रविवार, 8 सितंबर 2013

आह्वान

1984

इस झंडे के नीचे
आज आओ बन्धुगण
हम सब उतार फेंकें अपने अपने मुखौटे
और कसम खाएं ...
हम अमीर , गरीब नहीं
हिन्दू , मुस्लिम , सिख ,इसाई नहीं
केवल मानव हैं
मानवता ही धर्म है हमारा
पशु भी हिंसक नहीं होता अपनी बिरादरी के प्रति
फिर हम तो मानव हैं
मुखौटों की गर्मी ने पागल कर दिया है हमें
हम अपने ही बाल नोंचते हुये घूम रहे हैं सड़क पे
और कह रहे हैं ...
निज हक के लिए लड़ रहे हैं
हमारी माता सिर धुन रही है आज
ऐसे पूत से तो निपूती भली थी
इससे भला तो मानव आदिम काल में था
नर रक्त पिपासु तो न था
मेरे दोस्तों !
आज इसी वक्त हम सब मिल कर प्रण करें
कि हम कुछ ऐसा प्रयत्न करेंगे
कि
किसी भी बालक को पेट भरने हेतु मजदूरी न करनी पड़ेगी
कोई बेवा जूठे बर्तन धोते न दिखेगी
हट्टे कट्टे शिक्षित युवक को अंगुलिमाल कभी न बनना पड़ेगा 
और बूढ़े रोयेंगे नहीं
ऐ मेरे देश के भावी नागरिको !
वसुंधरा के सपूतो !
सुंदर समाज की रचना हेतु
सफल मूर्तिकार की तरह जुट जाना है हमें छेनी और हथौड़ी ले कर
कसम खाओ कि तुम लड़ोगे नहीं
अन्यथा हम बिखर जायेंगे टूटी माला की तरह
यही आह्वान है मेरा |

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