गुरुवार, 17 मार्च 2016

हम आदिमानव बनते जा रहे हैं



- इंदु बाला सिंह

घर में पनपे
जब
राजनीति
और
लगें पेड़ झूठ के
तब
घर की परिभाषा ही बदल जाती है   ........
घर के सदस्य अंधाधुंध दौड़ने लगते हैं    ........
यह अंधी लक्ष्यहीन ईर्ष्यालु प्रतिस्पर्धा जीवित कर देती है पशुता घर के सदस्यों में   ...........
गजब है
न जाने क्यूं
यूँ लगने लग रहा  है
हम आदिमानव बनते जा रहे हैं
दिमाग , सहिष्णुता , रिश्ते की कोई  मर्यादा ही नहीं  ...........
हर कोई रेंक रहा है   ......... मैं  .... मैं  । 

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