पहुंचा के
यहां
गुमे तुम कहां
ओ पिता !
कुछ पल दिखे
फिर गायब हुए
तुम्हारी
उपस्थिति
हर पल महसूस
होती
मुझे न भाये
ये जहां
मैं चली बनाने
निज मुकाम
निज सुख दुःख
की साथी केवल मैं
तेरे संस्कार
को छननी से छान लिया मैंने
मूल तत्व गहि
लिया आज
मैं न रुकूं
आज
ये लो चल पड़ी
मैं आज
तुम्हारा बेटा
न सही पर तुम्हारा प्रतिरूप हूँ मैं
तुम्हारी
अतृप्त अभिलाषाएं मैं करूंगी पूरी
तुम्हारी
कमजोरी को आज मैं सबलता बनाने चल पड़ी |
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