सोमवार, 30 अप्रैल 2012

अनुभव का मोती


अनुभव का मोती
रखा हुआ है छुपा
मन की आस्था जल सागर में |
इच्छुक  हो तो पा लो
इस दिशासूचक यंत्र को
जीत कर बुद्धि-मन युगल को |
राह दिखायेगा ये
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे
ठीक जादुई दर्पण की तरह |

आज का गणितज्ञ

2010



सफल है वह
जो संबंधों में बना पता है संतुलन |
हर सम्बन्ध
एक गणित की समस्या है |
उसे हल कर पाता है सूझ-बूझ वाला गणितज्ञ
पल भर में |
प्रश्नों को हल करने का शौकीन
है खेलता समय से |
उड़ान भरता है वह दूर दूर तक
हो कर सवार समय के उड़ने वाले घोड़े पर |
आज है व्यक्ति में क्षमता
धरती को तीन डग में मापने की |
रही है लहरा  आज
मानवता की विशालकाय धर्म ध्वजा |

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

हक आधी आबादी का


कितना भटक रहा है आज मन
...सदा बड़ों का कहना सुनना चाहिए
उनकी इज्जत करनी चाहिए ....
पर वे भी स्वार्थी होते हैं
जब तक पता लगता है
तब तक हो चुकी होती है देर
और हम ... उनके गलत निर्णय के शिकार...
हमेशा जूझते रहते हैं
समस्याओं से आजीवन |
आखिर भूल कहाँ कब हुयी
नयी पीढ़ी को क्यों दोष दे
...ये अपने मन की करते हैं
रिश्तों  की तो वे कद्र ही नहीं करते ...
दोष नहीं दे सकते हम उन्हें
कुछ तो है आज के युवा में
जो न था हम में
और आज हैं हम बीमार
खोजते हैं स्वप्न में भी अपनों का प्यार |
अपनी खाट को ही अपनी दुनिया बनाए
निकलते हैं घर से बाहर शान से
गुण गाते अपनों के वैभव के
इतना छद्म जीवन
हर पल घुटता है मन
....क्या बने हम
ढल अपने बड़ों के सांचे में ....
क्यों समझ पाए
.....होता है फर्क स्त्री पुरुष में .....  |
कितना भी युद्ध करो
असफल रहती है नारी
अवहेलित रहती पड़ी कोने में
....वह सीमा की योद्धा
अपने रणकौशल को याद करती ....
यह भी क्या जीवन है
कोई पहचाने कोई माने
क्या दोष दें सरकार को
हमसे ही तो सरकार है |
हम जब हट जायेंगे
आएगा विपक्ष नवीनीकरण लाएगा
ये अलग है उसे महसूसने
न होंगे हम
....कुछ तो बदलाव आएगा
हवा की स्थिरता रही है बता ....
परिवर्तन कुछ तो उन्मुक्त करेगा
आधी आबादी को
देगा उसे उसका हक |







गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

हम हैं उदाहरण


समय किसके बांधे बंधा है
यह तो है बहती जलधार
छूते ही अहसास पायें हम इसका |
क्यों हम हों सवार
और मोड़ दें इस बिगड़ैल घोड़े को
अपने वांछित गंतव्य की ओर |
कायर ही रोता
वीर बनाता राह
तोड़ कर समय का पहाड़ |
अभाव समय का वरदान है
देता है हमें यह प्रेणना
और हम छप जाते हैं किताबों में |
समय समय का मोहताज नहीं
हम हैं समय के सिपाही
रुकते ही गोली लग जायेगी मौत की |
हमें जीना है अभी और
देना है उदाहरण
आने वाली पौध को |

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

बचपन की दौड़


गांव में छोड़ परिवार
पढायी करने चले गए थे पिता |
शहर के मकान में
रहना पड़ गया उसे सपरिवार कुछ दिनों के लिये |
दस वर्ष के हमउम्र चचेरे भाई ने सिखाया
चल चलते हैं गांव ..वहाँ आज शादी है |
चल कर जाने में लगता है एक घंटा
और वे दौड़े गांव की ओर बिना बताए बड़ों को |
भागे वे रास्ते में ही पकड़े जाने का था भय
.....और वे बेतहाशा  दौड़  रहे थे |
बच्चों की बुद्धि भी क्या होती है
खेत के बीच से वे बस  दौड़ रहे थे
कटे गन्ने के कहीं खेत थे तो कहीं ऊँची नीची मिट्टी |
कान में बाजों की धुन थी
मन में था पकड़े जाने का भय |
वे दोनों भाई बहन तो
बस भाग रहे थे |...
पीछे से गरजदार आवाज गूंजी
..कहाँ भाग रहे हो ?
चलो घर तो बताते हैं
टांग पर टांग धर कर चीर देंगे ....थे पकड़े गए वे |
भेड़ों की तरह चले शहर वापस
पीछे पीछे पैदल  चले चाचा साईकिल पकड़ अपनी |

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

विवाह


एक छोटे से कमरे में रहती थी
वो भाग कर अपने प्रेमी के साथ |
पांच बहनों में सबसे बड़ी
पिता कितनो का दहेज के साथ व्याह करते |
प्रेमी बाहर जाते समय
बाहर का लोहे के ग्रिलवाले गेट पर ताला लगा चाभी ले जाता |
पिता कर घंटो बात करता बेटी से
अपनी जिज्ञासा शांत करता था |
वह बिगड़ी बात
सुलझाना चाहता था |
लडके के घरवालों से बात हुयी
धूमधाम से व्याह हुआ ढेर सारा सामान दिया पिता ने |
घर बसा लड़की का
अपमान से कसमसा गयी लड़की |

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

आग पर चलती लड़की


टूटे घर की भटकी आत्मा
सुरक्षा और प्यार की तलाश में
कूद जाती है समंदर में
इस दृढ़ विश्वास के साथ
मिल जाएगा मोती |
कटु मुस्कान की यह पात्र
भाग कर घर बसायी हुयी लड़की
आजीवन आग पर चलती
अग्नि- परीक्षा देती रहती है
पति , पुत्र , पुत्री , समाज को |
यही है वो शक्तिपुंज
जिसे है नमस्कार करते 
निर्विकार नाते अपनी स्वार्थसिद्धी के लिए
लेकिन उसे नहीं पहचानता कोई
अगर वो पडी कभी मुसीबत में |
इस दहेज राक्षस से लड़नेवाली के लिए
है समाज सदा खड़ा रहता
हाथ में दोधारी तलवार लिए
और अपने पहन कर बैठे रहते हैं
धिक्कार की पोशाक |

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

कुछ नाम


आशा निराशा के हम झूले झूले
कितनी गाथाएं  यूँ ही पढ़ चले
साहित्य को कुछ दे आगे  गए 
कुछ को स्वाभिमानी बना लिए
हम वे ही नाम आकाश पे लिखे 
जिन्होंने हैं जीता युद्ध समय से |

दूसरी


गांव से आकर उसने
पति के कर्मक्षेत्र को बनाया कुरुक्षेत्र ..
कैसे उसने रखी  दूसरी ...
दुनियां देखी फ़ोकट का तमाशा |

ए कैसी समझ


पति के नौकरी छुटते ही
चरमराने लगता है घर का ढांचा |
इसमें कहीं कहीं पुरुष का अहं है
जो उसे पत्नी को बैठा कर खिला पाने से चूर होता है |
पता नहीं क्यूँ नहीं समझता वो 
कमाना है दोनों का दायित्व |
जब बेरोजगार होता है एक तो
सम्हालता है दूसरा |
पति - पत्नी दोनों हैं पूरक 
एक दूसरे के |
एक का स्वार्थ दूसरे का ही नहीं
संतान का भी बहुत कुछ बिगाड़ता है |
औलाद कितना कुछ खोती है
पुरुष के गलत निर्णय से |
पुरुष सत्तात्मक समाज में
स्त्री तो मात्र मजदूर है |
अपने बनाए झूठी शान के जाल में
घुट कर स्वयं ही दम तोड़ देता है |
मैं हार गया कह कर
मुक्त हो जाता है वो छोड़ कर सबको |
ए कैसी समझ है
मुझे समझ नहीं आती |

तुम्हे भूला मन


इज्जत करता उसे ही कोई
जिसे इज्जत करे कोई
इसीलिए मैंने तुम्हारी इज्जत की
और तुम्हें   मन से मिटा दिया |

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

उपहास


क्या उपहास है जीवन
हम कभी कब्र से घींच कर लाश का
टटोलते हैं इतिहास भूगोल
तो कभी सड़क के किनारे 
पायी लाश का |

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

दर्पण


अनुभव सा जादुई दर्पण नहीं 
जो दिखाए आपका रूप |
बाकी सब सहज सुलभ
बरसाती मेढक |

सन्यासी


इकलौती औलाद बेटा 
बना सन्यासी |
उसके लौटने की आस लिए
माँ बाप एक के बाद एक बने स्वर्गवासी |

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

उसका राज कब ?


नौकर खाना बनाता था
पति के राज में 
पुत्र के राज में वो खुद
लेकिन उसका राज कब आएगा
सोंच रही वो मौन |

मैं सर्वोपरि


भाती है
कुटिल को निश्छल हँसी |
उससे ज्यादा भाता है
वह व्यक्ति |
कितना आता है आनंद
उसे गुलाम बनाने में |
ज्यादा मिलती है तृप्ति
उसके बहते आसुओं को देख |
अन्यथा इतने अपराध होते
अपना अहं तुस्टीकरण में |

सिरदर्द खबर


भन्ना जाता है सिर
पढ़ कर खबर |
कहीं बेटी मारी जाती कोख में
तो कहीं जन्म के बाद |
कैसे पुत्र बनाती हैं
ये माताएं |