बुधवार, 15 जुलाई 2020

ललाट का लेखा

मार्च -18


-इन्दु बाला सिंह
मन भटकता है
और
उसके संग संग तन .....
न जाने कैसे भीड़भाड़वाला शहर पल भर में वीरान बन जाता है .......
जिंदगी भी ग़ज़ब की चीज है
मिली तो बेकार लगी
न मिली तो भी बेकार लगी
शायद भटकने की सामर्थ्य ख़त्म होते ही महसूसने की ताकत ही ख़त्म हो जाये
बूंद सी गिर जाऊँ .... मैं कहीं
मोती बनूँ
या
मोती सी चमकूँ किसी फूल या किसी दूब पर .....
शायद किससे रेगिस्तान में गिर मिल जाऊँ बलुआही धरा पर ...,.
जो लिखा था ललाट पर
पढ़ न पाया कोई ग्यानी
भटकते भटकते ही मिट गया इंसान .....
बस पदचिन्ह छोड़ गया ।

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