सोमवार, 29 अप्रैल 2013

बदलाव


पिता नहीं बदलते
पुत्र बदल जाते हैं समय के साथ
पुत्री का कन्यादान
पुत्र को सम्पत्ति का मालिक बना मुक्त हो जाते हैं  
अपने पिता की तरह ..
पुत्र निभाएगा न रिश्तेदारी उनकी तरह
बहन का सुख दुःख बांटेगा
पर
आज तो लड़की लड़का की बराबरी का युग हैं
वह क्यों ढोए बहन का रिश्ता
पिता ने समान सम्पत्ति की मालिकाना के तहत
वारिस बेटी को न बनाया
यह पिता का दोष था उसका नहीं
बहन का कष्ट उसका अपना भाग्य है |

रविवार, 28 अप्रैल 2013

औरत का जीना


  
कितना सहज होता जीना
हर मुसीबत में
किसी पुरुष रिश्ते के पीछे छुप जाना
औरत हूँ न
जीने के तरीके न सीखूं
तो भला जीयूँगी कैसे
इस पुरुष सत्तात्मक समाज में आज |
कोई घर में चंदा मांगे
...साहब घर पर नहीं है ..
कोई उधार पैसे मांगे
..सब पैसे तो घर में खर्च हो जाते हैं ..
आफिस में थोड़ा अधिक समय काम से रुकना पड़े
...साहब गुस्सा होंगे ..
सस्ती साड़ियां पहनूं
...साहब को आडम्बर पसंद नहीं ..
अगर साहब नहीं तो भाई , पिता ,चाचा , मौसा
कोई न कोई रिश्ता तो हैं न |
पर भला ऐसी औरत को कोई उच्च पद क्यों दे
जो समस्या का सामना न करे
सदा किसी न किसी के पीछे छुपती रहे |

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

नैतिकता का सर्प


सपनों के चूर चूर होते ही
आदमी यथार्थ के धरातल पर आ खड़ा होता हैं
तलाशने लगता है जीने के नये बहाने
कुछ ही पल में
नैतिकता का कुंडली मार बैठा उसके अंदर का सर्प
फनफना कर खड़ा हो जाता है पूँछ के बल
उसके सिर पर फन फैला कर
अद्भुत रूप से छाया देने लगता है उसे |

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

समझदार माता पिता


बच्चों से बड़ा मीडिया कोई नहीं
हर घर से टेलीफोन टेलीफोन के खेल में
सारे शहर में बात फ़ैल गयी ...
सर की लड़की गुम गयी ...
राह चलते लोगों में खुसपुसाहट होने लगी
रही सही कसर अखबार ने गोलमोल बात लिख कर पूरी कर दी
बुद्धिमान पहुँचवाले माता पिता ढूंढ भी लाये अपनी बेटी
वैसे भीड़ की याददास्त कम रहती है
लोग इस खबर को रद्दी की टोकरी में फेंक दिये
और भूल गये |

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

असह्य अवगुण बेटियों के


समानता ने मिटा दिया है
बेटी बेटे में फर्क
अच्छाइयों के साथ समेट रही हैं
बुराइयाँ भी बेटों की अपने में
आज बेटियां |
सहज ही लगता है बेटियों को
हमबिस्तर होना नौकरों के साथ
अपने से कम प्रतिभाशाली पुरुष को
जीवन साथी की मान्यता देना |
परिवार के गले नहीं उतर रहे ये अवगुण बेटियों के
और घर में ही जन्म लेता है अपराध
मिट जाती हैं स्वतंत्र मुक्त अस्तित्व वाली बेटियां
कानून के साथ समाज के संकुचित विचार न बदले
बेटी की समानता क्रोधित करता है
खून के दूर के रिश्तों को
बेटियों को हर पल सुरक्षा चाहिए अपनों की , कानून की और समूह की
क्या समानता की प्रगतिशीलता के नाम पर
अपनी बेटी का शोषण कर उसे मिटाने की
एक क्षद्म चल नहीं चल रहे हम !
क्यों नहीं हम क्षमा कर पा रहे
अपनी बेटियों के अवगुण
क्यों नहीं सही राह पर ला पा रहे हमे उन्हें
क्यों नहीं बदल पा रहे हम खुद को !

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

पिया है प्याला अमरत्व का


मेरी तलवार चमचम करती
मैं हूं मस्तानी
पिया मैंने अमरत्व का प्याला
मैंने भी सीखा है छल , रण कौशल कोख में
न आना राह में मेरे
मैं हूं क्षत्राणी
निकल पड़ी है हर घर से फौज मेरी
कल  प्रलय का दिन  है
काटूँगी मैं हर भ्रष्टाचारी , बलात्कारी , मदांध को
तृतीय नेत्र खोल निकली मैं
पीने को आतुर आज तलवार मेरी रक्त का प्याला
तनिक विश्राम करने दे मुझे
आज की रात
अब भी मौका है
तू सम्हल जा
मैत्री सन्देश भिजवाया है
मानना है तो मान
वरना कल मिलते हैं मैदान में |

बेच रही मैं चादर


प्रथम पुरुष पिता
तूने मुझे गट्ठर बना दान किया
द्वितीय पुरुष को
नाम कमाया
पर द्वितीय पुरुष से लूट लिया गट्ठर को तृतीय पुरुष ने
आज वह गट्ठर लुट गया है
मैं खड़ी हूं बाजार में
बेच रही हूं अपनी चादर के टुकड़े
पेट भी तो भरना है न |

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

मिट्टी की खुशबू


रोजी रोटी की तलाश में
हम अपना प्रान्त छोड़ देते हैं
एक नयी दुनिया बसा लेते हैं नये प्रान्त में
अपनों से दूर
कट जाता है हमारा जीवन
पर दे जाते हैं अकेलापन अपनी औलादों को
जो आजीवन छटपटाते हैं
अपनी मिट्टी की खुशबू के लिए
और अकेले रह जाते हैं
अपनों से दूर
अपने रिश्तों में ह
इतनी दूरी बन जाती है
आपस की  खाई पाटे नहीं पटती |

नारियल का पेड़


चुपचाप आ कर बैठ जाती है याद
जब हम अकेले बैठे होते हैं
और हमसे बतियाने लगती है
धीरे धीरे खाली ऊसर मन में
कभी सुगन्धित फुहारें पड़ने लगती हैं
तो कभी आंधियां आ जाती है
और बरबस निगाह सामने के नारियल के पेड़ पर चली जाती है
कितना ऊँचा है ये !
पिछले दिन की आंधी ने कितने घने बड़े पेड़ों को पटक दिया
पर यह पेड़ खड़ा है
गर्मियों में हमें छांव नहीं देता तो क्या हुआ डाब तो देता है
हमारी जलन शांत करता है
यादों के शहर से निकाल लाते हैं
हमें हमारे पेड़
अगर पेड़ न होता हमारे घर या पड़ोस में तो ?

ऊँचाई का सुख


अपना बेटा जब विदेश गया बसने
बड़ा दुखी हुआ वह
और उसी समय उसके मस्तिष्क में कौंधा
अपने किसान पिता का चेहरा
कितना भावहीन थे वे
जब वह अपनी पत्नी के साथ गाँव से निकला था
शहर में अपनी गृहस्थी बसाने
गाँव के लिए तो शहर ही विदेश था न !
उसने एक गहरी सांस ली
उसका बुढ़ापा तो सविधाओं के बीच कटेगा
पर उसके पिता ने तो अभावों से ही जी लगा लिया था |

बेटी का शोषण


पिता और पति के न रहने पर
जब देवर या अपने से छोटे भाई का राज हो जाता है
उसके अपने घर में
तब होश आता है लडकी को
अरे ! मेरा तो कोई अस्तित्व ही नहीं
घर तो पुरुष सत्तात्मक है
और तब आक्रोश पैदा होता है
चेतना जागृत होती है
दुखी होने लगती है
पिंजरे के पंछी सी छटपटाने लगती है
वो
लड़की तो बस हंसती खेलती बड़ी हो जाती है
जेवर व भारी जरीदार  साड़ियों का तिलिस्म
कितना मस्त होता है
विद्यालय और बड़े क्यों कतराते हैं
लड़की को समझदार बनाने से
उसे अबोध ही बने रहने देना चाहते हैं
क्या हम अपनी बेटी का शोषण नहीं कर रहे ?

बूढ़ी माँ




माँ एक सामान बन गयी थी
पिता की मृत्यु के बाद
माँ का सिक्का थोड़े न होता है
कि वो चलेगा
माँ तो पूजनीय है
मूर्ति है
वैसे घर की मूर्ति को भी कौन पूजता है
मन्दिर में पूजा करने से
लोगों को दिखता है
अहा ! कितना श्रद्धालु है
नाम होता है
घर में कौन आ कर देखता है
अरे भई ! मेरा सामान है
चाहे जहां रखें वृद्धाश्रम में या घर में
चाहे जैसे रखें
आप अपना काम देखिये
पिता के  मकान , किरायेदार , नौकर - चाकर घर का राशन पानी
भला अब कौन देखेगा !
माँ को अपने पास नहीं रखे हैं तो क्या हुआ
सड़क पर नहीं फेंके हैं न
जिन्दगी भर पति के अनुशासन में रहने वाली माँ
कानूनन पूरे धन की मालकिन
देखते दखते मित्र हीन 
माटी का लौंदा बन गयी |

ओ ! पिता !


क्या करें !
दामाद कार एक्सीडेंट में गुजर गये
ला कर रखा हूँ घर में
लड़की का एक बेटा है पढ़ता है स्कूल में
बड़े घर में लडकियां नौकरी नहीं करतीं
शहर में अकेली  लडकियों की भरमार है
सब पिता के घर में पिता पर आश्रित हैं
कोई दहेज के कारण
तो औलाद न होने से पति के पुनर्विवाह के कारण
कोई कोई तो पति के निकम्मे होने के कारण
विभिन्न कारणों से लडकियां पिता के घर में रह रही हैं
पर ऐसा कब तक ?
पिता के न रहने पर !
इन लडकियों का क्या होगा ?
ये ऐसी गुमराह सजीव मूर्तियाँ है
जो देश की नगण्य नागरिक हैं
जिनका भविष्य अपमानजक व भयावह है
कुछ समझदार पिता फटाफट पुनर्विवाह भी कर दे रहे हैं ऐसी लडकियों का
शायद इस बार सुख मिल जाएगा बेटी को
पर इन पिताओं को  यह क्यों समझ नहीं आता
कब तक उनकी बेटियां
अपने पति की कमाई खायेंगी
पति के नाम से पहचानी जायेंगी व सुख भोगेंगी
जीवित बेटी को अपने बेटे की ही तरह
अपने पैरों खड़ा होने का सपना क्यों नहीं देखते
ओ ! समाज के सारे पिता |

सत्ता


आधी सृजनशील आबादी
रहती है सदा जिन्दगी की पिछली सीट पर
सब समझती है
पर देखती रहती है पुरुष सत्ता को
सोंचती है
कब उसके दिन बहुरेंगे
ज्यादा आक्रोश उसे पागलखाने पहुंचा देता है
ऐसी स्थिति में मुक्त हो जाते हैं घरवाले
अपने मकान के हकदार से
और देश खो देता है एक प्रतिभा
ये कैसा धन और सत्ता का युद्ध है
जहां स्त्री मात्र एक घरेलू मजदूरनी है
खुद जब लड़ने लगेगी स्त्री
तो क्या क्या होगा
यह शायद किसी को सोंचने की फुर्सत नहीं
सरकारी योजनाओं में तो मुक्त है नारी
पर सच में कब मुक्त होगी आधी आबादी ?

धन ठंडक देता है |


ऐसे अपने किस काम के
जिनके जाने से
खुश हो जाय जिया
जितना भरता जाता है घर
उतना ही सूना होता जाता है मन
आफिस की दौड़ भाग में
सोये ही रहते हैं हम
घरों में धन गर्मी नहीं ठंडक देता है
भला क्यों ?
जान की कीमत जानते हैं
इस लिए बस जीते चले जाते हैं हम |

नन्ही आंखें देख रही हैं |


भौतिक सुख सुविधा की चाह
मदांध बना रही है हमें
निम्नवर्ग कीड़े मकौड़े से दीख रहे हैं
हम रगड़ने को आतुर हैं उन्हें
उपयोग में लाओ फेंक दो सामनेवाले को विचार
मतलब की यारी
हमें आज सुख दे रही है
और दो नन्ही आँखें देख रही हैं
हमें हमारे घर में
हमारा व्यवहार सीख रही है
वो यही कार्यशैली अपने जीवन में ढालेगी
हम जीवन स्तर सुधार रहे हैं अपना
हम बड़े आदमी बन रहे हैं |

नुस्खे की गांठ


नुस्खे की गांठ लगायी थी
आंचल में
उस महिला रिश्तेदार ने ....
कभी न रोना बेटे के सामने
श्रीहीन हो जायेगा वो |.....
आज भी याद है वह चेहरा
इतनी समझ आखिर लायी कहाँ से थी
उस अनपढ़ महिला ने |

पुत्र सरीखी हूं |


मेरा अपमान
तुम तभी शुरू कर देते हो
जब मेरी फोटो खिंचवा कर पाकेट में डालते हो
और छुट्टियां ले गाँव में
रिश्तेदारों के पास
मित्रों के पास
भटकने लगते हो
अच्छे लड़के की तलाश में
और वह लड़का तुम्हारा बैंक बैलेंस महसूस कर
मेरी फोटो से आंखें फेर लेता है
मुझे न पसंद करने के कई बहाने बनाने लगता है
जितना तुम गली गली भटकते हो
मेरी फोटो के साथ
उतना ही मेरा मान गिरता जाता है
मैं छोटी होती जाती हूँ
खुद की निगाह में
मौन होती जाती हूँ धीरे धीरे
बेटी हूँ
तो क्या तुम्हारे पुत्र सरीखी नहीं मैं !

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

अब अकेले चलें


अब हम अकेले अकेले चलें
ठीक है न !
कभी तुम आगे चलना
कभी मैं
क्या पता कब साथ छूट जाए अपना
अकेले चलने की आदत अब चलो बना लेते हैं हम
यादें हमारी सदा रहेंगी मित्र
उनसे बतियाते कट जायेगा
यह जीवन का रास्ता
यों न देखो मुझे
जो अवस्यम्भावी है
उसके लिए चलो हम तैयार हो जाएँ |

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

छोटी कविताएँ - 21


बुत

जीना चाहते थे
पर तुम पूजने लगे हमें
आज बुत बन गये हम |









क्या छूटा ?

क्या क्या छूटा
सोंचने की फुर्सत ही नहीं
पर कुछ छूटा तो जरूर है
वरना इस भीड़ में अकेले क्यों रहते हम
आदर्शों की पोटली थामे
अजूबे क्यों रहते हम |

सेनानी


होश सम्हाला है जबसे
युद्धरत है नारी
कभी भूख से
कभी अपने पड़ोस के विचार से
तो कभी समय से
सेनानी सीमा पर ही नही
घर में भी रहता है
जिसकी मौत से
घर के मुखिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
एक जाती है दूसरी आती है |

अकेली


खाना बनाती थी
खिलाती थी पूरे परिवार को
आधा पेट खाती थी
थके शरीर को भूख नहीं लगती
और लेट जाती थी वो
अब खाना बनाती है
खाती है
दिन भर खाती रहती है
बहुत भूख लगती है उसे
और दिन भर सोती रहती है वो
और करना क्या है उसे
संगी न साथी
अकेली हो गयी है न |

सुन ले पथिक




राह अनन्त है
रे पथिक !
ले ले अनुभव
कर इतना गुमान |

इतना क्यों हांफ रहा तू
तनिक आंख मूंद ले
तेरे असबाब की रक्षा करेगा
तेरा अपना कर्म |

हमारी राह एक है
असबाब अलग अलग वजन के
चेहरे दुसरे
उत्सुकता एक है |

धरती में मिले जो पथिक
उगे बन वृक्ष
आज छांव देते
हम राहगीरों को |

हर पल जी ले
धन्यवाद दे गुजरे पथिकों को
नया कुछ करता जा
आनेवाली पीढ़ी के लिए |

तरेरो बाघ को


तुम्हारे काले चश्मे में छुपी आंखें
दिख ही जाती हैं मुझे
लाख छुपाओ तुम उन्हें
तुम्हारी लाचारगी का हाल
कह ही जाती हैं मुझसे
ओ मेरे पुत्र !
दुनिया के पहचाने चेहरे में
सदा शोषण करने को आतुर
एक अनजान चेहरा भी छुपा है
कभी न भूलना प्यारे
आंख तरेरना रास्ते के बाघों को
लौट जायेंगे वे अपने घर |

शहर


शहर !
तूने विद्यालय और रोशनी देकर
हमसे  हमारी पहचान ही छीन ली
रिश्ते छूटे
मन भी टूटा
मुश्किल से
नौकरी मिली
पर रहने को घर नहीं
कोई किराए में भी देता नहीं
कहाँ रहें हम
कहने को दुनिया हमारी है
पर अपनों से ऐसे टूटे कि
भीड़ में खो गये हम |




बेटे का बाप



ठीक है
हम बना लेंगे
तेरे पसंद की लडकी को
अपनी बहू
पर उस लड़की को
अपने माँ बाप से सम्बन्ध
तोड़ना होगा
इस प्रकार गरीब पिता की बेटी
अपने प्रेमी के घर में
अपनी ससुराल में बस गयी
और बेटी का पिता
अपमान और दिल के दौरे से
दुनिया छोड़ गया
भला  उसने बेटी को
क्यों इतना टूट कर मान दिया था ?

सुन पुरुष


कितना अहम है
ऐ पुरुष तुझमें
महिला के विचार सदा नगण्य होते हैं
सदा अनुगामी के रूप में ही रखने की
तेरी  आकांक्षा
चाहे कुछ भी हो उसका तुझसे  रिश्ता
भाता है सदा तुझे 
अरे जाओ जब माँ का मन न पढ़ सके
तो क्या पढ़े तुम
सदा अकेले रहोगे तुम
अपने ही घर में अपनत्व से दूर
रावन का बल टूटा
तो क्या तूम उससे शक्तिशाली हो
टूट जाओगे
अब भी समय है सम्हलो
क्यों कि हर घर में हक के लिए युद्धरत है
सेनानी |

छोटी कविताएँ - 20


  भूख 

भूख ही पहचान है
जीवन की
भूख है
तो सब कुछ है
संसार है
भूख को सदा जीवित रखना
आधा पेट ही खाना
सुन रे ! इंसान |



   अद्भुत लड़की


रात भर मेघ गरजे
सुबह होते ही
लिपस्टिक लगा
कड़क माड़वाली सूती साड़ी में
वह निकली
ठेंगा दिखा समय को
देखते रह गये पड़ोसी |

छोटी कविताएँ - 19



मुक्त कर दो 

उड़ा दो
आज पिंजरे के पंछी को
तुझसे मोह रहेगा तो
आयेगा हर सुबह
तेरे छत पर
मुक्ति के गीत गायेगा  |




लुप्तप्राय सम्बन्ध 


लुप्तप्राय हो गये
रिश्ते उनके
जो बदल पाए
खुद को
समय के साथ |

छोटी कवितायेँ - 18


  छत विहीन 

मौसम की मार
जंगल में
अकेलापन
कितना सुख देती है
अनुभव देती है
आजीवन भुलाये नहीं भूलता | 


सड़क और लडकियां 

सड़क पहुंचाती है
गंतव्य तक
हमें |
सड़कों पर
जीने लगेंगीं  हम
कभी न कभी |
विश्वास है
आयेगा वो दिन
हमारी आजादी का |

कल हों न हों हम


प्रतिदिन की तरह
भोर होते ही
उसने कस कर खींची नकेल
शब्दों की
पीछे बैठा अपनी औलाद उड़ी
वो घुड़सवार
अगर जीती
तो शाम को लौटेगी सकुशल
घर में
पीछे बैठी उसकी संतान
सीख रही है
अभी से जिन्दगी के दांव पेंच
उत्सुक कौतूहलपूर्ण बाल आँखों में
एक सुरक्षा व विश्वास की ज्योति टिमटिमाती रहती है
वक्त बदला
सम्बन्ध बदले
पर न बदला मातृत्व |

वायवीय जड़े


  

चोटी पर पहुंचने का उन्माद
हममें कभी कभी
इतना असहिष्णु हो जाता है
कि हम अपनी सारी उर्जा झोंक देते हैं
चढ़ाई में
शिखर पर पहुंच ही जाते हैं
और तब हम पाते हैं
असीम आनंद
कुछ ही समय बाद लगने लगता है
अरे ! हमारी जमीन की जड़ें  कट गयी है
चोटी पर हमारे पैर जरुर हैं पर
हमारी हर गाँठ से
वायवीय जड़ निकल रही हैं |