बुधवार, 15 जुलाई 2020

रिश्ते


- इंदु बाला सिंह
एक बार बने रिश्ते मिटते नहीं हैं
हम उन्हे भुला देते हैं
पर वे हमारे अवचेतन मन में जा छिपते हैं
हमारे अकेले पल में
वे रिश्ते हमारे सामने आ खड़े होते हैं
हमसे प्रश्न करते हैं ....
पुराने रिश्तों को नया नाम दे उन्हें निभाना
हर पल खूबसूरती से जीना
नये रिश्ते बनाना
आगे बढ़ना
यही तो जीवन है |

सोयी थी उमंग


- इंदु बाला सिंह
प्रेम , कर्तव्य , भय के रेशमी धागों से लिपटी मैं ..... सोयी थी
बन गई थी
ककून .. . ....
एक दिन स्वयं कट गये .. धागे
आँखें चुंधियां गयीं .....
गुनगुनी धूप गर्माहट पैदा कर रही थी
असंख्य तितलियां उड़ रहीं थीं
और ... मेरे मन में उमंग ने अंगड़ाई ली .......
आकाश छूने की चाह जगी |

जूते उसे आवाज लगाते थे


-इंदु बाला सिंह
जूते जरूरत होते हैं .....
पर जूते शौक भी होते हैं इतनी समझ न थी उसमें
जिस दिन उसे बेटे से स्पोर्ट शू उपहार में मिला उस दिन वह भौंचक रह गयी ....
और
कुछ दिन बाद उसे समझ आया
ये रिबॉक के शूज मात्र जूते नहीं थे
ये उसकी आजादी के परिचायक थे
ये जूते उसे बार बार कहते थे ... दौड़ ... दौड़ .. दौड़ने की उम्र नहीं होती ....
जूतों की आवाज सुन न जाने क्यों .... वह हर बार सहम सी जाती थी |

बेटी का सुख


- इंदु बाला सिंह
परिवारों को मजबूत बनाने का नुस्खा आज भी कायम है
कन्यादान कीजिये
संतुष्टि पाईये .....
बेटी का जन्म हुआ
कलेजा कड़ा करके उसे पढ़ा लिखा स्वाभिमानी बनाया
और एक दिन ..... उसे उसके वास्तविक घर में पहुंचा दिया .......
कन्यादान किसी के लिये स्वर्ग का द्वार खोलता है
तो
किसी के लिये समाज में ऊँचा स्थान दिलाने का माध्यम है। ....
दान हुयी बेटी अपने जन्मदाता के लिये तड़पती है
और आजीवन उन्हें सुख पहुंचाना चाहती है
अपने भाई बहन की समस्याएं सुलझाती है .......
बेटे की अपनी समस्याएं हैं ..... उच्च अभिलाषाएं हैं
पिता कन्यादान का सुख भोग अनजाने में ही
आर्थिक और मानसिक बोझ तले दबा देता है अपने बेटे को |

रेप एक भयानक शब्द


- इंदु बाला सिंह
1
सुनसान सड़क पर चौकन्ना रहना है उसे .....
वह तो सुबह सबसे पहले अपने स्टॉप से खाली स्कूल बस में चढ़ती है ....
अबसे उसे उस स्टॉप से बस पकड़नी है जहां ढेर सारे बच्चे चढ़ते हों .....
बस से उतरना भी एक स्टॉप पहले ही है ....
पांचवी कक्षा की छात्रा ने मन में सोंचा |
वह डर गयी थी
परेशान थी
उसे लगा ..... उसके साथ भी रेप हो सकता है ....
आखिर ये रेप होता कैसे है ?
जैसे भी होता है ... कुछ खतरनाक होता है ....
उस दस वर्षीय छात्रा ने सोंचा |
मम्मी पापा से कह रही थी धीरे धीरे ...
किसी लड़की के रेप के बारे में बात कर रही थी ....
मुझे देखते ही चुप हो गयी .....
पापा गुस्सा से बोल पड़े। ... फालतू बात मत करो ....
उसे स्कूल में रेप के विषय में क्यों नहीं पढ़ाया जाता ?
फिर वह चुपचाप अपनी इंग्लिश ग्रामर की किताब खोल ली |
2
ये रेप की खबर सुन
सिर शर्म से झुक जाता है मेरा .
माना मैं समझदार हूँ
नौकरी करता हूँ
पर
इस विषय पर
मैं किसीसे बात नहीं करना चाहता ....
मीडिया चीख चीख कर रेपिस्ट के बारे में बोलती है ....
और
अपनी बहन के बारे सोंच मैं घबड़ा जाता हूँ |

आत्ममंथन


- इंदु बाला सिंह
पहले कमजोर बनाया
फिर
अनुगामिनी बनाया
शिक्षा ही न दी होती तो भला था
कम से कम अज्ञानी रह पशु रहते
जिस दिन जो रोटी खिलाता उसीके हो लेते
ये कैसा जीवन दिया तुमने
ओ ! पिताश्री |

जेंडर डिफरेंस


- इंदु बाला सिंह
1
उसकी तीन वर्षीय बिटिया फुल पैंट पहन कर किंडरगार्टन स्कूल में पहुंची ……
अरे !
लड़कियों का यूनिफॉर्म स्कर्ट है - हेड मिस भौं सिकोड़ी ।
2
छि: ! ये कौन आ गया !
लड़कियों के ग्रुप में एक लड़के को देख स्वाति कह उठी
किसी ने सिर झुकाया
तो… कोई मन्द मन्द मुस्काया
और
लड़का चुपचाप अपना मोबाइल खोल मैसेज पढ़ने लगा ।
3
लड़की मॉनिटर बनाओ
लड़के शांत बैठेंगे …
शिक्षिका ने क्लास कंट्रोल का गुर सिखाया ।

गरीब की बेटी


- इंदु बाला सिंह
वह
प्रेम की भूखी थी
सड़क पर लोगों की लोलुप निगाहें सह सह कर परेशान थी
पितृहीन थी
सम्पत्तिहीन पिता की संतान थी
सम्मानजनक ईमानदार जीवन के लिये संघर्ष कर रही थी
कालेज का मुंह नहीं देख पायी थी ......
अपनी माँ के लिये उसने सदा अपनों से ताना सुना था ... मैके में बैठी है .....
वह
भाग कर अपना घर बसायी
यहां रोटी कपड़ा मकान और पुत्र संतान थी पर उसकी अपनी मां नहीं थी
अपनी माँ की तरह ही वह सदा सम्पत्तिहीन रही |

फूलों ने कहा


- इंदु बाला सिंह
हम सैनिकों के पथ में बिछ खुश होते हैं
आज तू ने हमें हमारे जन्मदाता से अलग किया
और हम पे सोने चला .....
जल्द ही मेरी सन्तानें तुझ पर सोयेंगी |

परिवार खुश है


- इंदु बाला सिंह
जीवन साथी छूटा
हर रिश्ते गुमे .....
जान बूझ के गुम हुये रिश्ते .... कभी नहीं मिलते
खुशी पर सबका हक है ....
देखते ही देखते एकल परिवार का जन्म हुआ |

रिफ्यूजी


- इंदु बाला सिंह
सहानुभूति और सुरक्षा को तलाशती पेट की भूख से बेहाल हैं बेटियां ......
मां हैं ... फिर भी भूखीं हैं बेटियां
यह कैसी विडंबना है .....
घर की मुखिया नहीं हैं बेटियां ....
रिफ्यूजी हैं बेटियां |

छात्र ही सच्चे दोस्त हैं


- इंदु बाला सिंह
छात्रों के रियूनियन में मिलती हूं अपने छात्रों से
उनकी खुशी में मेरी खुशी है
अच्छा लगता है उन्हें आगे बढ़ते देख
जेंडर फ्री मस्त जिंदगी जीते देख
बड़ी जल्दी ये छात्र ही लिंग भेद मिटायेंगे - मैं मन ही मन कह उठती हूं .....
मां !
तुम उन्हें चित्रों में , वीडियो में देख स्वतः कह उठती हो -
मेरे बच्चे ऐसी खुशी महसूस न कर पाये .....
वह भूल जाती है कि उसने हमें स्वाभिमान पूर्वक जीने का मौका दिया ....
माँ !
जरा सोंचो तुमने क्या खोया
हम भाई बहन मुस्काये .. तुम मुस्काई |
काश !
मैं तुम्हें हँसते देख पाती
तुम्हें तुम्हारी खुशियां लौटा पाती !
मां ! हमने तो तुम्हें सदा मित्रहीन ही देखा
शायद हम भाई बहन ही तुम्हारे सब कुछ थे |

भूख ही शिक्षक है


- इंदु बाला सिंह
हर भूखा आजाद है ... निडर है ....
उसे खोने के लिये कुछ नहीं है
वह अपनी रोटी के लिये परिश्रम करता है
और
अपनी कमायी हुयी रोटी ... बाँट के खाता है
उसे अपने मन का सकून सामनेवाले की आँखों में दिख जाता है |

पंखहीन


जनवरी 4

- इंदु बाला सिंह
बच्चे
बड़े हुये
पाँखें निकलीं
और
वे उड़ चले
अपनी मनपसंद दुनियां की ओर .....
अब लौटेंगे वे
अपनी पैतृक सम्पत्ति लेने
आज मोह के धागे टूट गये .....
मात्र लगड़ी .... पंख हीन संतान फुदकती रही |

बुढ़ापे का कष्ट


- इंदु बाला सिंह
दिखाने के लिये मां के पास बेटे और उसके मित्रों की भीड़ है
बिस्तर पर पड़ी मां को सही गलत का ज्ञान नहीं
वो जो मांगे उसे बेटे खिला देते हैं
और फिर मां तड़पने लगती है दर्द से .....
मां को अस्पताल ले जाना है सुनते ही घूमने निकल गया बेटा
अब अस्पताल का झंझट कौन उठाये ?
ऐसे बेटे को क्या नाम दूं !
मां की जान भी जबर है
खाली चीखती है ....
काश एक बार में ही मुक्त हो जाती मां अपने शरीर से !
पुत्र चिंतामुक्त हो जाते .....
अपना अपना हिस्सा ले लेते ....
सही कहा था मेरे पिता ने ....
बच्चा बूढ़ा एक नहीं
बच्चे का नखरा उठा सकते हैं लोग
पर बूढ़े का नहीं .....
मेरी स्कूल में पढ़नेवाली बिटिया कह उठी .....
ईश्वर क्या ऐसे बेटों को सजा नहीं देता है ?
मैं सोंच में पड़ गयी ......
मेरी बिटिया देख रही थी
पड़ोस की बूढ़ी दादी का कष्ट
और
मैं सोंच रही थी ......
ईश्वर हाथ पैर चलते उठा लेता मुझे तो अच्छा रहे
मुझे अपना ऐसा बुढ़ापा न भोगना पड़े |


बेफिक्र बचपन


- इंदु बाला सिंह
बचपन से पढ़ते आये ....
राम एक अच्छा लड़का है |
राम एक लड़के का नाम मात्र था
आज लगता है राम भगवान का नाम है
खुद पर हैरानी होती है
यह कैसा परिवर्तन है समय का
और लगने लगा ....
रजनीति , आर्थिक और सामजिक सुरक्षा से अनभिज्ञ
क्या बेफिक्र दिन थे बचपन के |

बेटी की मां


- इंदु बाला सिंह
भयहीन होता है बचपन
कभी डर ही न लगा
और
डर लगने लगा ....
अखबार पढ़ पढ़ कर
बेटी की मां बन कर |

इंसान


- इंदु बाला सिंह
अपनी लड़ाई हम खुद लड़ते हैं
बाकी सब तो मोहरे भर है
जिसने शतरंज न खेला
वो इंसान नहीं |

जीना है


- इंदु बाला सिंह
राजनीति और शतरंज में फर्क समझना यारो !
बुद्धिजीवी और श्रमजीवी सदा मित्र रहे हैं .... एकदूसरे पर निर्भरशील रहे हैं
बाकी तो अखबारी मुद्दा है
ड्राइंग रूम की बहस भर है
जीने का हक सबको है |

रोशनी में पलते सपने


- इंदु बाला सिंह
मेट्रो की जगमगाती रोशनी
गगनचुंबी इमारतें
फ़्लैटों में पलती ज़िन्दगियाँ
खिलखिलाहटें
उच्च अभिलाशायें
महंगाई की मार
शिक्षा , फ़्लैट के लिया क़र्ज़
रोज़मर्रा की भागमभाग
दूर करती है अपनों से ........
छोटे शहर और गाँव बसाए रहते हैं अपने मन में
पति के लौटने के स्वप्न
पिता का इन्तज़ार
राखी के दिन बहन की चाह
पनियारी आँखोंवाले पिता
स्वप्निल माँ ......
चलो हम पुल बनाएँ
गाँव, छोटे शहर और मेट्रो को ही नहीं विदेश को भी जोड़ें......
टआख़िर कभी तो सपने सच होंगे ।

रसीदें


- इंदू बाला सिंह
ज्ञान की रसीदें हैं डिग्रियाँ
कमाने का माध्यम हैं डिग्रियाँ
ज्ञान इनक़ैश करती हैं हमारी डिग्रियाँ
सरकारी नौकरी और पी ० एस ० यू ० में सोना उगलतीं हैं डिग्रियाँ .........
ज्ञान के पिपासू रसीदहीन ही रह जाते हैं
घाट घाट का पानी पीते रहते हैं
गुमनाम रहते हैं ......
उनकी खोज पे मोहर लगाते हैं घाघ डिग्रीधरी व्यापारी ।

पॉश कालोनी


- इंदु बाला सिंह
तेरे बस्ती में आयी थी तो सर उठा कर चलती थी
आज सर झुका कर चलती हूं
किसी को देखना नहीं चाहती ... फेर में हूं
मैं पॉश हो गयी हूं
या
चिंतक़ हो गयी हूं ।

शहर की जीवन रेखा


- इंदू बाला सिंह
अंटके थे
लटके थे
छब्बीसवीं मंजिल की बालकनी में हम ....
सामने सड़क पे खड़े थे.. ... माचिस के चौपहिया वाहन , दोपहिया वाहन
करीब आधा मील लम्बी कतार थी। ...
जगमगाते शहर की जीवनरेखा पर ... जगमग करते माचिस के डिब्बे खामोश थे
दिल धीमे धड़क रहे थे। .....
सड़क जाम थी ।

मनभावन टेक्नोलोजी


- इंदू बाला सिंह
दुनिया की टेक्नोलोजी तेज़ी से बदल रही है
और
अपनी स्पीड बढ़ा रहे हैं युवा उसे पकड़ने के लिये। युवा .....
युवा की दौड़ से सैकड़ों गुना स्पीड से दौड़ रही है आज ये टेक्नोलोजी
रिले रेस सरीखी ...... यह हर सैकड़े मील पर .... अपना कुछ सोफ्टवेयर रख आगे दौड़ जाती यह ......
ग़ज़ब की ख़ूबसूरत और संजीवनी बूटी सी जीवनीदायक है टेक्नोलाजी .....
हतप्रभ युवा फिर शूरू कर देता है अपनी दौड़ ........ अपनी मनभावन टेक्नोलोजी के पीछे
और
माता - पिता परेशान हैं .... दुखी हैं .... अपनी संतान को इस तरह तनाव में दौड़ते देख
आख़िर ये बच्चे रुकना क्यों नहीं चाहते !
प्रश्न करने से वे कह उठते हैं वे युवाओं से ..... आख़िर क्यों इतनी दौड़ ? ..... कहीं तो रुक जाना चाहिये !
अपना उत्तर हमें वे बड़े सहज ढंग से दे देते हैं .....अंकल आप आप क्या जानें इस टेक्नोलोजी का महत्व .....
सही बात है ..... हमारे समय न तो ऐसी टेक्नोलोजी थी और न ही विदेश का महत्व
अरे हमारे समय बेटा शहर कमाने जाता था ..... तो हम कहते थे हमारा विदेशिया हो गया है
और गाँव वह चार पांच साल में लौटता था .......
लोग कहते हैं .....ग्लोबल विलेज का जमाना आ गया है अब
हम निराकार ईश्वर के समर्थक हो रहे हैं ..... और हमारे बच्चे साकार ईश्वर में अपने मन की शांति ढूँढ थे हैं
आख़िर यह कैसा परिवर्तन हैं ?
मन में एक प्रश्न उठ रहा है ।

मुझे तुझसे प्यार है


-इन्दु बाला सिंह
जीने के लिये आदमी को चुनना पड़ता है
कंक्रीट का जंगल और भीड़ का समूह में से कोई एक ......
अकेलापन दोनों जगह है ।
आदमी प्यार करना सीखता है अपने इर्द गिर्द के माहौल को .....
प्रेम और उच्चाभिलासा के हथेली थामे वह चलता जाता है अपने मनभाये पथ पर
इसी का नाम तो जिंदगी है ।

आकाश और मैं


- इंदु बाला सिंह
आकाश सा धीर स्थिर इंसान कभी न देखा मैंने
कुछ भी बोलो ..... ख़ामोश हो सुनता रहता है ....
गुस्से से अगर चीख कर बोलो तो लौटा देता है वह
मेरी बात ;
कभी मिलना तुम भी मेरे मित्र आकाश से ।

ललाट का लेखा

मार्च -18


-इन्दु बाला सिंह
मन भटकता है
और
उसके संग संग तन .....
न जाने कैसे भीड़भाड़वाला शहर पल भर में वीरान बन जाता है .......
जिंदगी भी ग़ज़ब की चीज है
मिली तो बेकार लगी
न मिली तो भी बेकार लगी
शायद भटकने की सामर्थ्य ख़त्म होते ही महसूसने की ताकत ही ख़त्म हो जाये
बूंद सी गिर जाऊँ .... मैं कहीं
मोती बनूँ
या
मोती सी चमकूँ किसी फूल या किसी दूब पर .....
शायद किससे रेगिस्तान में गिर मिल जाऊँ बलुआही धरा पर ...,.
जो लिखा था ललाट पर
पढ़ न पाया कोई ग्यानी
भटकते भटकते ही मिट गया इंसान .....
बस पदचिन्ह छोड़ गया ।

एक देश


-इन्दु बाला सिंह
कर्तव्य से सदा दूर रखा कामना को
पर निगोड़ी आशा आ जाती है कभी कभी मेरी बालकनी में
और खींच लाती है कामना को संग अपने .......
वो पल बड़ा दुखद होता है ।
निर्मोही होते ही हम मुक्त हो जाते हैं
यही आनंद की पराकाष्ठा है
दुख से परे एक देश होता है .....
यहाँ हम अकेले ही जीवन का हर सुख भोग लेते हैं ।

वाइरस

#कोरोना वाइरस
Indu Bala Singh
उस दिन भी कर्फ़्यू था ......
न जाने क्युं एक भी ऐम्ब्युलन्स की आवाज़ न गूंजी थी
शायद उस दिन कोई बीमार न हुआ था ।

जीवन व्यापार है


-इन्दु बाला सिंह
बड़ा कठिन होता है कटना दिन का
निर्भरशील अकेले का ......
हाथ पैर और सेहत ने साथ छोड़ा
बेचैन अकेलापन.. आर्थिक निर्भरता ... गुमनामी ...
काश फूल सा जीवन होता
सुबह खिलते और शाम गिर जाते धरा पर.....
कौन कहता है ... मानव जीवन अनमोल है
जिसने भोगा उसने जाना
वरना
सब व्यापार है ।

कामगर का देश


- इन्दु बाला सिंह
मेरा देश कौन सा है
परदेस कमाने गया इंसान
राज्य की सीमा पर बैठा सोंच रहा है ....
कामगर के माता - पिता , भाई - बहन , पत्नी , बच्चे मोबाइल पर खबरें देख कर परेशान हैं
वे सब राह देख रहे हैं उसके लौटने का ....
भिखारी सा वह ताक रहा है
सामने स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा बाँटने को रखे खाना के पैकेट को .....
इस करोना वाइरस ने तो उसे खुले आसमान के नीचे ला दिया है
एक पल उसे अपने छोटे से घर से उसका इंतज़ार करती आंखें याद आती हैं
उसके मन में एक जीवनी शक्ति जाग जाती है ।

खुशहाल इंसान


-इन्दु बाला सिंह
जेब खाली है
हंस ले न यार ......
कोरोना ने बंद कर दिया है घर में
हंस ले न यार ......
राशन नहीं है घर में
हंस ले न यार ......
अब बच्चे मान नहीं देते
हंस ले न यार .......
और एक दिन वह गुजर गया
मित्रों , रिश्तेदारों की जबान पर एक ही वाक्य था .....
बड़ी खुशहाल ज़िंदगी जिया वह ।

प्रवासी

- इन्दु बाला सिंह
लॉक डाउन हो गया
अरे ! फ़ैक्टरी लॉक हो गयी
रेल लॉक हो गयी
बसें लॉक हो गयीं
पर पेट न लॉक हुआ .....
अपने याद आने लगे
गाँव याद आया
मुहल्ले की सड़कें याद आयीं .....
कोरोना तूने सभी बिछड़े पल याद दिला दिए ....
अब रोशनी की चाह नहीं
सब प्रवासी मज़दूर अपने गाँव की ओर बढ़े
मुझे बंगाल का अकाल याद आने लगा ......
कोरोना ने धीरे धीरे पैर पसारा
प्लेन बंद हुये
कंपनीं में छँटनीं होने लगी
कैम्पस प्लेसमेंट में मिली नौकरियाँ ख़त्म हो गयीं
बैंकों से लोन ले के पढ़ें विद्यार्थी घबड़ा गये
आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा ....

ऊँचाई


-इन्दु बाला सिंह
पहाड़ की चोटी पर पहुँची
दुनिया बड़ी खूबसूरत थी
बादल पास थे
नीचे कठपुतलियाँ चल रहीं थीं
एक पल को लगा ... यही तो स्वर्ग है
भूख लगी
फल खाने को मन किया
और
मैं भी कठपुतली बन गई।

आँख के आंसू


- इन्दु बाला सिंह
आंसू के सूखते ही आँखों से चिंगारी निकलती है .......
बचा के रखना आंसू अपने
वरना
शिव तांडव करेंगे .....
दुनिया निर्जीव बन जाएगी ।

मजदूर


अब न जाऊँगा
मैं
रोजी रोटी के लिये कभी भी विदेश ....
अपना देश भला
यहीं कमाऊँगा
मिल बाँट के खाऊँगा ......
कोरोना से भी न सीखा
तो क्या खाक सीखा मैंने .....
मिट्टी में मिले
शहर की जगमग .....
अपनी देहरी क्या छूये
स्वर्गानुभूति मिली
हमें .....
समय ने आइना दिखाया ।

प्रवासी मजदूर की वापसी

#कोरोना
05.05.20
- इन्दु बाला सिंह
देश विभाजन ने रक्तपात देखा था ...,
हम पढ़ते हैं उसे अपनी इतिहास की किताब में .....
आज
अपने राज्यों में लौटते मजदूर परिवारों की पीड़ा भी याद रहेगी हमें ......
इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जायेंगी कोरोना काल के प्रवासी मजदूरों की त्रासदी .....
हमारी आनेवाली पीढ़ी इस त्रासदी को पढ़ेगी और महसूसेगी ।

कोरोना एक अनचाहा अतिथि


03.05.20
-इन्दु बाला सिंह
कोरोना !
तुम मेरे मित्र हो
एक बहुत ही अच्छे मित्र हो
मैं तुम्हें पसन्द करती हूं
मैं तुम्हें दूर से ही देख कर खुश हूं .......
तुम बहुत ताकतवर हो
तुम्हारे कारण ही मुझे घर में बैठ कर आफिस का काम करने की आजादी मिली है ....
मैं अपने बच्चोंऔर अपने रसोईं के निकट हूं
मेरी दोस्ती अब इंटरनेट से हो गयी है
हर शाम को अपने विदेश में बसे मित्रों से वीडियो चैट करती हूं .... नाचती हूं .... गाती हूं
कोरोना !
बहुत धन्यवाद तुम्हारा
तुम मेरे घर कभी न आना ....
पर अपनी ताकत पर घमंड न करना
बहुत देर तक मत रहना इस धरती पर
वरना बहुत जल्दी तुम्हें यहां से भगा दिया जायेगा
अतः तुम खुद लौट जाओ
मैं और इस धरती का हर निवासी तुम्हारी याद मन में रखेगा ....
और
हर पीढ़ी अपने आनेवाली पीढ़ी को तुम्हारी कहानी सुनायेगी ।

पिंजरे में गाती थी वह


- इन्दु बाला सिंह
पिंजरे में बंद चिड़िया ने चहचहाना न छोड़ा ......
उसे आशा थी
एक दिन वह आजाद हो जाएगी
उसे उड़ने को आसमान मिलेगा .....
और
तब तक उसे जिंदा रहना है ।

अधीन


-इन्दु बाला सिंह
वह
ताड़ का पेड़ था
छांव नहीं देता था .......
पर
फिर भी वह उस के नीचे खड़ी थी ......
वहाँ उसके पेट की भूख मिटती थी ।

भींगी बरसात


May 24 Shared with Public

- इन्दु बाला सिंह
काले बादल आये
चूमने
अट्टालिकायें
धरा का मन भींगे ......
बाग के फूल नहाये
झरोखे से बरखा झांके
बालमन .....बालकनी में भींगना चाहे
कोविद ने
बांध रखा मुझे कमरे में ।

जीवन दिशा की तलाश


-इन्दु बाला सिंह
दोनों बच्चों के बीच पेंडुलम की तरह घूमती उसकी ज़िंदगी आखिर एक दिन स्थिर हो गयी......
उसके दोनों बच्चे अब भरे पूरे हो गये थे
बाल बच्चेदार हो गये थे .....
और
अब वह अपनी नयी जीवन दिशा की तलाश में लग गयी।

कवि कायर है


-इन्दु बाला सिंह
कवि कभी इसके गम में रोता है
तो
कभी उसके गम में ....
अपने गम में तो वह हतप्रभ रह जाता है
शायद उसमें खुद का मन खोलने के सत्साहस का अभाव रहता है
आज न जाने क्यूँ लग लग रहा है .....
कवि कायर होता है

सपने अपने नहीं

17/06/20
11:49

-इन्दु बाला सिंह
सपने
हमारे दिल में बसते हैं
हमारे साथ साथ चलते हैं
वे सदा हमारे कंधे पर सवार रहते हैं ........
हमारे कंधे कमजोर होते ही हमारा दिल मरने लगता है
और सपने हमारे कंधे से उतर हवा में समा जाते हैं
पर हमारा दिमाग़ हमें हमारे उचित स्थान पर पहुँचा ही देता है ।

गजब मन


08:47
20/06/20
-इन्दु बाला सिंह
पार्क सूना है तो क्या है
पेड़ पौधे तो साथ हैं
कोई हो न हो
फूल , शूल तो साथ हैं
ये पांव के नीचे की ज़मीन मेरी है
दूर तक दिखता आकाश मेरा है
उड़ते पक्षी के संग संग मन उड़ता है
अकेले हैं तो क्या हुआ
तुम्हारी ख़ुशियाँ और दुःख तो मेरा है ।

खाना चाहिये


07:55
21/06/20
-इन्दु बाला सिंह
खाना चाहिये मुझे
देह दूरी मेरे काम की नहीं
कोरोना से न लागे डर............
पेट की आग
और
बच्चों की आशा भरी भूखी निगाहें डराती हैं मुझे........
गेट का कालिंग बेल बजा के अपने बच्चे के लिये खाना माँगा
मिली गालियाँ
साली सब आ जाती हैं ...माँगने ....बच्चे के लिये खाना... पैदा करते समय नहीं सोंचा था कि कौन खिलायेगा खाना.... कोरोना ढोती फिरती हैं कमीनियाँ
मुझे तो खाना चाहिये
अपने अपने बच्चों के लिये
ऐसे ही कितने मकानों के बनते समय मैंने ही तो बेलचा से बालू में सीमेंट मिलाया था ....मसाले की कढ़ायी अपने सिर पर धोया था और मेरे यही बच्चे बालू की ढेरी पर खेलते रहते थे .......
दिमाग सुन्न है
कोई नहीं सुनता किससे कहुं ?
मेरा मर्द तो भगोड़ा निकला ।