गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

नया साल आया था



- इंदु बाला सिंह


कल रात आया था
नया साल
मेरे पड़ोस के बनते मकान में
और
रात भर धूम मचायी  थी उसने
मजदूर के घर में
देर शाम तक आती रही
हीटर पर बनते खाने की खुशबू
और
रात भर
रेडियो से गानों की आवाज    ...........
सुबह होते ही  चला  गया था
नया साल ..........
रोज की तरह
आज सुबह भी मजदूरों की भीड़ जुट गई
और
बेलचा चलाने लगी  । 

खुशी की गर्माहट



-इंदु बाला सिंह

खुशी तो सूरज है
लाख ढको
उसकी किरण निकल  ही जाती है
बादलों  से  ..........
दुआ है मेरी
खुश रहे तू सदा
और
तेरी खुशी की गर्माहट में
खुश रहूंगी
मैं
ओ !
मेरे कमरे के पड़ोसी । 

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

निकलने का पल आ रहा पास





-इंदु बाला सिंह


देखते देखते
बाट जोहते
वर्ष छोटे होने लगे
और
दिन लम्बे
चलूं
छांटना ......... बांधना शुरू करूं
अब
अपना असबाब  ..........
निकलने का पल आ रहा पास
मकान को
साफ़ सुथरा कर
छोड़ जाना
भली बात । 

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

एक दिन वह सर्वे सर्वा हो गया




- इंदु बाला सिंह



ज्यों ज्यों वह बड़ा होता गया
उसे लगने लगा
वह अपनी बहन से अलग है
वह पुरुष है
महिलाएं उसकी सेविकाएं हैं
मां भी महिला ही है
और
एक दिन
वह सर्वे सर्वा हो गया
अपने घर का  ........ समाज का । 

थक चुकी



- इंदु बाला सिंह

मैंने
तुझे बोलना सिखाया
और
तूने
मुझे मौन रहना .....
मेरी उमर
तुझे लग जाये
थक  चुकी
अब
मैं रह के चुप । 

श्रम मूल्य तो दिया होता



-इंदु बाला  सिंह

जीत का श्रेय
तुम्हारा
और
हार का मेरा
जय हो !
तेरी सोंच की
तेरे अंतर्मन की
काम करवा के घर  में
भिखारी बना के
छोड़ा तूने
कम से कम
श्रम मूल्य तो दिया होता । 

मुक्त हुये अपने



-इंदु बाला  सिंह

जीते जी
खाने को तरसा वह
तेरही के दिन
मृत्यु भोज मिला
लोगों को उसके नाम पे
और
अपने
मुक्त हुये..... संतुष्ट हुये
उसे भेज  स्वर्ग ।   

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

अचम्भा जीने लगी




- इंदु बाला सिंह

आनेवाला कल   ..... भूल चली
शाम को ....... क्यूं याद करूं
इस पल  में
चेतना का  चप्पू चला
बढ़ा   चली
मैं
अपनी नाव .........
सुनामी आयेगी
तो
उससे भी भिड़ लूंगी
ईमानदारी और समझौतों की आग से झुलसा मन
कब रुका है हार के   ...........
जरूरतें
जब कम होने लगें
तब
समझ लो
प्रसन्नता आ कर टिक गयी
आदमी के मन में
और
धीरे धीरे
मैं
आदमी होने लगी
जल में रह कर भी सूखी रही
मैं
यह अचम्भा  जीने लगी
शायद मजबूरी में पकड़ सांस की उंगली
मैं
शेरनी सी चलने लगी
जीने लगी
मुस्कुराने लगी
बिन पिये बहकने लगी
महकने लगी
हर सुबह चहकने लगी ।  

कैप वाला कोट



- इंदु बाला सिंह सिंह

सुबेरे देखा
एक कुत्ते को कैप वाला कोट पहने
और
अपने मालिक के साथ टहलते  ...........

मुझे याद आये तुम
नये
काम पे लगे
बिना  स्वेटर के
शाम को  अधबने मकान की पहरेदारी करते
रात भर खांसते
ओ ! चौकीदार  । 

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

ये कैसा मानसिक सुख




-इंदु बाला सिंह



दिल दुखाया जिसने
किसी
निकटस्थ रक्त सम्बन्धी का अपने
उसने
क्या जीवन  जिया
ईश्वर भी रो  दिया होगा जरूर एक दिन
देख
उस  मानव की स्वार्थपरता ...........
ऐसी भी   क्या महत्वाकांक्षा
ये कैसा मानसिक सुख
कि
पर्वत शिखर पर पताका लहरा तो  लिये हम
पर
लौटे
तो
घर में हमें छायायें ही मिलीं । 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

रात भर क्यों न चमकते तुम




-इंदु बाला सिंह


टिमटिम चमकते तारे
मन को भाते
बादलों के
टुकड़ों के पीछे
छुप जाते
खेलते
लुक्काछिप्पी मुझसे ...........
खोजूं हो परेशान
मैं उन्हें
देख मुझे परेशान
झलक दिखलाते वे अपनी
फिर छुप जाते ...........
ओ तारे !
क्यों छुपते तुम
रात भर क्यों न चमकते तुम
सुकून देता
मुझे
तुम्हारा झांकना
मेरे झरोखे से । 

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

सूरज कितने दिन बाद निकलेगा ?




-इंदु बाला सिंह


शिमले में बर्फ पड़ रही है..........
कह कर
रजाई में घुसी मैं
संग बच्चों के........
चली  कहानियां ..... किस्से
बच्चे खुश ........
आज नो होमवर्क ......
मम्मी !
सूरज कितने दिन बाद निकलेगा ?........
किलका मुन्ना  । 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

दोषी नाबालिग बच्चा या अभिभावक




- इंदु बाला सिंह




नाबालिग ने किया बलात्कार
तो
उसके अभिभावक को क्यूं न दोष दूं मैं ........
अपने सुख
अपनी महत्वाकांक्षा में डूबा मन
क्यूं भूल चला
पढ़ना
अपनी संतान की
चाहतें
समस्यायें ...........
केवल स्कूल
और
ट्यूशन भेज
क्यूं मुक्त हो चले
अभिभावक
अपनी जिम्मेवारी से ...........
क्यूं न कैंची चली
माता पिता  की
अपनी औलादों की मित्र मंडली पे......
अपने बच्चों में
सांस लेता
जन्मदाता
क्या मुक्त है
अपनी
नाबालिग संतान के अपराध से । 

क्या तुम मुझे याद रखोगी ?




- इंदु बाला सिंह



ऐंठ जाता है मन
जन्म देते वक्त
कविता को
और
नेत्रों को सजल करना भी मना रहता है..........
कविता !
क्या तुम मुझे याद रखोगी । 

रविवार, 13 दिसंबर 2015

कठुआये बीज


14 December 2015
12:50


-इंदु बाला सिंह



मुद्दतों बाद
मिली
मुझे मेरी खोयी किताब
और
उसमें से झांकी
एक कशिश ...........
तीली लगा दी
मैंने उसे ......................
धुयें के
गुबार ने
देखते ही देखते मिटा दिया
अहसासों के
कठुआये बीज .........
जीने के लिये
है  जरूरी 
भूलना बीते दिन |  |

दीवाली


13 December 2015
11:10
-इंदु बाला सिंह


अंधियारे मन में
रोशनी लाती
दीवाली
भले
बच्चों के लिये
मुस्कुरा देते
हम
एक दिन ....
और
न जाने क्यूं
दूसरे दिन से ही
इन्तजार करने लगता मन
अगले साल आने वाली
दीपावली का |

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

महत्वाकांक्षी औरत




- इंदु बाला सिंह



हर भोर शुरू  करती है
तोड़ना
महत्वाकांक्षी औरत
अपना पथरीला नसीब
कभी रंगों से
तो
कभी  शब्दों से .........
अकेली ही चलती है
वह
अपने  अंधियारे में
दृढ निश्चय  की मशाल थामे
जीवन पथ पर
इस आस में
कि
कभी तो मिलेगा
मीठा झरना
अधिकारयुक्त   .... गरिमामयी
रंगीन सांझ का । 

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

एक उलाहना




-इंदु बाला सिंह

तुम तो  बैठे मंदिर में
न समझो तुम सच की आंच
लोग कहें - ' मन में भगवन '
तो
क्यों मरता है मन
अब न फुसला सको तुम ....
मैं भी खूब समझूं
तुम बसते राजनीतिज्ञों के घर......
जाओ जाओ
वहीं रहो
मैंने
बंद कर दिये
अपने दरवाजे
तेरे लिये ।


आखिर क्यों




-इंदु बाला सिंह

चित्रित कर पाते हैं पुरुष कवि
स्त्री मन
पर
स्त्री खुद मौन रहती है
या
टरकाती  है
वह
हमें
अपनी रचनाओं में..........
आखिर क्यों । 

हमारा पार्क



-इंदु बाला सिंह

सकून पहुंचाये पार्क
हमारे मन को
चाहे
इसे
दूर से देखें
या
पास से
यह तो
हमारी
क्रीड़ा स्थली है
विचार स्थली है
कितना मन भावन है हमारा पार्क । 

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

प्रतिभावान बच्चा


10 December 2015
07:16
-इंदु बाला सिंह


एक बिंदु है
घर का
हर प्रतिभावान बच्चा
जो
पलटेगा
पूरी व्यवस्था
और
लायेगा
सुखद हवा का झोंका
मोड़ के
अपने घर के
आजादी के जंगल से .............

आओ !
सम्हालें
हम
इस चिराग को
अपने आंचल तले
अपने इर्द गिर्द फ़ैली जहरीली हवा से |

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

सड़क सुरक्षित थी




- इंदु बाला सिंह


एक दिन महिलाएं आफिस जा रहीं थीं
और
दुसरे दिन पुरुष
सड़क
शांत थी
सुरक्षित थी
घर में
बच्चे खुश थे
मैं पसीने पसीने था
आँख खुली .....
पत्नी बच्चों समेत मैके में थी
और
आज रविवार था । 

रविवार, 6 दिसंबर 2015

करकता रहता है



- इंदु बाला सिंह

स्टेशन पे मिलनेवाला
गड़ जाता है
मन में
अड़ जाता है
तिरछे हो कर
और
करकता रहता है वह
आजीवन
याद बन खाली पल में । 

डगमग चलती नन्हीं बिटिया



- इंदु बाला सिंह


बेटी निकली  घर से
पहुंची
नयी दुनियां में
नये नये लोग मिले
भूल चला मन मां का स्नेह
पर
अपने घर में बैठी मां
करे चिंता
दूरस्थ बिटिया की
याद आये
उसे
डगमग कदमों से चलती
नन्हीं बिटिया अपनी । 

ईश्वर



- इंदु बाला  सिंह

चेतना मिटी
ईश्वर गुम हुआ ....
विकल मन । 

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

काश ! शीत निद्रा से जग जाता मन



- इंदु बाला सिंह

काश !
लौटते बीते दिन
तो
हम आज भी मुस्काते
और
हो के निश्चिंत
बांधे रहते
हम
अपनी मुट्ठी में
अपना मनचाहा आकाश
काश !
शीत निद्रा से जग  जाता
सोया मन मेरा । 

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

आज खेलें हम



- इंदु बाला सिंह

मिट्टी है
तो
हम हैं ..........
चलो खेलें
गीली मिट्टी में ..........
आओ
आज बनायें
हम
अपने अपने घरौंदें । 

उसे ' चीफ की दावत ' के इंजीनियर का इन्तजार था




- इंदु बाला सिंह


पुरनिया
अपने मर्द के बनाये मकान के
पिछले अटैच्ड बाथरूम वाले कमरे में सोती थी
जागती थी
और
अपने इतिहास में जीती थी ।
उसकी
आलमारी भरी थी
उसके
अपने मर्द द्वारा उसे उपहार में मिले
हर मौसम के कपड़ों से ।
वह
बैठना चाहती थी
अपने डाइनिंग रूम में
पर
वहां बैठते ही वह आहत हो जाती थी
किचन में काम करने वाली कामवालियों की अपनी भाषा में शुरू हो गई बातों से
और
डाइनिंग टेबल पर दबी जबान में बतियाते आये दिन टिके निखट्टू मेहमानों  के सपाट  चेहरों से |
वह
अपने ड्राइंग रूम के सोफे में बैठ अभिवादन स्वीकार करना चाहती थी घर में आनेवाले मेहमानों का
उनसे होनेवाली चर्चा में अपना मत प्रकट करना चाहती थी ...........
अपने घर के बरामदे में अपने मर्द की लम्बी कुर्सी पर बैठ अपने पैर पसार सड़क का नजारा देखना चाहती थी
पर
बेटे की तनी भृकुटि उसे रोक देती थी ।
 उसे असह्य था
अपने बेटे का तपाका
और
बहू की मुस्कुराहट ।
पुरनिया को
इन्तजार था अपने स्कूल में पढ़ी  कहानी के चरित्र
अपने
सपने  के ' चीफ की दावत ' के इंजीनियर का
जो कभी न कभी तो आनेवाला था
और
उसके द्वारा बनाई गयी
ड्राइंग रूम में टंगी पेंटिंग की प्रसंशा करनेवाला था । 

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

नशा इन अनबोले शब्दों का



-इंदु बाला सिंह


न लाना कभी जुबान पे
आई लव यू ...
टूट जाएगा
जादू इन शब्दों का ........
कुछ शब्द
अंदर ही भाते हैं ........
वे
मिश्री  की डली सा घुलते हैं मन में
गमकते हैं बालों में ...........
निराशा के पलों में
चढ़ता है नशा इन अनबोले शब्दों का
और
हम मुस्कुरा कर मीलों सफर कर जाते हैं ।