंचूं .....
तब तो सारा जग प्रसन्न - चित्त रहता |