शनिवार, 27 जुलाई 2013

बेटी हूँ तो क्या हुआ !

पहुंचा के यहां
गुमे तुम कहां
ओ पिता !
कुछ पल दिखे
फिर गायब हुए
तुम्हारी उपस्थिति
हर पल महसूस होती
मुझे न भाये ये जहां
मैं चली बनाने निज मुकाम
निज सुख दुःख की साथी केवल मैं
तेरे संस्कार को छननी से छान लिया मैंने
मूल तत्व गहि लिया आज
मैं न रुकूं आज
ये लो चल पड़ी मैं आज
तुम्हारा बेटा न सही पर तुम्हारा प्रतिरूप हूँ मैं
तुम्हारी अतृप्त अभिलाषाएं मैं  करूंगी पूरी
तुम्हारी कमजोरी को आज मैं सबलता बनाने चल पड़ी |

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