सोमवार, 23 सितंबर 2013

पक्की दोस्ती


अपनी ही रचना के चरित्र से
कभी कभी इतना दुखी हो जाता है मन
कि बुद्धि उसे खींच ले जाती है
खबरों के आंगन में
दोनों में पक्की दोस्ती है |

अच्छी माँ

   
बच्चों के सुख दुःख में
हंसता रोता मन
कब अकेला हो गया
पता ही न चला माँ को
शायद अब बच्चे बड़े हो गये थे |

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

शौक

  
 1977 

शौक जब जरूरत बन जाता है
तब आनंद
काफूर हो जाता है |

जाड़े की सुबह


 1974

भीगे वस्त्रों में
भीगी अलकें छटकाती
सुबह आयी |

सिन्दूर की बिंदी



1974

आईने में
माथे पर लगे सिन्दूर की बिंदी ने अहसास कराया मुझे
किसी की पत्नी होने का |

जीवन साधना

23.09.96

तुम्हारा मौन चेहरा
तुम्हारा पुराना स्पर्श
भर देता है मुझमें असीम शक्ति
बसा कर तुम्हें आंखों में
करती हूं नित्य साधना एकलव्य सी
कभी कभी लगता है
कोई तो ले रहा है परीक्षा मेरे मनोबल की
और तब तुम्हारा चेहरा आ जाता है सामने
हो जाता है मन स्थिर
तुम्हारा चेहरा देता है मुझे प्रेरणा
सबसे लड़ने की
तुम न सही
तुम्हारा अस्तित्व है मेरी थाती
ईश्वर तुम्हारे चित्त को रखे शांत
है मंगल कामना मेरी |
सन्नाटे में
मेरे स्मरण मात्र से तुम आ जाते हो
और थाम लेते हो मेरा हाथ
मीलों चलते हैं हम तुम मौन
मेरे दृढ कदम
बस आगे बढ़ते रहते हैं
एक निश्चित भविष्य की ओर |

चांदनी

   

1975

सारी दुनियां सोयी थी जब
तारों की सुनी महफिल में तब प्यारा सा इक चाँद उगा
दूर क्षितिज पर नभ के इक सूने कोने में
शशि का क्षीण अलोक बिखरा
अपने प्रिय का लख नील गगन में मुस्काना
कुमुदनी का मन झूम उठा
चांदनी निशा में
नभ परियों के कलरव से
फिर सूना आकाश जगा
परियों के पग पायल का रुनझुन रुनझुन
हर ताल  बजा |

अनोखी पुत्री

प्रकांड ज्ञानी दार्शनिक प्रोफेसर पिता की पुत्री
बचपन से पिता की दुलारी थी
पर माता की सिरदर्द
पुत्री में पिता के गुण और ज्ञान कूट कूट कर भर गये थे
सो वह न तो सास की दुलारी बन पायी
और न ही नन्द की प्यारी
क्योंकि घर की महिलाओं को वह अनोखी लगती थी 
पुत्री पिता की तरह प्रोफेसर तो न बन पायी
पर रह गयी अकेली
कटी सी अकेली घर में
अब वो जी रही है
अपनी औलाद में
.................
ऐसा  फर्क क्यों !
लडके और लड़की के जीवन शैली में ?

शनिवार, 14 सितंबर 2013

नयी सुबह

1999



भूल गयी मैं कल की बातें
अब आ रही नई सुबह सुहानी है
देखो कैसी आज चल रही हवा मस्तानी है
लख भोर का तारा मेरा मन किलका है
आज शायद कोई नया संदेशा आनेवाला है
न जानें क्यों आज मेरा मन हरसाया है |

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

जी लें

12.02.91


दुनियां क्षणों की है
न कि वर्षों की
या युगों की
यह वरदान है ईश्वरीय
बेहतर है हम इसे जी लें भरपूर |

सशक्तिकरण

06.01.91


हर अवरोध बनाता है उसे फौलाद
हर दिन मन पकता है
परिस्थितियों में
वह हैरान है
अपने इस बदलाव पे
सोंचती है वह
आज जैसा मन उसका कल तो न था |

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

खूंखार

22.12 .90

मातृत्व ने बना दिया है
उसे नव प्रसूता बाघिन सा
अब वह अबला नहीं
सबला है |

बुधवार, 11 सितंबर 2013

कन्या

कन्या ही धुरी है घर की
घरों के जल से पनपा समाज बंट जाता है
विभिन्न धर्म , जाति और देश में
पर फिर आक्रमण करता है न जाने कौन और क्यों
अपनी धुरी पर
यह कैसा उपहास है ?

प्रेम बीज

प्रेम ही बीज है
न करो दुरूपयोग इसका
यह सृष्टिकर्ता है नव समाज का
इसमें छुपा है वो अंकुर
जो बन जाता है वट-वृक्ष हवा , धूप , पानी पाकर
लहलहाने दो  इसे
फिर देखना घृणा बैठी रह जायेगी
इस समाज के किसी कोने में
निरुत्साहित सी |

जीत तो होगी ही

1994

कठिन है
बदलना व्यवस्था को
कभी कभी तो यूँ लगता है
बदलनेवाला ही बदल जायेगा
हर नाकाम चाल शोषण कर लेती है
एक टुकड़ा  आत्मविश्वास 
छुप जाता है अस्तित्व अपने ही खोल में
रात की थपकी 
पहुंचा देती है हमें स्वप्न लोक में
जहाँ जीतता है कछुआ ही |

बाल दिवस

1984

चाचा नेहरु !
तुम कहाँ हो ?
मेरी व्याकुल ऑंखें
खोज रही हैं तुम्हें
आज के दिन
तुम मुझे बेहद याद आ रहे हो
माँ सुनाती है
तुम्हारे सच्चे किस्से
मैं उत्सुक जिज्ञासु सुनता हूँ
सदा तुम्हारे किस्से
कैसे फूल से खिल उठते थे तुम
बच्चों को देख
अपनी व्यस्ततम यात्रा में भी रुक जाते थे पल भर को
किसी बालक को देख मार्ग में
काश मैं तुम्हें देख पाता सशरीर अपने सामने खड़े
दूरदर्शन पर जब कभी तुम आते हो
मन रोमांचित हो जाता है
मैं खुश हूँ
कि आज तुम्हारा जन्मदिन है
और सारी दुनियां तुम्हें याद करेगी
ढेर सारी बातें करेगी भारत माता की |





चुभता सत्य

1974

मेरी कृतग्य रह तू
मैंने दिया है मान तुझे
घर और औलाद
न तो रहती तू सदा अवहेलित
निज पितृ गृह में
इतनी समझदार तो है तू
मेरे न रहने पर
ढूंढेंगी तू मुझे
और मेरे घर को जीने के लिए सम्मान से
जो कि तुझे कभी न मिलेगा
.........
चुभते शब्द सलाखों की तरह
उसे दाग दिए |

मैं नसीब का मारा

विशालकाय भवन बनाया मैंने
मैं रहता झोपड़ पट्टी में
मेरी बेटी सोती महलों में
सुरक्षा हेतु |

चौंक गया

वक्त चौंक गया
पल भर ठहर सा गया
उसकी उपलब्धि से दो पल |

योगी बन

2000

कोई न रुके
कोई न तडपे किसी के लिए
तेरी हार में है आनन्द किसी का
और किसी की जीत
योगी का मन
रहे कर्म क्षेत्र में लीन
कभी न भटके
जी ले तू भी योगी सा जीवन |

तू ही कर्ता

09.11.96


मानिनी !
अश्रु पोंछ
मनदीप जला
तू शक्ति है
तू प्रेरणा है
क्रन्दन न कर
तेरा रुदन लायेगा अकाल
हरेगा पुरुषत्व
नपुंसक समाज क्या लायेगा क्रांति
नया सूरज स्वतः कभी न चमकेगा
तुझे फूंकना है प्रेरणा की बंशी
मुक्त मस्तिष्क से
तू सृष्टिकर्ता है
करना है रचना नये समाज की
हर घर मुस्काएगा
देखना एक दिन
और जन्मेगा न्याय मंत्री शिशुपाल सा |

नाच रे मन

10.11.96



आज बजने दो वीणा
छिड़ने दो रागिनी मधुर तान में
मदमस्त तन फलान्गेगा हर बाधा
पार करेगा रेगिस्तान
चढ़ेगा हिमालय पर
और देखना
विजय पताका अपनी
फहराएगा एक दिन
तब तक जगे रहना ओ रे मन |

सलीब पर लटका मन

20.12.01


अपशब्द नहीं फूटते मुंह से
पर मौन रुदन मेरा
जरूर फलीभूत होगा
कर्मफल तो भोगना पड़ता है न हर व्यक्ति को
करना पड़ेगा प्रायश्चित तुम्हें .....
कर्म से , मन से , वचन से ....
सलीब पर लटका मन समझाये नहीं मानता
समय का मरहम भी नहीं भरता तुम्हारा दिया घाव |

जीने दो

19.09.96


पिया है हर पल गरल
कटा है मैंने उसके विष को क्षमा द्वारा
जब जब संयम का सिंहासन डोला है मेरा
तब तब मैंने पीटा है स्वयं को
स्वाभिमान के कोड़े से
अग्नि परीक्षा देता तन
बार बार करता है प्रश्न मौन
कब तक बचा पाउंगी स्नेह के पुष्प को
कहीं झुलस गया तो !
सम्पूर्ण चेतना शक्ति द्वारा
बचाया है मैंने प्यार के पात्र को
बंद करो यह लुकाछिपी
बहुत हुआ
जीने दो मुझे अपनी जिन्दगी |

होनी

12.10.06


बदली है चाल मैंने
जब जब जीने के लिए
तब तब पाया है सामने तुम्हें
यों लगता है
मेरी हर चाल का है तुम्हें पूर्वानुमान
मेरे मोहरा चलने से पहले
दिया है तुमने संकेत नई चाल का
अचंभित होती हूँ मैं
इस होनी से |

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

उहापोह

31.12.01


प्लेटफार्म में टिका अस्तित्व
कभी मजबूरी में
कभी हैरत से देखता है रिश्तों को
उनके चेहरे पर आते जाते भावों को
पैसे की महिमा को
कभी कोसता है मन दैव को
जिसने उसकी नियति प्लेटफार्म पर बसने की बनाई
तो कभी धन्यवाद देता है मन
उस सर्वशक्तिमान को
जिसने जगंह तो दी बसने की
इस प्लेटफार्म पर बसने की
दैव तेरी जय |

समझौते

09.07.2000

अंतर्मन के लम्बे शीत युद्ध की परिणति
पागलपन हो या नपुंसकता
दोनों ही डुबोती है स्व को
और रचना करती है एक अनोखे समाज की
नवोदित क्षत्रिय प्रसन्न होते हैं रक्त बहा
गौरव पाते हैं
अभिमन्यु बन जाते हैं
पर रात्रि के सन्नाटे में अर्जुन का मौन रुदन
हमें नहीं भूलना चाहिए |

हर घर को गर्माने दो

1998

नियति का क्रूर अट्टहास बना मन
रुक कर पूछे प्रश्न स्वयं से
मेरा क्या दोष ?
त्रास की इस बेला में
जगता है अहसास
शायद सत्य का दीपक उजाला नहीं करता
..................
जलने दो इस दीप को
अन्यथा लील जायेगा
असत्य का अंधकार सत्य को अजगर सा
जुगनू सा टिमटिमाता है मन
रात्रि के अंधकार में कितना प्रफुल्ल हो जाता है मन
विचारों की खनक जीवंत करेगी
हर घर को
घरों को गर्माने दो |



एक अनुभूति

09.07.2000

मृग मरीचिका है राजनीति 
डाक्टर भी खुश 
रोगी भी खुश |

सोमवार, 9 सितंबर 2013

समानता

पलंग वाली छोटी है
कुर्सी पर बैठने वाली से
पर वह तो पलंग वाली है न
तो बड़ी तो जरूर हुयी जमीन पर बैठने वाली से
पति का मनोरंजन करने वाली तो निकृष्ट है ही
कब समझ आयेगी इन्हें
दुनिया तो इनकी घूमती है इर्द गिर्द मर्द के
जरूरत के अनुसार मर्द औरतों को नाम देते हैं
जिस दिन आम औरतें मर्दों को अपनी सुविधानुसार नाम देने लग जायेंगीं
उस दिन वे स्वतंत्र हो जायेंगी
शोषण मुक्त हो जायेंगी
स्वन्तन्त्रता प्राप्ति के लिए पहले जरूरी है
निज नैतिक विकास करना
नहीं तो चरमरा जायेगा वैवाहिक ढांचा
बिखरेंगे रिश्ते
परिवार मन से नहीं
बुद्धि से चलते हैं
अभाव की भींगी धरती पर ही सत्कर्म के फूल खिलते हैं
सुविधाभोगी मानव कभी स्वाभिमानी नहीं होता

केवल उदंड होता है |

रविवार, 8 सितंबर 2013

चांदनी

1975

सारी दुनियां सोयी थी जब
तारों की सुनी महफिल में तब प्यारा सा इक चाँद उगा
दूर क्षितिज पर नभ के इक सूने कोने में
शशि का क्षीण अलोक बिखरा
अपने प्रिय का लख नील गगन में मुस्काना
कुमुदनी का मन झूम उठा
चांदनी निशा में
नभ परियों के कलरव से
फिर सूना आकाश जगा
परियों के पग पायल का रुनझुन रुनझुन
हर ताल  बजा |

रेल की सीटी

2000

दूर से आती रेल की सीटी
महसूस कराती है हर पल उसे ....
अरे तू बैठी है अब तक
अरे चेत भी जा
अभी तेरा स्टेशन आ जायेगा
फिर तुझे उतरना ही होगा
रेल से नीचे
प्लेटफार्म पर खड़े होकर
निर्णय भी लेना होगा तुझे
कि अब बस पकड़ी जाय
या  पैदल ही चल दिया जाय 
निज गन्तव्यस्थल के लिए |

नारी

2000

नारी !
तुम प्रकृति हो
स्नेह हो
श्रद्धा हो
प्रतिहिंसा की चिंगारी बुझा दो
आज तुम वात्सल्य रस में
नारी !
तुम सखा हो
प्रेमिका हो
श्रृष्टि हो
आश्रयदात्री हो
कांति हो
छटा हो
नहला दो धरा को तुम
आज अपनी चांदनी में
हम धरा पुत्र तुम्हारी पीड़ा हरेंगे
इतिहास रचेंगे
तुम सदा रहस्यमयी रोमांचकारी लावण्यमयी तिलिस्मी बनी रहो सदा
यही हम चाहें
और हम खोजते रहें तुममें अपना प्रतिविम्ब
यही तो जीवन है
तुम सदा नदी सी निर्मल कल कल बहती रहना
तालाब सी स्थिर कभी न होना |






किंकर्तव्यविमूढ़ क्यों !

30 . 11 . 97

ओ रे मन !
खींच अपने चारों ओर खींच परिधि
ऐसी सीमारेखा बना
जिसमे प्रवेशकर्ता हो जाय भस्म
बस तू विहार कर
तेरी जीवनी शक्ति ले जायेगी तुझे
तेरे निर्धारित लक्ष्य तक एक दिन जरूर
हो न किंकर्तव्यविमूढ़ तू आज
सत्य -असत्य , धर्म - अधर्म , पाप - पूण्य , अदि - अनादि
सब तुझमें  ही तो है
आनन्द ले तू 
जाड़े की गुनगुनी धूप का
और गर्मी की ठंडी रात का
कोहरे को काटती सूर्य रश्मि भरेगी तुझमें ऊष्मा
और वर्षा का इंद्र धनुषी रंग से पायेगा तू  उमंग
भूल कर भी न रुकना तू
बस चलते रहना
जहाँ भी कहीं विश्राम  करना
खींचना न भूलना अपनी सीमारेखा
है दृढ विश्वास पकड़ लेगा तू  अपने लक्ष्य को
देखना एक दिन |







आह्वान

1984

इस झंडे के नीचे
आज आओ बन्धुगण
हम सब उतार फेंकें अपने अपने मुखौटे
और कसम खाएं ...
हम अमीर , गरीब नहीं
हिन्दू , मुस्लिम , सिख ,इसाई नहीं
केवल मानव हैं
मानवता ही धर्म है हमारा
पशु भी हिंसक नहीं होता अपनी बिरादरी के प्रति
फिर हम तो मानव हैं
मुखौटों की गर्मी ने पागल कर दिया है हमें
हम अपने ही बाल नोंचते हुये घूम रहे हैं सड़क पे
और कह रहे हैं ...
निज हक के लिए लड़ रहे हैं
हमारी माता सिर धुन रही है आज
ऐसे पूत से तो निपूती भली थी
इससे भला तो मानव आदिम काल में था
नर रक्त पिपासु तो न था
मेरे दोस्तों !
आज इसी वक्त हम सब मिल कर प्रण करें
कि हम कुछ ऐसा प्रयत्न करेंगे
कि
किसी भी बालक को पेट भरने हेतु मजदूरी न करनी पड़ेगी
कोई बेवा जूठे बर्तन धोते न दिखेगी
हट्टे कट्टे शिक्षित युवक को अंगुलिमाल कभी न बनना पड़ेगा 
और बूढ़े रोयेंगे नहीं
ऐ मेरे देश के भावी नागरिको !
वसुंधरा के सपूतो !
सुंदर समाज की रचना हेतु
सफल मूर्तिकार की तरह जुट जाना है हमें छेनी और हथौड़ी ले कर
कसम खाओ कि तुम लड़ोगे नहीं
अन्यथा हम बिखर जायेंगे टूटी माला की तरह
यही आह्वान है मेरा |

शनिवार, 7 सितंबर 2013

बाँटना चाहूं सुख

1990

सुख बांटने को जी चाहता है
और दुःख दफनाने को
पर क्या करूं दोस्तों !
इस बंजर भूमि में
खुद ही हैरान हूँ मैं आज
अपनी बनाई हुयी कब्र देख कर
कहीं सूख की तलाश में
खुद ही कब्र न बन जाऊं एक दिन |

पसीना भी इत्र लगे

1990

अच्छा तो लगता है
बैठ जाने को मन करता है
बरगद की छांव में
पर कड़ी धूप जब नियति बन जाती है
तब धूप में ही
मन - पुष्प खिलने लगता है
पसीने की खुशबू
इत्र सी मादक लगने लगती है
आत्म - मुग्ध सा मन
बस चलता रहता है |

गांठ बांध कर आयी

09 .07.12  

गांठ बांध कर आती है
जिस आदमी से औरत
उसके साये तले
उसके घर में
रहती है आजीवन |
उस आदमी के न रहने पर
औरत ढूंढती है
दूसरा सहारा पुत्र या किसी दुसरे रिश्ते में
कितनी बेबस है वह
क्यों रखते हैं हम
उसे साये के अभ्यस्त
क्या उसकी अपनी क्रांति ही
निकाल कर लायेगी साये से बाहर उसे
और खड़ा करेगी पुरुष के बगल ?
समाज क्या उसे यह कदम उठाने देगा ?
कितनी जटिल समस्या है यह !

मृत्यु सकून है |

मोह भंग होने पर
मृत्यु
बड़ी ठंडी होती है
कभी कभी सोंचता है मन
स्थूल वस्तुओं के प्रति मोह न हो तो
कष्ट न हो शरीर छोड़ते वक्त
औलाद में जीने की मंशा
कभी न रखे जो
वो निरुद्विग्न निर्विकार सा चला जाता है जग छोड़
अपनों को बहुत कुछ दे कर |

ओ पुत्र !

पुत्र मेरे !
माँ तेरी मैं
कैसे भूला तू मुझे ?
विधवाश्रम में बैठे बैठे
यूँ ही याद आया मुझे तेरा बचपन
निज भविष्य सुघड़ बनाने हेतु
माता का ऋण कैसे भूला तू
जी लेती तेरे घर में
तो श्री हीन हो जाता तेरा घर क्या ?
मेरा भोजन , मेरी चिकित्सा , मेरा परिधान
क्या इतना महंगा था कि
मुझ पर न खर्च कर पाया तू ?
हंस ही लेती तेरे संग
ढूंढती तेरा बचपन
तेरी औलाद में
इतनी खुशी भी
तू न दे पाया ?



बुधवार, 4 सितंबर 2013

आजादी मिल कर रहेगी

! पुरुष
देश को आजादी मिली
तुम आजाद हो गये पर स्त्री  नहीं
अफ़सोस में है मन .....
निज सम्मान , स्वतंत्रता , समानता के लिए स्वजन से युद्ध !
आज युद्ध अवश्यम्भावी लग रहा है .....
घर घर में हो कर रहेगा निकट भविष्य में महाभारत
चेतना की लड़ी बिछी है हर घर में
चिंगारी लगने भर की देर है
कांप उठेगा आकाश
जब यह फूटना शुरू हो जायेगी
आखिर कितने दिनों तक रिश्तों का नाम दे
करोगे स्त्री का शोषण |

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

खुशियों के पल

पकड़ा है मैंने
मान अपमान भूल कुछ निज खुशियों के पल
गट्ठर में बांध रखा है इन्हें
जीवल के घटाटोप अंधकार में
पता नहीं कैसे ये पल स्वयं निकल जाते हैं
और जगमगाने लगते हैं
आकाश में सितारों सरीखे
बातें करने लगते हैं मुझसे
रोशन कर जाते हैं
मेरा अँधेरा मन |