मैं देखती थी
उस रेजा के
चेहरे के स्वाभिमान को सदा
जो अपने
बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के
आती थी अपने
काम पे
एवं भवन
निर्माण के मध्यावकाश में
अपना टिफिन
खोल
प्रतिदिन
बांटती थी सब्जियां
अपने सहकर्मी
कुली और मिस्त्रियों को
और मैं पढ़ती
रहती थी
मैं उन
सहकर्मियों की आँखों की निरीहता
क्या
इन पुरुष कर्मियों के घर में सब्जी पकाने वाली महिलाएं नहीं थीं
पर जिस दिन
सुबह सुबह नये मजदूर रख
मालिक ने उन
सब की छुट्टी कर दी
उस
दिन का उस रेजा का अपमान से लाल चेहरा
आँखों में
छुपी निरीह आशा की चिंगारी
भुलाये
नहीं भूलती |
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