बुधवार, 23 मार्च 2016

गांव से कितने दूर हैं हम


-इंदु बाला सिंह


' गांव ' एक खूबसूरत शब्द है 
शहर में खूब चलता है यह शब्द
शान बढ़ती है हमारी किस्से सुना के ......... अपने गांव के
यह अलग बात है
कि
हमारा कोई पैतृक निवास नहीं होता गांव में
गांव की धूल और खेत से अपरिचित रहते हैं हम
पर शान से सुनाते हैं हम
किस्से
अपने गांव के ..........
हैरान हो जाती हूं मैं
देख के
युवा दंपत्ति को भी सुनाते ...... रीति रिवाज के किस्से ...... गांवों के .......
गांव हमारी नीव है......... पहचान है
तो क्यों कटते हैं हम
अपने गांव में बसे पुश्तैनी रिश्तों से ......
क्यों लटकते हैं किसान पेड़ों से
आखिर क्यों छलते हैं हम खुद को
दूसरों को ......
नई पीढ़ी को मोह है गांव का
पर
दूरी बन गयी है अब गांवों से
हमारे बच्चों की .......
आज कहानियों में बसे हैं गांव
मेरे बच्चों के ..........
कहीं ..... कुछ तो गलत है
कि
खेतों से दूर जा रहे हैं हम .......
विकास  ...... परिवर्तन की  आंधी के नाम पे
मैं गई शहर
और
मेरे बच्चे ...... रसोईं का भोजन ........... मसालों की खुशबू छोड़
विदेश जा रहे हैं
डिब्बे का भोजन और ब्रेड खा रहे हैं .........
काल्पनिक गांवों के....... किस्से सूना रहे हैं ......
.................
.........
विचारमग्न है जी
खुद की गलती मानने का मनोबल को तलाश रही हूं
लौटा लाने की चाह है
वापस अपनी संतानों को
अपनी जमीन पे
कि
मिट्टी की खुशबू पुकार रही है ...........
जड़ें मांग रहीं हैं ...... पानी ........... खाद ।

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