गुरुवार, 6 जून 2013

रेजा

मैं देखती थी
उस रेजा के चेहरे के स्वाभिमान को सदा
जो अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के
आती थी अपने काम पे
एवं भवन निर्माण के मध्यावकाश में
अपना टिफिन खोल
प्रतिदिन बांटती थी सब्जियां
अपने सहकर्मी कुली और मिस्त्रियों को
और मैं पढ़ती रहती  थी
मैं उन सहकर्मियों की आँखों की निरीहता
क्या इन पुरुष कर्मियों के घर में सब्जी पकाने वाली महिलाएं नहीं थीं
पर जिस दिन सुबह सुबह नये मजदूर रख
मालिक ने उन सब की छुट्टी कर दी
उस दिन का उस रेजा का अपमान से लाल चेहरा
आँखों में छुपी निरीह आशा की चिंगारी

भुलाये नहीं भूलती |

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