शुक्रवार, 23 मई 2014

रिश्ते तो हम खो चले


22 May 2014
13:22

-इंदु बाला सिंह

निकम्मे पति के एवज में
रहने को
एक कमरा मिला
पैतृक घर में
और
साथ में
मिली अवहेलना
रिश्तों की
मित्रों की .......
बिटिया तो
उसकी बड़ी हो गयी
और
नौकरीपेशा बन गयी
पर
कमरा छिन गया ......
अब
बिटिया में
माँ की
देखभाल करने की सामर्थ्य  थी .......
इस प्रकार 
कट गया जमीन से
एक मानिनी से
उसका  परिवार .............
वाह रे !
पुरुष सत्ता तेरी
और
तेरे रिश्ते ......
धन और सत्ता के नशा  में
हम तो
ऐसा बेसुध हो चले
कि
अपने खो चले |





शब्द शाश्वत हैं


21 May 2014
14:54

-इंदु बाला सिंह

आदमी नश्वर है
पर
शब्द नहीं
जब तक
श्रोता और वाचक जीवित है
तब तक
शब्द शाश्वत हैं
वे
हवा में तैरते हैं
अपनी खुशबू बिखेरते हैं
कांटे चुभोते हैं ……..
शब्द
मन में सांसें लेते हैं |

मंगलवार, 20 मई 2014

सूखा है मौसम


20 May 2014
12:56

-इंदु बाला सिंह

बंजर हो गयी जमीं ......
अब
ख्वाबों के बीज पड़ते ही नहीं ......
ये कैसा मौसम है आया
क्यों चेहरे स्पंदनहीन से दिखें हमें आज ......
गाल पर हाथ दे
बैठे हैं हम अब .....
जैसे
आज बीहन के बीज ही खा चुके हों हम ......
ये कैसी हवा है
जिसमें जंगल की खुशबू नहीं |

मुट्ठी जब खुली


19 May 2014
07:19


-इंदु बाला सिंह

एक रात
न जाने कब
मुट्ठियां खुल गयीं
उसकी
और
उन में बंद सितारे
निकल गए .........
उसकी
आँख के सामने
नाचने लगे
एक अलौकिक दृश्य था .......
वह
अचंभित था ......
हाथ की लकीरें मिट चुकी थीं
मिट्टी की सोंधी महक ने
उसे
जमीन से जोड़ दिया था |

न खड़े होने का अफ़सोस


18 May 
2014
13:11


-इंदु बाला सिंह

काश 
मैं भी खड़ी होती 
चुनाव में 
तो 
मैं भी 
आज चुनाव जीत गयी होती .......
मेरी गर्वीली बात सुन 
हंस कर बोली 
बिटिया मेरी 
ओह माँ 
तुम्हारे तो पैर दुखते हैं 
तुम कैसे 
खड़ी होओगी
और 
मैं 
उसका उत्तर सुन 
बगलें झाँकने लगी |

छोटी सी आस


17 May 2014
11:32

-इंदु बाला सिंह

आंधी ने 
गर्द उड़ा दी ........
अब 
इन्तजार है 
बरसात के बाद 
निकलने वाले अंकुर का .......
जरा देखें हम भी ........
कितना विशाल बनेगा 
यह वृक्ष 
और 
कितने घर बसेंगे 
कितनी गुमटियां कामवालियों के नाम होंगी ......
कितने रेलवे स्टेशन 
पर 
खाना पकाता परिवार 
अपने 
घर में रहेगा 
श्रम की रोटी खायेगा ......
कितने मजदूर 
बिल्डिंग में काम तो करेंगे 
पर 
उनके लिए 
सड़कों पर शौचालय होगा ......
और 
शनिवार के दिन 
हमें 
एक भी आवाज सुनाई देगी ...
' माँ गो ! गोटिये मुट्ठी चाउल दिय ' |




सन्नाटा


16 May 2014
23:25

-इंदु बाला सिंह

इतनी
उछल कूद के बाद
कुछ बुद्धिजीवी सन्नाटा  मार लिए हैं .......
कुछ चौकस हो गये हैं
जब जब
मौसम में स्थिरता आयी  है
तब तब
जोरदार आंधी आई है

परिवर्तन की |

जब आंख खुली


16 May 2014
15:56

-इंदु बाला सिंह

बूढ़ा जौहरी
मुस्कुरा रहा था
उल्लसित वातावरण में
मन्त्र मुग्ध भीड़ के जयघोष से ........
आज
वह
पुलकित था ..............
पर
कब उसकी आंख लग गयी
उसे
पता ही न चला .................
सुबह हुयी
जब आँख खुली
तो
उसने सब कुछ
हर रोज की तरह पाया
सब अपने काम पर जा रहे थे |

आकृतियों की टेलीपैथी


16 May 2014
06:59

-इंदु बाला सिंह

भोर की
चाय खत्म होते होते
दबे पांव
कितने सारे चरित्र
दबे पांव एक एक कर आ जाते हैं
सामने
और
खड़े हो जाते हैं
वे मौन 
मेरे सामने ........
बरामदे के फैले कुहासे से 
उभरती हुयी
आकृतियों से से एक अजीब सी 
एक टेलीपैथी 
महसूस होने लगती  है......
कलम 
उकेरने लगती है 
पन्ने पर 
मनोभाव |

रिश्तों का चटखारा


15 May 2014
07:01

-इंदु बाला सिंह

कितना स्वादिष्ट  लगे
दूसरों के
रिश्ते
और
मजा लगे 
चटखारे लेना
गप्पें मारना
हर दोपहर
किसी के बरामदे में
बिना एक कप चाय पिये ....
पर
दूसरों के
घर में झांकने का शौक रखनेवाली  ने
यह सोंचा होता
कि
उसके झरोखे में भी
कोई
निगाह लगाये बैठा है
तो
क्या
वह
अपने इस शौक की कमाई न खाती
सरकारी विभाग में
नौकरी न करती |

कंगाल न मिला


14 May 2014
08:08

-इंदु बाला सिंह

दरवाजे पर
डेड बॉडी कैरियर खड़ा हुआ
तो
आत्मीयों की
फौज आई
तेरही के दिन कंगलों की खोज हुयी
पर
खोजे न मिला कोई
सब कंगाल सैनिक बन सीमा पर  थे ..........
हार कर
चील कौओं की खोज हुयी
पर
उन्हें तो
हवाई जहाज के कर्मचारी मार चुके थे
हार कर
सूर्य पूजा कर मुक्ति हुयी |

भूखा फौजी


14 May 2014
07:21

-इंदु बाला सिंह

माना
अंधे बहरों की बस्ती है
पर
जलाना न भूलना
बत्ती
तू
हर रात्रि ......
क्या जाने कब आ जाये
आंखोंवाला कानोंवाला भूखा फौजी
स्वप्न की तलाश में |

चल जी लें


13 May 2014
23:14

-इंदु बाला सिंह

चल
समय पर हम चेतें
कुछ न खोना पड़े हमें अब
छोटी सी जिन्दगी
हम
हंस कर जी लें ......
क्यों
कुछ खो कर याद करें हम .......
क्यों न
समय को बांध लें
हम
अपनी
लौह मुट्ठी में ......
हम भी जी लें
अपने हिस्से का जीवन |

बचपन की खुशबू


13 May 2014
18:25

-इंदु बाला सिंह

आगे की राह
जब
वृक्षहीन हो जायें
और
समय का सूरज
प्रचंड हो
तब
हम धीमे धीमे चल
बचपन की सुरक्षित उत्सुक फुहारों में भींज
अपने चारों ओर
खुशबू का
एक महीन आवरण बना
हम
लू के मारात्मक थपेड़ों से
बच जाते हैं.....
धन्यवाद स्वत: फूट पड़ता हैं
उस
समय के लिए
जिसने
हमसे हमारा बचपन न छीना था |

कांटा


13 May 2014
11:54

-इंदु बाला सिंह

गड़ा कांटा
कांटे से ही निकले
गर
तो
कांटे से कैसा डर
है तुझे ......
चल पकड़
कांटा
और
गड़े कांटे को हम निकालें
पर
जरा सावधानी से
कहीं
टिटनस न हो जाय अंग में |

रविवार, 18 मई 2014

अनपढ़ कामवाली


13 May 2014
10:19
-इंदु बाला सिंह

अरे ! मेरी कामवाली का आदमी
प्लांट में काम करता है
बहुत कमाता है .....
उसके घर में
टी ० वी ० , कूलर , मोटर साईकिल सब कुछ है .....
हर महीने छ: हजार रूपये मिलते हैं उसे
हर माह
घर का आठ हजार भाड़ा दे कर रहनेवाली
विदेश में बसे पुत्र की
माँ
कह उठी ....
और
मुझे
सोंचने को प्रेरित कर गयी .....
भला महिलाएं
समझदार क्यों नहीं होतीं ?
पुरुष को तो
समाज ठोंक पीट कर समझा देता है
पर
शहरी महिलाएं
आरामतलब और ईर्ष्यालु क्यों होती है ?
हाड़ तोड़ मेहनत करनेवाली
अनपढ़ कामवाली
दिन भर
घर घर दौड़े
अपने बेटे की मुस्कान के लिए
अपनी बिटिया को
अनपढ़ बनाये
उसे कामवाली के धंधे के गुर सिखाये
कैसे यह सब
किसी को न दिखे
एक औरत की
यह मजबूरी |

पुराना कपड़ा


12 May 2014
12:46
-इंदु बाला सिंह

अपनी गर्ल फ्रेंड के साथ
जब 
लड़के अपना शहर घूमें
तब
त्योरियां चढ़ें
नैतिकता के ठेकेदारों की
पर
लड़के
अपनी पत्नी को
अपने घर न ला कभी
उसे उसकी जिम्मेवारी से  मुक्त कर
उस संग
अपना शहर घूमें
तो
वही पड़ोसी
उस युगल को देख
कनखियों से देख एक दुसरे को
मंद मंद मुस्काए ....
पर
उस लड़के की
जन्मदाता के प्रति कर्तव्यहीनता
पर
मौन रहें ......
पुराना कपड़ा
कितने दिन बचा कर रखे
कोई घर में ......
घर
कोई म्यूजियम तो नहीं
एंगे भैंगे चेहरों का | 

क्षमता को चुनौती


12 May 2014
07:30


-इंदु बाला सिंह

  
गमक्सिन की खड़िया को
लक्ष्मण रेखा का नाम देना तेरा
मुझे
भौचक्का कर गया ............
चींटी से सुरक्षित करने की
मेरी मजबूरी का फायदा तूने उठा लिया ......
लक्ष्मण
और
उसकी खींची परिधि
मेरे
अवचेतन मन में बिठा दिया .......
तूने
भयातुर कर दिया
मुझे ..........
दहलीज लांघने का परिणाम
तूने
मुझे
इशारों में समझा कर
मेरी क्षमता की चुनौती दे दिया |

मातृगान फीका


11 May 2014
10:00
-इंदु बाला सिंह


माँ
को
त्याग का नाम दे
लूटने वालो
माँ
भी समझे
तुझे
जरूरत पर
हर महिला को
माँ कह पुकारने की कला को
निज माँ
किसी कोने में पड़ी रहे
उस पर
तेरे सुख की रोशनी न पड़े
तू
केवल बचपन की माँ ढूंढे
अपनी उम्र के अंतिम छोर पहुंची माँ में
माँ का नाम ले
आफिस में ट्रांसफर करवाए तू
माँ के घर से
थोड़ी दूर के शहर में
माँ का स्थान
जब तेरे ड्राईंग रूम में नहीं
तो
तू फीका
तेरा मातृगान फीका |

मुस्टंडे झूठ


11 May 2014
09:39
-इंदु बाला सिंह

लानत है
उस
माँ को
जसकी छत्र छाया में
उसकी संताने
झूठ मुस्टंड हुए
और
सच
बढ़ न पाया
सदा धरा पर ही रेंगता रहा |

शुक्रवार, 9 मई 2014

कर्मों के अनुसार आयु


10 May 2014
09:39

-इंदु बाला सिंह

अपने अपने
कर्मों के अनुसार ही
आदमी
आयु पाता है
सुभाशीष से नहीं ......
और
वह
दैनिक
साप्ताहिक
पाक्षिक
मासिक
त्रैमासिक
या
वार्षिक
अख़बार या पत्रिका का
एक लेख
बन जाता है ......
सृष्टिकर्ता
अपनी रचनाओं का
अंत
बस देखता रह जाता है |




खरा अख़बार


08 May 2014
16:15

-इंदु बाला सिंह

मिडिल  स्कूल का
हर छात्र
अपने घर
और
मुहल्ले की खबरें
सुनानेवाला
एक
खरा अख़बार है
और
उसका
सहृदय शिक्षक या अभिभावक
उस
भारत के भावी नागरिक का
सच्चा पथप्रदर्शक ,
समाज का सच्चा चिंतक
और
अभूतपूर्व साहित्यकार है |

बिटिया का ज्ञान


09 May 2014
10:23


-इंदु बाला सिंह 

छठी कक्षा की
मेरी बुद्धिमान बिटिया
को
आज अचानक
ज्ञान प्राप्ति हुई ......
किचेन में आ कर
मेरे गले में हाथ डाल लटक गयी
फिर
मुझसे बोल पड़ी ........
मैं न करूंगी ब्याह कभी .......
और
गर ब्याह करूंगी
तो
विधवा बनने पर
फिर करूंगी ......
अभी अभी पढ़ा है मैंने
विधवा
अपने पति का मृतक अंश होती है
इसीलिये
वह
हर तीज त्यौहार में
त्याज्य होती है .........
मैं चौंक पड़ी
इतनी छोटी
अपनी बिटिया की
अद्भुत सोंच पर ......
मैं मुस्काई .....
ओ मेरी बिटिया रानी
कल है रविवार
और
हम चलेंगे बाजार .....
फिर
मैंने मन ही मन हाथ जोड़
इश्वर से प्रार्थना की
ऐसा दिन
मेरी बिटिया के जीवन में
कभी न आये |


समझौतों की रीत


09 May 2014
14:15

-इंदु बाला सिंह


राणा प्रताप का शौर्य
लक्ष्मी बाई का युद्ध
रानी पद्मिनी का मान
जोधा बाई का धर्म
शिवाजी का युद्ध कौशल
प्रेमचन्द का ' गोदान '
यशपाल जैन का ' झूठा सच '
न समझा जिसने
उसने
भारत को क्या समझा
परिवर्त्तन
विकास
समझौतों की रीत क्या समझी |

पुत्र की ढाल


09 May 2014
18:12

-इंदु बाला सिंह

तेरी ढाल थी
कल ......
मैं
आज
तेरी आवाज बनी हूं
ओ पुत्र !
तू चल आगे ......
मैं
तेरी कमांडो सी
लो
चली ......
मैं
हूं
तेरे आस पास सदा |

गुरुवार, 8 मई 2014

बेटी है मान रक्षक


07 May 2014
11:50

-इंदु बाला सिंह


बेटी होना
जितना गुनाह है
उतना ही
गुनाह है बेटी का बाप होना .......
गर यह सत्य है
तो
पिता का मान रखने हेतु
कृष्णा सा विषपान सत्य है .....
और
सती का
निज पति शिव का मान रखने हेतु
यज्ञशाला में कूद उसे विध्वंश करना भी सत्य है .......
पर
कब तक
बेटियां
मान रक्षा करेंगी रिश्तों का
जो खुद सुरक्षा की तलाश में आज .......
ये कैसा सिस्टम है
जिसमें कागज में ढेर सारी सुविधाएँ हैं बेटियों की
पर
हर घर में दिखेंगी एक बेटी जरूर
जिसके अस्तित्व से
नाखबर हैं
खून के रिश्ते |

छायादार विशाल वृक्ष


07 May 2014
13:37

-इंदु बाला सिंह 

जड़ों से काटनेवाली
आकांक्षा को
महत्वाकांक्षा का नाम देनेवाले
जड़ें कट जाने पर
जिन्दगी भर कतराते हैं
अपनों से .......
छायादार विशाल वृक्ष
उन्हें
कभी न भाये |

बेटी का अभिमान


07 May 2014
15:23

-इंदु बाला सिंह

पैतृक सम्पत्ति
क्या होती है
उसे
कभी होश ही न था
पर
ब्याह के बाद
जब जब
वह मैके आती थी
कभी पिता
तो
कभी माता
गाँव के विभिन्न मित्रों का नाम ले
दबी जबान से समझाते थे
अपनी
पढ़ी लिखी ससुरैतिन बिटिया को .....
बेटी को पैतृक हक
न मिले कभी
और
बाप दे भी दे
तो
अपने
या
विभिन्न पुरुष रिश्तेदार
लेने दें
जमीन
या
मकान
पर कब्जा ......
जितना
वे बोलते थे
उतना वह बिटिया लड़ती थी
क्यूँ ?
जब
हक है
तब
क्यूँ नहीं लेने देंगे
घर के पुरुष सदस्य ?
धीरे धीरे
वह बिटिया
पिता माता के मनोभाव
ज्यों ज्यों
पढ़ती गयी
त्यों त्यों
उसके मन में
उसके  हिस्से की पैतृक सम्पत्ति
उसे न देने की
माता पिता की इच्छा
समझती गयी .......
धीरे धीरे
अपने पिता के
भाई के प्रति
असीम प्यार ने
उसे
मैके से
दूर कर दिया ............
माता पिता के स्वार्थ से
दुखी बेटी
और
मुड़ी पीछे
क्यों कि
वहां 
उसके लिए जगह न थी |



सत्य का सहोदर

( एक अख़बार की खबर से प्रेरित दिव्य ज्ञान )
08 May 2014
14:04

-इंदु बाला सिंह

सुनसान जगह पर
मिली
पोलिंग अफसर की
सड़ी गली लाश ने
सत्य का चेहरा
कुछ पल के लिए कांतिहीन कर दिया
फिर
वह मुस्कुरा कर बोला ....
झूठ मेरा ही सहोदर  है
थोड़ा
उसका भी साथ दो
उसके बिना मैं भी तो नहीं |

मंगलवार, 6 मई 2014

आम का पेड़


06 May 2014
13:40

-इंदु बाला सिंह

एक दिन
भरी दुपहरी में
बोल उठा फल से लदा
आम का पेड़ ......
ओहो !
दिदिया !
आज बिजली गुल हो गयी क्या ?
अच्छा किया तुमने
जो
आ गयी मेरे पास
और
उस जेनरेटरवाली
घमंडी पड़ोसन के पास न गयी तुम .....
याद है दिदिया !
जब तुम दस साल की थी
और
मेरे पेड़ के नीचे
चादर से मुंह ढांप के सोती थी
तब
मैं
सबेरे सबेरे
अपना एक फल गिरा देता था
तुम्हारे सिरहाने
और
तुम डर जाती थी
कहती थी .........
अरे !
मेरे सर पर गिरता
तो क्या होता ........
मैं हंस कर सोंचता
ओ री बहना !
ऐसा
कभी न होगा ......
आज भी आंधी में
मुझसे अलग हुए मेरे फल
जब तुम चुनने
आती हो
तो
मुझे याद आता है
ओ मेरी बहना !.........
जब तुम छोटी थी
और मैं आंधी सहने लायक
मजबूत न था
तब
तुम
स्वयं को भूल
मुझे पकड़ के
खड़ी हो जाती थी
उस समय
मैं इतना
विशाल न था ......
तुम सोंचती थी
कहीं मैं जड़ से ही
न उखड़ जाऊं ........
हाथ की पत्रिका के पन्ने
खुले के खुले ही रह गये उसके 
एक भी पंक्ति
न पढ़ पाई
वह
क्योंकि
आम के पेड़ ने
हलचल मचा दी थी
उसके
मस्तिस्क में
और
वह अपने बचपन में
लौट गयी थी  |