शनिवार, 30 जनवरी 2016

उसे बस खाना चाहिये था



-इंदु बाला सिंह


तुम
बखिया उधेड़ रहे थे
गड़े मुर्दे उखाड़ रहे थे
और
वे
तुरपाई कर रहे थे
मुर्दों को दफना रहे थे
नन्हा बच्चा इस कौतुक को देख रहा था
तभी
उसे भूख लगी
और
वह रोने लगा ..........
वह  रोता रहा
उसे बस खाना चाहिये था ।

मैं दूरदर्शी था



- इंदु बाला सिंह

भूख ने थे डैने  फैलाये
आतुर थी
वह मंडरा रही थी
किसानों के सर पे   ..........
देखते ही देखते
वह
बंजर कर गयी जमीन  .........
मैं दूरदर्शी था
विदेश में ही बैठे बैठे
मुझे
स्वदेश में जमीन मिलने लगी
कौड़ियों के भाव   में  । 

आभाव से मुक्ति



- इंदु बाला सिंह


भूख पलती है कुत्ते की तरह
न जाने कहां
पर गले की रस्सी खुलते ही जोंक सी चूसने लगती है आदमी को ........
मैंने देखा   एक  दयालु को भोजन   परसते  भूखों को
पर
भूख निगल रही थी एक एक कर सबको...........
पल भर को बिलबिला गया मन मेरा
फिर
मेरा अंतर्मन खुश हुआ
मुक्ति मिल रही थी अभावग्रस्तों को  ........
समस्यायें घट रहीं थी । 

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

ऋणमुक्त



- इंदु   बाला सिंह

जन्मदाता की सच्ची  मित्र बनते ही
औलाद
पितृऋण और मातृऋण से
स्वतः मुक्त हो जाती  है । 

शुभेच्छु मित्र



-इंदु बाला सिंह


समस्याओं से परे
जब
हम मिलते हैं
हमारा रिश्ता कोई भी नामधारी क्यों न हो
तब
हम बिना किसी चाहत के
मात्र  एक दुसरे के शुभेच्छु मित्र रहते हैं
आखिर कोई कितना रोना रोये
जिसने हंस कर जीना सीख लिया
उसने जीवन जी लिया । 

बुधवार, 27 जनवरी 2016

जलपरी सा नृत्य करता



- इंदु बाला सिंह


पानी का बुलबुला मन
निकलता सागर से
जलपरी सा नृत्य करता
और
समा जाता सागर में । 

सोमवार, 25 जनवरी 2016

त्यौहार से तो बच्चे बहलते हैं


- इंदु बाला सिंह

किसान ने फांसी लगा ली ....... 
थी होगी कोई पारिवारिक समस्या
वैसे आजकल पत्नियों की सहिष्णुता में कमी आयी है .........
मेरे पति इंजीनियर हैं
अच्छी तनख्वाह है
पर त्योहारों में नहीं आ पाते घर
अब क्या करूं उनकी पोस्टिंग इंटीरियर लोकेशन में है न .........
अब पत्नी बेचारी क्या करे
घर में छोटे बच्चे हैं
आतंकवाद का सामना करते शहीद हो गया सैनिक पति
बड़े शान से उठी थी अर्थी
कभी कभी कमाई के चक्कर में दूर हो जाते हैं अपने
तो न भाते कोई त्यौहार
वैसे भी त्यौहार से तो बच्चे बहलते हैं ..... बड़े नहीं ।

रविवार, 24 जनवरी 2016

पशेंट और निकटस्थ




- इंदु बाला सिंह

गंभीर पेशेंट  डाक्टर के  टेबुल पर  पड़ी फाइल है
जिसे  भेजता है वह  अपने टेबुल से छोटे अस्पताल ... शहर के बड़े अस्पताल .........
फिर  फाइल
पेशेंट के इलाजकर्ता   की  जेब परखने के बाद
पहुंचा दी जाती है जिला के सरकारी या प्राइवेट अस्पताल ...... देश की राजधानीवाले अस्पताल  .........
पेशेंट  की  फाइल में लिखित कुंडली  डाक्टर अपने  सामर्थ्य अनुसार पढ़ते हैं
और निरीह  दूर दराज गाँव से आये निकटस्थ   उसे सुनते हैं   .... भोगते हैं   ......
अब यह समय  की हवा पर निर्भर करता है फाइल की  मुक्ति ...... निकटस्थ अपनों की समस्या का समाधान । 

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

मुंह न फेरना



- इंदु बाला सिंह

मुंह न फेरना अपनों से
पल भर को भी
संबन्ध तो दूध है
अपनों  का मन न फटने  देना
मन एक बार फटा
तो
बह जायेगी सारी तरलता ।  

वह पत्थर तोड़ के जीता



-  इंदु बाला सिंह


मान  मिलता है जुगत लगाने से
मीठे बोल  बोलने से
जिसने सीखा
केवल  पत्थर तोडना
वो क्या जाने मान का सुख  जाल
उसके  पत्थर तोड़ने के  कौशल का भी श्रेय कोई अजनबी ले जाता ....... धन कमाता । 

जग की अजूबी रीत



- इंदु बाला सिंह

बेटा और पैसा जिसने पा लिया
उसने जीत लिया
जग सारा
वाह रे खुदाई !
तूने ये कैसी रीत बनाई
पैसेवाली
अकेली  बेटी
न रही
घर की
न घाट  की
खाली
भटकती रहे
शोषित होती रहे
घर में  ........ सड़क पे   .........
ऐसा क्यों होता ?
ये कैसी अजूबी रीत ?
बड़े फेर में पड़ा है जी ।

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

कल की कल देखेंगे




-इंदु बाला सिंह


मेरी राह में
तुम सब मिलकर कंटीली झाड़ियों का अम्बार लगाते चले गये
और
मैं एक एक झाड़ी हाथों से हटाती
अपने हथेली की चुभन सहती
एक एक कदम आगे बढ़ती रही
पर भय  था मुझे
कहीं मेरी हथेलियों में सेप्टिक न हो जाय .......
पर
आनेवाले कल का समाधान मेरे पास न था  । 

बुधवार, 20 जनवरी 2016

समझ न पाया मैं



-  इंदु बाला सिंह


मैं डूब रहा था
तुम डूबने से बचाने  के लिये चिल्ला रही थी .........  हाथ पांव मार रही थी
मैं तुम्हें बचाने की स्थिति में नहीं था
मैं किनारे पहुंच गया
और
मैंने एक लम्बी सांस ली  ...........
देखा -
तुम भी किनारे पहुंच चुकी हो ..... मगर  ....... तुम फिर नदी में अंदर की ओर बहने लगी हो   ..........
गजब का स्वप्न देखा मैंने
यह भवितव्यता है .... या....... समय की चेतावनी
समझ न पाया मैं । 

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

कालेज में शिक्षा प्राप्ति


20 January 2016
09:39


-इंदु बाला सिंह

मुश्किल है जीना
और
बचना
जातिवाद के ...........लिंग भेद  के .....नशे से .....
पल भर को
दिग्भ्रमित ........... कुठित ....................हो जाती है बुद्धि .......
प्राइवेट स्कूलों में
तो
बच जाता सुरक्षित मन
पर
पहुंचते ही कालेज
बनने लगता है अस्तित्व विद्यार्थी का जातिवाद के ...... लिंग भेद के ......बल पे ......
तीन चौथाई मानसिक  शक्ति लग जाय पहचानने में जाति का आतंक
और
अपने एक चौथाई  मनोबल से जूझता है विद्यार्थी कालेज में
कोई जाति आधारित स्कालरशिप ले के
तो
कोई अभाव में ........
असम्भव नहीं है जीना
अस्तित्व बनाना कालेज में
पर
कच्चे मन को सम्हालते हुये ............लहुलुहान मन को बचाते हुये
कालेज में उच्च शिक्षा प्राप्त करना कितना कठिन है
जरा विद्यार्थी से पूछ के देखो न
जो
कलेजे पे पत्थर बाँध के देखता है
अपने से कमजोर छात्र ......छात्रा........को आगे बढ़ते
गोल्ड मेडल प्राप्त करते .......... डाक्टरेट डिग्री प्राप्त करते |

जरा उसकी याद करना लेना



- इंदु बाला सिंह

माना आज वह नहीं है
पर
जब जब  तुमपर मुसीबत आये
जरा
उसकी याद कर लेना
जिसका चरण पूजने के बाद
तुमने
अपने सुख के लिये
उसकी
मजबूरी का फायदा उठा
आँख  के आंसू की तरह ढलका दिया था उसे
तुमने
अपने जीवन से । 

रविवार, 17 जनवरी 2016

चटनी की महिमा



- इंदु बाला सिंह

दिमाग को  टुकड़ा कर
थोड़ा  थोड़ा पीसना होता है बेहतर
कितनी बढ़िया चटनी बनती है
कचौड़ी से खाने के लिये । 

तुम न होते तो क्या होता ?



- इंदु बाला सिंह

तुम्हारे जाते ही मर जाती हूं
अपने कमरे में
तुम न होते तो क्या होता ?
जरा सोंचो तुम  .........
ओ सूरज ! 

बुधवार, 13 जनवरी 2016

क्यों बांधते औरत को तुम


- इंदु बाला सिंह


बांधते हो
जितना तुम औरत को
वह उठती  जाती है ऊपर  संग संग  तुम्हारे......
गिर जाते  हो तुम
बंधी औरत के बोझ से
पर
औरत मर्द से ऊंची रह जाती है  ........
तुम्हारे गिरते ही  बंधन टूट जाता है औरत का
और
तुम्हारा सब कुछ उसी औरत  हो  जाता है  ........
आखिर क्यों बांधते तुम औरत को ?
नहीं समझ पायी
मैं अब तक । 

हवा लगेगी


13 January 2016
13:32



-इंदु बाला सिंह


पड़ोसन के घर गपियाने पहुंची
और
दौड़ के आया
पड़ोसन का दो वर्षीय फुलस्वेटर पहना नंगा लड़का
हंस कर बोलीं वे -
अरे ! इसे जब भी पैंट पहनाओ उतार देता है
और
मेरी सास बोलती है .....
रहने भी दो हवा लगेगी |
मैं कभी न ले जाती थी अपनी बिटिया उनके घर |

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

क़ानून की आंखें


13 January 2016
11:14


-इंदु बाला सिंह


भले लगते
वे
मुझे
जो मारते
अपनी बिटिया कोख में
ऐसा भी जीवनदान क्या अपनी बिटिया को
जिसे
भूल गये
पैदा कर के .........
अरे !
आंखें होवें
तभी तो देखे
क़ानून ...... किसने किसका कत्ल किया |

क्या लिखा है तूने


13 January 2016
11:01


-इन्दू बाला सिंह



न जाने क्यों पुनर्जीवित होता है कवि
बारम्बार झिंझोड़ता है 
उसे समय
फिर भी
न मरता है थेथर मन
क्या लिखा है तूने
उसके नाम की वसीयत में
! कवि को धरा पर भेजनेवाले |

निर्भर बेटी का पिता


13 January 2016
08:14


-इंदु बाला सिंह



ठंडे के मौसम  में
फेरी लगाता .....अंडा बेचता
हमें बाजार जाने के कष्ट से बचा
ब्याहता बेटी के अंधा पिता
सहारा हीन है
वह अपने पति पर निर्भर बेटी का पिता है |

मैं हूं सहायक


13 January 2016
07:09
-इंदु बाला सिंह


मैं मालिक का मकान बनवाता हूं
घर से दूर सोता हूं
नन्हे शिशु सा मसहरी में
आंखों में घर की अनुभूति लिये .......
रात भर
मेरे बच्चे ....... मेरी पत्नी
मेरे जन्मदाता .... मेरे रिश्ते नाते
मुझसे दूर रह कर भी पास हैं मेरे .......
मैं हूं..... मजदूर
अमीरों का सहायक |

सोमवार, 11 जनवरी 2016

सस्ती सुलभ चीज



- इंदु बाला सिंह

लड़की भाये घर में
शक्ति शाली वह पत्नी संस्कारयुक्त पति के बल पे
वरना
सबसे सस्ती सुलभ चीज वह बाजार में
पुरानी होते ही
वह छत से कूदे  ......
खाली कर  देती
वह पल भर में
अपनी
सोने की सात फुट की जमीन । 

हम आधुनिक बन जाते



- इंदु बाला सिंह


भूल अपनी मिट्टी
करते युवा राजनीति
कामवालियां और उनके बच्चे बने  ..... दादी , मौसी ,दीदी , भैया  .....
नित तरसते दरस को औलाद अपनी
अपने सगे संबंधी
रुपयों के बल पे ये कैसा बीज  बोते
हम  अपनों के नन्हे जेहन में
और
सैकड़ों  बहाने बना  देखते देखते हम आधुनिक बन जाते । 

जग के बदलते रूप



-इंदु बाला सिंह


तू सोया मैं सोयी
तू जागा मैं जागी
तू  मुस्काया मैं मुस्कायी
तू रोया  मैं तड़पी
तुझ में ही जी मैं दिन रात
तेरी आँखों से देखा मैंने जग के बदलते रूप   ....... अपना आज  .........
ओ मेरे नन्हे अंश । 

स्वार्थवश की गयी गलतियां



- इंदु बाला सिंह

कुछ स्वार्थवश की गयी गलतियां सुधारना न चाहे वे
और
विनाश के बीज उसी दिन लग गये
जिस दिन था तोड़ा उन्होंने स्वजन का भरोसा
बाकी सब तो समय की मांग थी   ...........
न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति से
वे
हंस रहे थे    .......
अंगड़ाईयां  ले रहे थे
आनेवाले कल को भूल अपने
स्वप्न में  ...... सत्य में  । 

बेहया बेल




- इंदु बाला सिंह

परिवर्तन को गले लगा न सकी
हलाहल धारण  हो न सका कंठ में
मन बेल बेहया सी चढ़ चली पथरीले पहाड़ पर
न  जाने कौन सी ध्वजा लहराने ।

मन अश्रुप्लावित हो बैठा


11 January 2016
15:21

-इंदु बाला सिंह




ओह ! व्यर्थ  गया  यह  जीवन सारा
बीज लगाते  ही मौसम बदला ...... पल में आंधी तो पल में रूद्र हुआ ताप
पसीने से सींचा पौधा
हारी मैं
जब शरीर टूटा
और
देख अपने पौधे को
न जाने क्यों
आज
व्याकुल मन अश्रुप्लावित हो बैठा  |

रविवार, 10 जनवरी 2016

झंझा भी जरूरी


11 January 2016
06:57

-इंदु बाला सिंह


भीषण झंझा बतलाती है
कीमत
लात को बुद्धि की ..........
अंगडाई ले उठ खड़ा होता है
शिथिल पड़ा शरीर
उड़ते तिनके बचाने के लिये
रात के बसेरे का .............
शरीर का अंग अंग जुड़ जाता है
कैंसरग्रस्त सदस्यों की पहचान हो जाती है .............
मौसम का बदलाव पहचान कराता है
हमारी नींव का .......... हमारी क्षमता का
और
तब  उड़ पड़ता है मन
दिशा ज्ञान परख
लौट पाने की क्षमता तौल
सुदूर ...........
साइबेरिया में |

याद आये बिछड़े


10 January 2016
22:42
- इंदु बाला सिंह

मुंह फिरे 
और 
अलग हो गये 
रास्ते ........ 
जब जब मन बिसुरा
याद आये
बिछड़े 
सहयात्री

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

डाल एक टुकड़ा स्वप्न का


08 January 2016
21:21

-इंदु बाला सिंह



डाल एक टुकड़ा स्वप्न का
आशा कूकरी के सामने
बढ़ जा आगे ......
आखिर कब तक तकेगा राह
यूं ही खड़ा खड़ा
जो न मिल पाया
उस पर अफ़सोस क्यूं ........
कितने मिलेंगे
कितने छूटेंगे
ओ नौजवान !
चलता रहा
तो
नित नये मिलेंगे साथी
रुका क्यूं
कदम तो उठा ............
जग से हारा तो
क्या हुआ
खुद से न हारना
खुद पे जिसने शासन किया
उसने सुना
जीवन का मधुर संगीत  |




गुरुवार, 7 जनवरी 2016

न जाने क्या क्या सोंचते हैं ये



- इंदु बाला सिंह

उधार लेने वाले खुश रहते हैं
उधार का .... राशन ... नया मकान  ...... बेटी का ब्याह  .....
हैसियत दर्शाती है
हमारी
हमारी उधार लेने की क्षमता  ......
जिंदगी भर
मध्यम रोशनी में पढ़ते रहते हैं
लिखते रहते हैं
न जाने क्या क्या सोंचते हैं  ......... खोजते हैं  .......
समाज से अलग थलग पड़े
खुद को बुद्धिजीवी कहलाते  बिसूरती संतानों के पिता ...... संतान  का मुंह जोहती मातायें |

भोर का इन्तजार


07 January 2016
22:05

-इंदु बाला सिंह


न जाने कैसा प्यासा पल था वह
और
पी ली थी
मैंने सम्मान की ज्वाला ...........
धधक रही है अब तक
वह
सुलगते रहते
मन के अवसाद ..........
सोता है ज्वालामुखी अंतर्मन में
अंधियारे में शीतल लेप लगाती
चेतना बेसुध करती
सुला देती तन ........
पर
मन न सोता
इन्तजार करता
वह
भोर का |

बुधवार, 6 जनवरी 2016

कमा के लौटा है बेटा



-  इंदु बाला सिंह



बेटे के
जेब  का रुपय्या
नचाता
सबको ता  ता थय्या
दी जे वाले बाबू  ...जरा गाना बजा  ...........
पिता माता बहन सभी निकटस्थ.......... मुस्काते  ........ मॉडर्न बन जाते
अब रुपय्या आया कहां से    ......... इसका जिम्मा तो लानेवाले के सर पर है
काश
ऐसे हर घर में बनता एक वाल्मीकि  ...........
खोते मात पिता   ......... अपना गृहस्थ लाल
और
चेतती हर माँ   ...... हर पिता   ........ हर बहन । 

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

आखिर चिराग ले के क्यूं ढूंढते दामाद




-इंदु बाला सिंह

लड़का तो ठीक है
पोस्ट ग्रेज्युएट है
नौकरी नहीं  करता है
पर
ड्राईवर है उसका बड़ा भाई
कोई नौकरी न मिले  लड़के को
तो
घुस जायेगा
वह भी
अपने बड़े भाई की तरह ड्राईवरी में  .......
यही ठीक नहीं  है ........
लड़का ठीक है
अपना धंधा करता है
ढेर सारे भाई बहन हैं तो क्या
अपना मकान  है
अपनी कार है
अरे  काम धंधा  न चला
तो
ड्राईवरी कर लेगा  ........
आखिर चिराग ले के क्यूं ढूंढते दामाद
लड़की के पिता
और
पांव पूजते
ससुर  दामाद का ।

समय के बीज



- इंदु बाला सिंह

ये कैसा क़ानून है
जो जीता है
स्वार्थी की जेब में    ..........  क्रूर हृदया के पर्स में  ......
ऊंघता है लाइब्रेरी की पुस्तकों में  ..........
फिर
लाइब्रेरी तक पहुंच कर लौटने के लिये
पेट और  जेब का भरा होना भी उतना ही जरूरी है
जितना
आँखों में रोशनी होना   ........
और
तब बेहतर लगने  लगता है
बोना
समय के बीज अपने पैताने  । 

तीसरा कदम रखने के लिये जमीन की जंग





- इंदु बाला सिंह


जीने की कश्मकश में
छोड़ दिया था
मैंने
देखना आईना
और
आज
अपने प्रिय लेखकों के  चित्र
देख फेसबुक में
अचंभित हुयी  .........
अरे !
तुम्हारे बाल सफेद गये  ...........
तुम
इतनी उम्रदार हो गयी
और
तुम !
तुम्हारी तो बरसी भी बीत गयी  ..........
ओह !
मतलब
मैंने  कीमती पल खो दिये     ........
बाईस वर्ष की उम्र में
पहुंच गई  मैं
जब
आरम्भ हुयी थी
तीसरा कदम रखने  लिये
जमीन की जंग    ..........
जो
अब भी वह जंग जारी है  ...........
आखिर कब तक !
कब तक ?
शायद आख़िरी सांस तक   ........
फिर से खो गयी
मैं
अपने  दैनिक संग्राम में  । 

सोमवार, 4 जनवरी 2016

मन है तो रोशनी है



-इंदु बाला सिंह



मन की चाह ही जलने को प्रेरित करती है दीये को
और
तेल मिलता है दीये को.........
मन
गलाता है  स्वंय को
जीता है
रोशन करता है
हर निकटस्थ की राह   .........
जब तक तन  है
तब तक
मन है .........
और
मन है
तो
रोशनी है  । 

रविवार, 3 जनवरी 2016

हाथ सफाई करना सीख




- इंदु बाला सिंह



मन की आँखें खोल
ओ रे ! ........ बिसुरनेवाले  प्राणी  !
हाथ सफाई करना सीख
इतना  मनोबल बढ़ेगा तेरा
कि
तू हैरत में पड़ जायेगा
इस जिले का सामान उपहार दे तू
दूसरे जिले के अपनों को
बदले में मिलेगा
तुझे भी तो उपहार दूसरे जिले के निवासी से
रेडीमेड कपड़े कट के बन जायेंगे  तेरे बच्चों के साइज के
कलम लिखने के काम आएगा
और
बर्तन तेरे किचेन का स्टैंडर्ड बढ़ाएगा  .........
बच्चे तेरे स्कूल में पढ़ते हैं न
भले  ही महीने में एक बार स्कूल जाते हों वे
आखिर साल में एक बार स्कूल यूनिफार्म मिल ही जाता है
वे
बाकी समय
सड़क पर दबंग बने घूमते हैं
तो क्या हुआ
तेरे घर की सुरक्षा करते हैं
फेल होने से भी
क्लास प्रोमोशन मिल जायेगा ही उन्हें
नवीं क्लास पहुंचते पहुंचते साईकिल भी फ्री मिल जायेगी
घर में जितने बच्चे
उतनी साईकिल  ..........
हाथ सफाई को चोरी कौन कहता है
पकड़ में आयेगी
तभी न चोरनी कहलायेगी तू
ओ ईमानदारी के पुतले बने जीव !
जीना सीख
कामवाली से काम निकालना सीख
आँख निकाल के लड़ना सीख
धमकाना सीख
जीना सीख ।