रविवार, 29 नवंबर 2015

हम गुलाम हो गये गाड़ियों के



-इंदु बाला सिंह

पांव ने छोड़ दिया
साथ हमारा ......
बहुत याद आती   हैं सड़कें
जहां से
गुजरे  थे हम पैदल गाड़ी के भाव में.........
खाली थी जेब
तो क्या हुआ
आतुर थे
हम
लिखने को अपना नसीब..........
 वे
राजसी पल  छूट गये
और
हम गुलाम हो गये
गाड़ियों के । 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

शायद यही नरक भोग है



-इंदु बाला सिंह

बिस्तर में पड़ी रहती है वह .........
वह  बुजुर्ग महिला
बोल नहीं सकती
सुन नहीं सकती
चल नहीं सकती
उसे उठा कर बाथरूम ले जाना पड़ता है ........
अस्पताल में भर्ती करने के लिये
चाहिये पैसे
फिर देखभाल के लिये चाहिये एक नर्स
कहां से आये  पैसे !
घर की युवा महिला सदस्य नौकरी करती है ........
सुन कर
पड़ोसन  मुंह से
एक बुजुर्ग की त्रासदी
दुखित  हो गया जी.........
शायद यही नरक भोग है । 

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

न बंधूं मैं


27 November 2015
08:57

-इंदु बाला सिंह


क्यूं बंधूं  मैं
हवा हूं
बहुंगी
झाड़ियों से धीरे धीरे निकलूंगी
रुकुंगी
बार बार जन्मूंगी
और
मिलूंगी तेरी मिट्टी में
ओ री धरा !
न बांटना मुझे किसी घर में
न दान करना मुझे
तेरी थी
सदा तेरी ही रहूंगी |

सत्य न जाने क्यों बढ़ता ही नहीं


27 November 2015
07:49


-इंदु बाला सिंह


न जाने कब और कैसा बीज पड़ा
कि जन्मे
जुड़वां
सत्य और चोरी
जब से होश सम्हला है
परेशान है सत्य चोरी से ........
चोरी दिखती नहीं
पर
कहीं न कहीं यह अपनी उपस्थिति
दर्ज करा
अपने जीवित होने का प्रमाण दे ही जाती है ........
कभी यह निकम्मे के पीछे छुपती है
तो
कभी लालची के पीछे
और
बढ़ती ही जाती है
उंची होती ही जाती है |
सत्य छोटे बच्चे सा ठुमुक ठुमक चलता रहता है
जो भाता मन को जरूर है
पर
कितना भी इसे बाढ़ की टानिक पिलाया जाय
पर
यह न जाने क्यों बढ़ता ही नहीं |

बुधवार, 25 नवंबर 2015

तुम इतनी श्रीहीन क्यों हो


26 November 2015
07:24


-इंदु बाला सिंह


1987 में लिखी गयी थी



केवल खाना कपड़ा पर काम करनेवाली
ओ री व्यवस्थापक !
मातृत्व के बल पर तुम इज्जतदार हो .....
घर की महत्वपूर्ण समस्यायें समझी जाती हैं .............सुलझायी जातीं हैं
केवल मर्दों द्वारा ..........
तुम खुश हो
तुम्हारे पास अपना मर्द है ....बेटा है ........ छोटा भाई भी है
तुममें
बात समझने की
निर्णय लेने की क्षमता नगण्य क्यों है ?
तुम तो शक्ति पुंज हो ...........प्रकाश स्तम्भ हो
तुम इतनी श्रीहीन क्यों हो |

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

गमकाती हूं


24 November 2015
13:09


-इंदु बाला सिंह



डाल दी है राख मैंने
तेरे दुर्गुण पे ........अपने जी के सुलगते अंगारे पे
तू सामने नहीं
तो
क्यूं बांटू मैं
आज
जी में संचित कड़वे रस का चटखारापन.............
बीते समय के 
बाग़ से
मैं चुन लाती हूं
हर दिन
तेरे एक एक सद्गुण के फूल
और
उन से गमकाती हूं
मैं
अपना मुहल्ला ..........
मित्रों में
रोशनी बिखेरती हूं
अपनी
मुस्कुराहट की |

रविवार, 22 नवंबर 2015

गुरु बनाओ औरत को



-इंदु बाला सिंह

व्रत उपवास से पुण्य कमाना
रो  रो के गम का पहाड़ पिघलाना
सीखना है तो
आओ
गुरु बनाओ
औरत को । 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

वह बड़ी उम्र की थी



-इंदु बाला सिंह


वह
अकेली थी
बड़ी उम्र की  थी
मकान  मालकिन थी
बिल्डिंग में उसे दादी कह कर बुलाते थे
पर
वह मोटी चमड़ीवाली थी
या
दिल से  दबंग
पता  नहीं
ब्याह के  मंडप पे
उसी की कामवाली ने
नहीं बुलाया था ………
ब्याह  गीत जब  गाने लगीं औरतें
तब वह खुद को रोक न सकी
और
बैठ गई मंडप के सामने
अपने  दरवाजे पे.......
देखने लगी
ब्याह की रस्में
नहीं  बुलाये तो क्या हुआ  ...........
यह कैसा रिवाज है
अकेली औरत को  न पहचानने  का
ब्याह की  रस्मों के समय । 

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

वह बिटिया अभी भी नहीं गई क्यों ?



-इंदु बाला सिंह


पीछे के मकान  से ब्याह के गीत के बोल फूटते ही
पड़ोस के बंद घर के बरामदे में
न जाने क्यों आ खड़ी होती है पड़ोसी की फ्रॉक पहनी  डेढ़ वर्षीय बिटिया .....
कभी कभी तो वह  अपनी माँ का चप्पल पहन  चलने लगती है
माना कि बिटिया का अंतिम कर्म निपटा  घर छोड़ दिया है पड़ोसी ने
पर उनकी वह बिटिया अभी भी नहीं गई है
ऐसा क्यों ?

बुधवार, 18 नवंबर 2015

वह सजा देगा तुम्हें



-इंदु बाला सिंह
ईश्वर के नाम पे डरानेवालो !
ईश्वर गर है
तो
वह सजा  देगा
जरूर
तुम्हें ।  

भाई की दबंगई


18 November 2015
13:24
-इंदु बाला सिंह


छत पर से
छुपके
फेंकता था गिट्टी के टुकड़े 
छोटी बहन का भाई
बहन की मित्र मां बाप की एकलौती सन्तान के छत पे
और डर के
कहा करती थी मित्र -
न जाने कौन मेरी छत पे रोज दोपहर में फेंकता है पत्थर |
जान के भी अनजान बनी रहती थी
छोटी बहन
शायद
वह आनन्द उठाती थी
अपने भाई की दबंगई का  |

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मैं बावरी हतप्रभ खड़ी


18 November 2015
09:45
-इंदु बाला सिंह


गलत सही ना कुछ इस जग में
सही है बस  पैसा ..........
पैसे की न जात .....न रंग .....न धर्म
पैसा तो
सर पे चढ़ के बोले
जी हजूरी कराये
वक्त के संग मिल कत्ल  करे..............
पैसे को कोसें
सब 
अपने ड्राइंग रूम में  
और पूजें बेड रूम में 
मैं बावरी हतप्रभ खड़ी
देखूं
रंग बदलती औरतें .........सफेदपोश मर्द ......पूतोंवाली निपूती माता |

सड़क सुधारेगी उसे


18 November 2015
07:13

-इंदु बाला सिंह


दिमागवाली लड़की को
छोड़ दिया मैंने ..........
पैसा कमाना इतना आसान नहीं
सड़क सुधारेगी  उसे .....
लड़की और कुत्ता पट्टे में जंजीर लगने पर  ही प्यार पायें |

रविवार, 15 नवंबर 2015

उठ खड़ा हो


16 November 2015
12:36


-इंदु बाला सिंह


ओ रे मित्र !
किस गम में टूटा तू
जगा चेतना
उठ
खड़ा हो
कि
कर्तव्य रहा तुझे पुकार ........
देख जरा तू अपने  हाथ
ये ही तो तेरे सुख दुःख के साथी
तुझे खिलायें ..........पोंछे ..........तेरे आंसू
उठ साथी !
सार्थक कर
अपना मानव जन्म .......
कुछ नया कर
कुछ बीज दे जा इस जग को
लहलहाएगा तू जरूर ...........निस्सीम आकाश के नीचे |

शनिवार, 14 नवंबर 2015

क्या छुपाये तुम दिल के अंदर


15 November 2015
07:53

-इंदु बाला सिंह


समन्दर !
क्या छुपाये तुम दिल के अंदर
क्यों हो तुम क्रोधित ...........उफन उफन डराते ..........
रात में
तुम आ जाते
मेरी बंद खिड़की पे
हो ओ ओ ...... हो ओ ओ ...........हड्म हड्म ......
डराते मुझे ..........
मैं तो तेरी मुग्धा
सुबह ....... शाम ........सूर्य की किरणों संग तुम सोना बिखेरते
दिन भर तुम क्या करते ?
ओ समन्दर !

आज तुम बतला ही दो न |

पूतोंवाली निपूती


13 November 2015
19:41


-इंदु बाला सिंह


बारी बारी से आते
दो पूत सपत्नीक तीन साल में
एक बार
कोई दो दिन रहता
तो
कोई दस दिन
एक दिन दोनों परिवार मिलते
माँ का ख्याल रखते
समाज की प्रशंसा पाते
फिर
लौट जाते अपने अपने देश ..........
पूतोंवाली
अकेली माँ
सदा की तरह अकेली ही रह जाती ..........
वह आंसू बहाती
कामवाली से पूतों का गुणगान करती
सदा की साथिन
सहारा बनी ...अकेली बिटिया ....तानों के थपेड़ों में झूलती
उपेक्षा का अपमान झेलती
रात्रि की शीतलता में जीती ........साँसें लेती
और
समय के तूफ़ान में अपनी जीवन नाव खेती ........
ये कैसा जीवन पाया तूने
ओ री बिटिया !
कौन सी आग जल रही थी तुझमे
जो तेरा पथ प्रदर्शित कर रही थी तेरे मन का
क्या था तेरे चित में ..........
शायद
अपमान की आग ही इंधन थे
तेरे जीवन के राकेट की सुतली के 
और लम्बी समय की सुतली .........धीरे धीरे सुलग रही थी .........
यह कैसा विधान है विधाता का
कि
बिटिया न मैके की
और
न होय ससुराल की
समय के झूले में झूलती........अपनी पहचान ढूंढती ........
क्या खूब पराकाष्ठा थी जीवन की
कि
पूतोंवाली निपूती माँ भी अपना अस्तित्व भूली रहती .......
पड़ी रहती हर पारिवारिक उत्सव में
अपने कमरे में ......सजी धजी .......अपने स्वजनों की भीड़ में अकेली |






शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

रिश्ते




- इंदु बाला सिंह

इतने स्वार्थी कैसे बने तुम
पुत्र प्रेम में
कैसे इतना डूबे तुम
हैरत है ...........
अपने कर्तव्य पथ से च्युत हुये
और
अपनी दी जबान से विमुख हुये
न जाने किस विद्यालय में पढ़ कर तुम बड़े हुये
आज सोचूं मैं
तुम ही तो रख चुके थे नींव
स्वार्थ के महल का
जिसे पूरा किया तुम्हारे बेटों ने
और
रिश्ते कुम्हला  गये । 

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मौन मन




- इंदु बाला सिंह



कल
तुम बोलते थे
अपने निकम्मेपन को भूलते थे
तृप्त होते थे
मुझ पे लांछन लगा लगा के
आज
तुम चुप हो
मैं तो कल भी चुप थी
और
आज भी चुप हूं..........
औरत बोलती है
तो
इतिहास करवट लेता है.………
भूगोल की पढ़ायी  सदा  राह दिखाये
अंतरिक्ष उन्मुक्त करे मन
आज मौन मन चाहे डालना
 दाना
चिड़ियों को
और
हराना
चिड़ियों को नभ में ।

माता और ब्याहता पुत्र



- इन्दु बाला सिंह


पैसे की गर्मी
बढ़ी  ऐसी
कमाऊ पूत पे
कि
चढ़ी
चर्बी आँख पे ...........
दिखायी न दें
वृद्ध पिता
न आये पहचान  में
लो भई अब तो अपनी माता ..........
ब्याहता बिटिया की शिकायत कर कर हारी माँ
पर
जीत न पायी मन
अपने पुत्र का...........
मुहल्ले में प्रसंशा कर कर हारी
पुत्र प्रेम में अंधी
वृद्धा माँ
पर
द्रवित  न कर पायी मन अपने पुत्र का..........
ये कैसा संबन्ध बनाया
ओ दयु !
तूने
आज
माता और  ब्याहता पुत्र का ।

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

शौक से देखेंगे हम



-इंदु बाला सिंह

आज जंग है
अंधकार से दीये के प्रकाश की
शौक से देखेंगे हम
अँधेरे का दम
और
चमकते
जुगनू  भूखों की आँखों के । 

बंटी मिठाईयां



- इंदु बाला सिंह

तुम रोये
मैं मुस्कायी
बंटी मिठाईयां ...........
तुम मुस्काये
खुशबू उड़ी दूर तक
अंगड़ाई ली आशा ।  

स्नेह डालना न भूलना



-इंदु बाला  सिंह


नारी मन है लौ
एक अकेले  दीपक की
जलती
रौशन होता उसका अपना घर ...........
लौ
है आशा
हर भटके मुसाफिर की
जो
कभी मंद जलती
तो
कभी भभकती
यों लगता है अंतिम पल अब उसका ..........
दीये  में है जबतक तेल
तबतक  तो लौ मौन जलेगी ...........
स्नेह डालना न भूलना गुजरने से पहले
ओ भटके राहगीर ।

रविवार, 8 नवंबर 2015

लड़कियों का आरक्षण



-इंदु बाला सिंह

कमाऊ मर्दों के
अपने काम पे जाते ही
औरतें
निकल जातीं हैं घर से बाहर
बतियाती रहती हैं
अपने मर्दों के घर लौटने तक ...........
मैं न समझ पायी
आज तक
उपयगिता लड़कियों के आरक्षण की
विद्यालय या कालेज में ।

शहर और गांव कितने दूर



-इंदु बाला सिंह

आज वह छोटा है
कल बड़ा हो जायेगा
रिलेशन बना रहना चाहिये -
शहर ने सपाट चेहरे से कहा
गांव तैश में था -
उसकी इतनी हिम्मत !
भिखारी कहीं का !
खाने को अन्न नहीं घर में !
अपने कर्म भूल गया वह ?
अरे ! किस घर का लड़का है ! इतिहास याद रखा होगा  वह  जरूर । 

शनिवार, 7 नवंबर 2015

दुःख चुपचाप दुबका पड़ा था



-इंदु बाला सिंह

पल भर में गुजर गयी
वह मां के पीछे पीछे डुगुर डुगुर चलने वाली बिटिया
स्तब्ध रह गयी मैं...........
अस्पताल पहुंचने से पहले ही  निर्जीव हो चुका था
उस बिटिया का  शरीर
और
अब बाकी रह गईं थीं
रीति ...........
दुःख चुपचाप दुबका पड़ा था
कहीं कोने में ।


कुछ पल बाद याद आयी मुझे
तीन दिन बाद आनेवाली दीवाली । 

सोमवार, 2 नवंबर 2015

आज भी खुश है वह बिटिया


03 November 2015
09:57

-इंदु बाला सिंह

बिटिया को देखा जो पिता बने
ऐसी बहायी हवा उन्होंने
कि
बना दिया है उसे
आज 
अपाहिज
पर
आज भी खुश है वह बिटिया
याद कर के
अपना पितृत्व |

रविवार, 1 नवंबर 2015

श्रोता कामवाली




Mon 2 Nov 9 : 29 : am


- इंदु बाला सिंह



नानी तो है झूठ की गठरी
जब खुलती
उसमें  से  निकलते
अजूबे किस्से
जिसे  सुनती
गाल  पे रख के हाथ कामवाली
आखिर बातें सुनने के ही तो पैसे मिलते उसे
छोड़ के अपने बच्चे
अपनी बस्ती में
सुबह से शाम तक डटी रहती मालकिन के घर में
और
मुक्त रखती
वह
बहुरानी को
दिन भर के सिरदर्द से । 

कूद पड़ी थी वह बिटिया



Mon 2 Nov  7 : 56 : 07

-इंदु बाला  सिंह


चौके में
जूठे बर्तन के पास आंगन में
गंदे कपड़े के पास बाथरूम में
मातृत्व को साकार करती
माँ के पीछे पीछे चलती
बिटिया ने
होश सम्हाला
आफिस में
अपने जीवन साथी के घर में
सड़क पे
और देखते ही देखते
आ गयी तलवार हाथ में
कूद पड़ी थी
वह बिटिया जीवन युद्ध में
जीतने को
अपना अस्तित्व ।