शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

यह भी एक रेस


- इंदु बाला सिंह


हद से ज्यादा प्यार किया

उसने ....


मां के हिस्से का ही नहीं

पिता के हिस्से का प्यार भी देना जरूरी समझा ....

कहीं तो कुछ भूल हुई

कि

सम्मान न मिला

प्यार न मिला

मिला

मात्र अकेलापन ....

आदमी भी गजब का जीव है

ज्यों ज्यों

वह

ऊंचा उठता जाता है

त्यों त्यों

वह

अकेला होता जाता है ....

गजब की रेस है

इंसानी जीवन की

पल भर की फुर्सत नहीं सुस्ताने की उसे ...

कहीं कोई आगे न निकल जाय उससे ।

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

बढ़ चलो


-इंदु बाला सिंह


आग ले चलो

चिराग ले चलो

अपनी कर्मठता के फ़ाग ले चलो

बढ़े चलो .....बढ़े चलो ।

सवेरा और सन्ध्या


- इंदु बाला सिंह


अपनों द्वारा ठगा जाना

आर्थिक तंगहाली

बीमारी

अदूरदर्शिता

से बड़ी ब्याधि कोई नहीं

इसका इलाज भी कुछ नहीं

अकर्मण्यता

दूसरे पर विश्वास

और नेकी कर याद रखना

से बड़ी कोई दुखद बात नहीं .......

बदलाव जब शुरू हो तभी सबेरा है

वरना

जीवन सन्ध्या है ।

बुद्धि के थकते ही


- इंदु बाला सिंह


बुद्धि थक के कुंठित हुई

और

मन चौकड़ी भरने लगा

अब मन पर कोई लगाम न रहा

वह मनचाहा काम काम करने लगा ।

रिश्ते


-इंदु बाला सिंह


जो जाता है

उसे जाने दो 


अपना रहेगा 


तो 


वो लौट के आयेगा 


रिश्ते बांधे नहीं बंधते


अपने कर्तव्यबोध से बंधते हैं वे ।

बंजर जमीन


-इंदु बाला सिंह


मौसमी बरसात का अभाव

खाद का न मिल पाना

उपजाऊ जमीन को बंजर बनाने के लिये काफी है

उस पर सपने कभी नहीं उगते

सरकारी खाते में जमीनधारी का नाम भर रहता है ....

और

बंजर जमीन पर से बस आंधियां गुजरती रहती हैं ।

आदमियत की पहचान


-इंदु बाला सिंह


खाना को तरसने वाले के नाम पर

उसकी मौत के बाद

भोज करवाया

उसकी आत्मा की शांति के लिये

उसके अपनों ने ...

पण्डित से शांति पाठ भी

करवाया अपनों ने .....

मरे हुये से डरना भी एक निशानी है

आदमियत की ।

सन्नाटा है


- इंदु बाला सिंह


आह ! कितना अंधेरापन है

शायद

अकेलापन है

ऐसा ही लगता होगा क्या मौत के समय ?

सब अपने हैं

सब खुश हैं

बाते कर रहे हैं आपस में

आखिर क्या बात कर रहे हैं वे !

ऐसा सन्नाटा क्यों है मेरे चारों तरफ ?

इतना खालीपन क्यों है !

कोई खुशी के पल याद क्यों नही आ रहे ?

क्यों !

आखिर क्यों !!

बस सच्ची हूं


- इंदु बाला सिंह


कुछ लोग कहते थे ..

मैं मूर्ख हूं

और

आज भी कहते हैं ।

मुझे अपनी मूर्खता का सर्टिफिकेट

ऐसे लोगों से नहीं लेना ..

मैं जैसी भी हूं सच्ची हूं

पर

मुखौटा धारी तो हरगिज नहीं ।

मन बिन कुछ नहीं


- इंदु बाला सिंह


बाधा दौड़ में

हर फलांग के बाद

एक जीत है .....

और

फिर दौड़ शुरू होती है

बिना एक सेकंड गंवाये ......

जीत

एक अनुभूति है

मुकाम नहीं ........

जिसने समझ लिया ... यह गुर जीवन का

उसने जी लिया

मनचाहा जीवन |

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

बन्द मुट्ठी लाख टके की


- इंदु बाला सिंह

लाख कोशिश के बाद भी

नहीं चाहते हुये भी

आखिर खुल ही जाती है

मुट्ठी एक दिन ....

शायद

इसी का नाम नियति है ।

चाह ही life है

written for #kids
 

- इंदु बाला सिंह

मैंने

नहीं दिया ..... जो कुछ मांगा तुमने

achieve it .....

पर दिया.... खाने को अन्न

माहौल

be healthy ......

सपने देखे तुमने

हरपल

visualise it .........

जहां जहां मिट्टी है

वहां वहां आकाश है

salute your soil ... fly in sky .....

खुशी

उड़ान में है ...... विज्ञान में है

and ..... in your mind .

जुड़ना ही आदमीयत है


- इंदु बाला सिंह


जितनी बार टूटी हूं

उतनी बार जुड़ी हूं

हर बार थोड़ा ज्यादा परिपक्व हुई हूं

जीने के लिये जुड़ना जरूरी है

वरना

जानवर और आदमी में फर्क ही क्या रहा ।

बेटी को आजाद रहने दो


- इंदु बाला सिंह


बेटी पँछी है

उसे अपने दम पर उड़ने दो ...

उसे अपना घोंसला खुद बनाने दो ....

अपना परिवार खुद बसाने दो ...

उसे उड़ते हुये .... हम देखेंगे

अपनी औलाद पर ... हम नाज करेंगे ।

हम न बदलें


- इंदु बाला सिंह


मन टूटा

तो

सब कुछ टूटा ....

सपने टूटे

पर

रिश्ते न छूटे .....

रक्त - सम्बंध न टूटे ....

चाहे

कुछ भी बदले

या

कुछ भी टूटे ....

आज चित्त शांत है

क्योंकि

कुछ भी तो छूटा नहीं ।

अकेलापन


- इंदु बाला सिंह


कर्तव्यबोध के नाम पर आगे बढ़ने के लिये

उसने जला दिया था

बड़ी निर्ममता से एक दिन

पीछे लौटनेवाला पुल .......

और

आज वह हतप्रभ है .....

अकेली है

मृतप्राय है

गुमनाम है ।

सहिष्णुता के पीछे


- इंदु बाला सिंह


किसी को क्या पता सड़क में चलनेवाला

अपने कमरे में कितनी बार लड़खड़ाया था ....

सहिष्णु दिखनेवाला

अकेले में कितनी बार रोया था ...

अकेलेपन का भरापन

उस अकेले से पूछो ....

जो बुखार में अपनों के स्पर्श के लिये तरसा होगा ।

ओ बादल !


- इंदु बाला सिंह


लगता है ...

कहीं कोई रो रहा है 


कहीं कोई गरज भी रहा है ...


डर से दुबक गया है कहीं मेरा वाई फाई भी 


ढूंढे न मिले वो मुझे ।


ओ बादल !

बरसो .....

पर

न गरजो

न डराओ ...

मेरा लैपटॉप बन्द है

आई पैड बन्द है

ऐसे ही गरजते रहे बादल तुम

तो

छुप जायेगी

बिजली रानी भी

डर के

मारे ।

एक कमरे का संसार


- इन्दु बाला सिंह


एक कमरे के संसार को देख

अनायास कह उठा स्विच रिपेयर करने को आया बिजली मेकैनिक ....

बहुत अच्छा से जमा के रखा है आपने अपना सामान ।

और मैंने सोंचा ......

जाड़ा गरमी बरसात यही तो मेरा रसोई घर , स्टडी रूम , बेडरूम स्टोर रूम रहा ।

रात में बिजली गुल होने पर बच्चों को पंखा झलना भला कोई भूलने की चीज है .....

अंधेरे कमरे में झरोखे से झाँकता चाँद

कमरे में माँ बच्चों के बीच चलती अंताक्षरी भुलाए न भूलती .....

छत होना ज़रूरी होता है ....... जीने के लिये ।

समय का खुचरा


- इंदुबाला सिंह


टूटा सम्बन्ध। .....

कोई तो कारण था होगा उसके टूटने का .....

बढ़ चले थे हम

अब पीछे क्या मुड़ना ....

नयी राह ....

नये रिश्ते ....

नये अनुभव .....

चलने के लिये कभी न कम पड़ेगी जमीं

भले समय कम पड़ जाय ...

समय को सिक्कों में बदल कर रखा है मैंने

एक एक सिक्का खर्च करना है

जब तक सिक्का हाथ में

तब तक दुनिया जेब में ।

पूरे गांव की बेटी


-इंदु बाला सिंह


दादी बोलते जा रही थी ....

हमारे समय में तो बेटी के ब्याह में पूरा गांव सहायता करता था बेटी के पिता की ...

बेटी पूरे गांव की बेटी होती थी ...

बेटी के ब्याह में गांववाले भोज नहीं खाते थे

आखिर बेटी के पिता का खर्च क्यों बढ़ाया जाय ....

अब तक दादी की यादें सुनती कालेज जानेवाली पोती बोल उठी .....

उस समय बलात्कार नहीं होता था न दादी .....

पोती के मुख से अचानक निकले वाक्यांश ने दादी को हतप्रभ कर दिया ....

और उन्हें अपने घर की देवरानी याद आ गयी ।

सोये सपने


- इन्दु बाला सिंह


ऐसा न जाने क्यों होता है

कि पुराने चित्रों का अपना चेहरा

अपना ही नहीं लगता ........

ढूंढता है मन

अपना खोया सपना

न जाने किस पल सो गया मेरा सपना |

मैं जिन्दा हूँ


- इन्दु बाला  सिंह


मैं स्वप्निल हूँ

मेरे मन की मरुभूमि तले सहानुभूति का सागर सोया है

कौन कहता है ..... मैं मृत हूँ

मैं एक फौजी का जज्बा रखती हूँ

मैं अभी जिन्दा हूँ |

नन्ही हथेलियां तलाशूं


- इंदु बाला सिंह


तेरा सामान आया

तेरे शहर से ....…

तुम कब आओगे ?

तेरे सामान में मैं तेरा स्पर्श तलाशती हूं ...…

तेरे कर्ज ने दूर कर दिया

तुझे अपनों से ..…

तेरे नन्ही हथेलियां पकड़ कर चलने को जी चाहता है ।

शहर की जीवन रेखा




- इंदू बाला सिंह


अंटके थे

लटके थे

छब्बीसवीं मंजिल की बालकनी में हम ....

सामने सड़क पे खड़े थे.. ...  माचिस के चौपहिया वाहन , दोपहिया वाहन

करीब आधा मील लम्बी कतार थी। ...

जगमगाते शहर की जीवनरेखा पर  ... जगमग करते माचिस के डिब्बे खामोश थे

दिल धीमे धड़क रहे थे। .....

सड़क जाम थी ।


बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

पल का आनन्द


- इंदु बाला सिंह


उसे

झूठ के बीज को रोपते देखा

झूठ के पौधे को फूलते भी देखा

पर

न जाने कैसे स्वतः झूठ के फूल झड़ गये ..…

आखिर कोई न कोई तो झूठ का फूल तो बच ही जायेगा एक दिन ..…

बड़ा मनमोहक लगता है झूठ का विषैला फूल

मंत्रमुग्ध हो जाता है मन

इस फूल के सम्मोहन में देखा है मैंने

मेहनतकश आदमी को फंसते……

आखिर पल भर को खुश होने का हक मेहनतकश को भी है

कल किसने देखा है

सत्य की आस लिये लोगों को जीते भी देखा है ...…

बड़ी अजब सी दास्तान है ... इस जिंदगी की

कभी पानी का बुलबुला बन जाती है

तो

कभी पहाड़ बन जाती है

कभी कभी जीवन सन्ध्या ...… सुकूनदायक भी बन जाती है ।

गैप


 April 11, 2019


- इंदु बाला सिंह


वह गुजरी

बड़ी जल्दी कमरा खाली हो गया उसका ...…

कुछ कीमती सामान तो था नहीं उसके पास

वह

गांव के विशाल मकान की मालकिन

अनपढ़ वृद्धा

अपने अफसर बेटे-बहू की जिंदगी में एक खूबसूरत कालीन के पैबन्द सरीखी थी घर में ...…

तरसते बीत रही थी उसकी जीवन सन्ध्या किसी से बात करने की चाह में ...…

और

एक दिन मुक्ति मिल गयी उसे ...…

अपने उच्चपदस्थ बेटे बहू के कंक्रीट के जंगलों से ..…

जोर की छलांग लगाते ही कभी कभी जनरेशन गैप बहुत ज्यादा हो जाता है ...…

वैसे कहानी पुरुष्कार योग्य बन जाती है ।

पैराग्लाइडिंग


- इंदु बाला सिंह

हमारा ऊंचा उठना हमें बादलों को छूने का अहसास दिलाता है

बादलों का भींगापन मन शीतल कर देता है

ऊंचाई पर समस्यायें गौण हो जाती हैं

लगता है ..… हम इतने छोटे मन के क्यों थे ...…

कितना अच्छा लगता है फलों से लद जाना ..….

जिंदगी जीने का नाम है...…उन्मुक्तता का नाम है

मुस्काने का नाम है ।

वरदान है जीवन


- इंदु बाला सिंह


गर मैं उतर जाऊं अपने स्टेशन पर

खुशी मन से विदा करना मुझे ....…

रह जायेंगी अनुभूतियां मेरी ...तुम संग ..……

जीवन-जंग बहादुर हंस कर जीते हैं ।

बड़ा मोल है दिल का


- इंदु बाला सिंह


हमारी जड़ें हमारे दिलों में बसती हैं

हमारे मकानों में नहीं ...…

जिस दिन हमारे दिल बिक जायेंगे

बस उसी पल हमारी जड़ें मर जायेंगी ।

नन्ही बड़ी हो रही है ।


- इंदु बाला सिंह 

ननिहाल में रक्तसम्बन्धी मामा लोग हैं

मामा के मित्र भी तो मामा ही हुये न

नन्ही की माँ , नानी मुहल्ले के पुरुषों से पहचनवा रहे हैं उसे

वह सीख रही है मनुहार करना अपने मामाओं का

वह मामाओं की मुस्कान से खुश हो जाती है ।

मामा लोग नन्ही को घुमाने ले जाते हैं पार्क , दुकान .……

नयी जगहें , चमकदार दुकान देख नन्ही प्रसन्न है

उसके पापा को तो अपने काम से फुर्सत ही नहीं मिलती
…………….…………….………

दादा का घर भी बहुत भाता है नन्ही को

ढेर सारे चाचा हैं वहां

वे उसे सड़कों पर बिकनेवाली अच्छी अच्छी मजेदार चीजें खिलाते हैं

नन्ही की माँ भी खुश रहती है

जब तक नन्ही घर से बाहर रहती है उसे गप्पें मारने का समय मिल जाता है ।

नन्ही बड़ी हो रही है

वह सुरक्षित घेरे में है

नन्ही की मां निश्चिंत है

नन्ही को मित्रों की कमी नहीं महसूस होती

अपने और मुहल्ले के चाचा , मामा के साथ खुश है ।

नन्ही बड़ी हो रही है ।

घर बसने के लिये मकान जरूरी है


- इंदु बाला सिंह


शाम को मंदिर की दान पेटी का ताला खुला .…

रुपये तो निकले ही और निकला ....

मन्दिर के नाम जमीन की रजिस्ट्री का कागज

' ईश्वर तेरी लीला विचित्र है । ' ... पुजारी के मुंह से निकल पड़ा ।

शहरों में एक कमरे के अभाव में जिंदगी भर कुंआरी रहनेवाली वर्किंग होस्टल की कर्मजीवी बेटियां याद आ गयीं मुझे ..

' ईश्वर तेरी लीला भी विचित्र है ' ... मैंने सोंचा ।

ईश्वर ने मुझे एक ही सन्तान दी थी ....

मेरे और मेरे पति के पास ई ० एम ० आई ० के पैसों से खरीदे दो मकान थे ।

गजब का लिंगभेद


- इंदु बाला सिंह

किसी उच्चपदस्थ पुरुष को देख वह सोंचती है

मेरा बेटा भी बनेगा इतना ही बड़ा ... इतना ही सफल ।

किसी उच्चपदस्थ महिला को देख

नहीं सोंच पाती वह ...

अपनी बेटी के उच्चपदस्थ होने के बारे में ।
................

गजब के लिंगभेद की जड़े हैं हमारे मन में ।

आवेश में


- इंदु बाला सिंह


मां को मार दिया उसने ...

न जाने क्यों ।

सजा हुयी उसे

मृत्यु पर्यन्त कारावास ...

लोग कहने लगे

अरे ! आवेश में आ कर मार दिया होगा ।
.......…………

यह कैसा आवेश था ?

मेरा घर कौन सा है ?

#स्त्री

- इंदु बाला सिंह


होश सम्हालते ही पाया मैंने खुद को अनाधिकृत जमीन पर

बेटी हूं न ....

बचपन में पिता का घर था

युवावस्था में पति का घर था

मेरा घर कौन सा है ?

स्वाभिमान

#स्त्री

-इंदु बाला सिंह


मैं नॉकरी से रिटायर हो गयी

अब ....दिनचर्या भर बदली है

और कुछ नहीं

व्यस्तता तलाश ली है मैने

अहसानमंद हूं मैं अपनी माता की जिसने मुझसे बचपन से ही चौके का काम करवाया

अहसानमंद हूं मैं अपने पिता की जिन्होंने रिश्तेदारों की परवाह न कर मुझे उच्च शिक्षा दिलवायी

आज मैं स्वाभिमानी बुजुर्ग हूं

ऑफिस छूटा तो क्या हुआ चौका तो सदा मेरा है

मैंने अपने घर में कालेज के विद्यार्थियों को पेइंग गेस्ट रख लिया है

मेरा कमाने का तरीका भर बदला है ।

यशस्वी भव ।


- इंदु बाला सिंह


कभी किसी अपने के डहुरने का कारण न बनना
 
बीता पल लौट के न आता

घाव कभी न भरता

रुपया कुछ है पर सब कुछ नहीं

भागमभाग में उतर जाता है नशा ....

आखों के आगे

बस

सूना आकाश रह जाता है ....

बंजर जमीन रह जाती है ...

यश न कमाया तो क्या कमाया ।

जी ले हर पल


- इंदु बाला सिंह


उठ

बाँध समय को

वरना निकल जायेगा पल हाथ से

आज तक

न लौटा है समय

और

न लौटेगा कभी......

जी ले

कहीं हाथ न छूट जाये अपनों का ....

इस भागमभाग में |

अब मेरे पास बहुत काम है




#स्त्री
- इन्दु बाला सिंह 

मैं कामवाली हूं

मेरे सफेद बाल थे

कोई मेरी ओर देखता ही न था

मुझे काम चाहिये था

मैंने अपने बाल काले कर लिये

अब मेरे पास काम की कमी नहीं है

मैं लोगों को काम दिलवाती हुं |