रविवार, 28 फ़रवरी 2016

गली का आवारा



-इंदु बाला  सिंह

सूंघ कर  ........  देख कर   .......  चोर पहचानूं
गली में घुसने न दूं कोई अजनबी
घरों की बची रोटी से पेट भरूं
रक्षक हूं गली का
फिर भी
कहलाऊं  मैं ....... आवारा ....... कुत्ता । 

मरने न दूंगी



-इंदु बाला सिंह

मेरी आँखों में बचपन जिन्दा है .........सपने पलते हैं   ........
और
मरने न दूंगी
मैं
कभी उस बचपन को   ..... उन सपनों को   । 

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

आशा का बीज



- इंदु बाला सिंह


देश के  आतंकवादियों से लड़ता हुआ
शहीद हुआ सैनिक पिता
और
पुत्री ने दी अंतिम सलामी -
 मैं भी सेना में जाउंगी ..... एक एक  आतंकवादी को मार गिराउंगी .........
देख यह दृश्य भींगी पलकों में आशा का बीज अंकुराया
पर
एक मात्र युवा शहीद संतान के  पार्थिव शरीर पर
पुष्पार्पण कर फूट फूट  रोती  माँ देख
दहल गया  मन   ...........
निस्सार लगा यह जीवन सारा
धुंधलायी आशा ।  

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

मैं राजा हूं


19 February 2016
19:28


-इंदु बाला सिंह


मैं ....
चौकीदार हूं
मुंशी हूं
स्टोर इंचार्ज हूं
मेरे भरोसे ही मकानमालिक आराम करता है
अपने घर में ........
वैसे
सुख की नींद सोता हूं
मैं
अपने प्रासाद  में ......
मैं राजा हूं |

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

सोंच के चल


18 February 2016
22:33


-इंदु बाला सिंह


अप्रिय सत्य
और
अंधा प्रेम
गिराता है गड्ढे में
सोंच के चल 
अपना मोहरा तू |

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

रेंगो मत



-इंदु बाला सिंह


आकाश छूना है
तो
रेंगते क्यों हो .........
मारो एक जोर की उछाल
पल भर को छूटेगी जमीन और पाओगे तुम
अपना मनोवांछित पल ..........
घर का गुरुत्वाकर्षण खींच लायेगा
वापस तुम्हें
अपनी धरा पर   । 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

हतप्रभ है क्यूं तू



-इंदु बाला  सिंह


जिंदगी एक शतरंज है प्यारे
खेल ले
तू जी भर के
आज हतप्रभ है क्यूं
तू
चल आगे बढ़
चला न तू अपना मोहरा । 

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

और मैं गुमनाम रह गयी




- इंदु बाला सिंह



गरीबी एक ब्रांड है
खूब बिकती है इसके नाम पे रचनायें
जब कलम उठायी लिखने को
पर चली न कलम
वह भी बन गयी  मूक ...... गरीब की तरह
भावना की श्याही सूख गयी गरीब घर के मुखिया सी
गरीबी का ब्रांड चलाना भी एक कौशल है  .......
फिर सोंचा मैंने
लिखूं ......... महिला रुदन पे
लेखनी चल न पायी
हंस कर बोली वह -
आजीवन खुद को मर्द समझ के जीनेवाली
आज किसे तू धोखा देने चली
अरे ! छोड़ दे न कुछ मुद्दे औरों के लिये  .........
और मैं गुमनाम रह गयी । 

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

शाप या दुआ


-इंदु बाला सिंह


नियति के खेल निराले 
कभी जीते
तो
कभी हारे .......
गर फलित होती
शाप या दुआ
क्या मिट न जाती गरीबी ........
वसंत ऋतू में गमकते सभी घर |

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

घर की रौनक बेटियां


11 February 2016
09:15


-इंदु बाला सिंह



क्यों न खुद को तौलें हम
आखिर कैसी नींव डाली हमने
कि
विभिन्न नामधारी अकेली बेटियां.... बिसुरें .... मनहूस कहलायें ..... शुभ महोत्सव में अवांछित रहें
पर बेटे पर कभी कोई रोक टोक नहीं
आखिर क्यों .......
क्यों गलती पर गलती करती जाती हैं
और 
सड़क पर मात्र गिनी जाने योग्य  हैं कामकाजी बेटियां ........
भूखी रहती हैं घरों में उपवास के नाम पे अभाव के कारण
लेकिन जन्मा जातीं हैं ...... खुद सरीखी देवी कहलाने योग्य घर की रौनक बेटियां |

जोड़ घटाव


11 February 2016
08:57

-इंदु बाला सिंह


दैनिक समस्याओं के सामने
और
आपरेशन टेबल पर
हम .........अकेले ही होते हैं
फिर .....क्यों मुंह जोहते हैं हम किसीका
चल भी अब ..... ओ रे मनहूस मन !
कोई नहीं है अपना
जिसने जोड़ घटाव सीखा
उसने जीना सीखा |

अंतर्मन की आवाज


11 February 2016
07:11


-इंदु बाला सिंह


हमारे मस्तिष्क में
हमारे अंतर्मन की आवाज ही मुखरित होती है
और
हमें वही सुनायी देती है ........
आस पास तो मात्र फुसफुसाहटें रहतीं हैं
जिसे हम अपने मनोबल के अनुसार ग्रहण करते हैं ..... जीवन में आगे बढ़ते हैं |

खूबसूरत सुगन्धित मोड़


10 February 2016
22:39

-इंदु बाला सिंह



रिश्तों को
एक खूबसूरत सुगन्धित मोड़ दे के
जब हम आगे नहीं बढ़ पाते
तब
राजनीति प्रवेश कर जाती है घर में ..............
हम खिलौना बन जाते हैं ..........जनता के हाथों  के ..........
पति पत्नी के सम्बन्ध सा नाजुक रिश्ता कोई न |

सड़क पे मौन चलूं मैं


10 February 2016
22:21
-इंदु बाला सिंह



बड़ा मुश्किल है जीना
जब
सब विपरीत हों .....
राह में मौन चलना
मानसिक संतुलन बनाये रखना
कितना कठिन है यह भुक्तभोगी ही जाने
बाकी तो कहानियां हैं
कल्पनायें हैं
सुविधाभोगी निकटस्थों कीं .........
आखिर कोई क्यों किसी को याद करे |

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

सूखी रोटियां



- इंदु बाला सिंह


हाय रे ! नौकरी
तूने याद दिला दी बचपन की सूखी रोटियां
मैं लाख भूलना चाहूं
पर
अकेले में मुझे सुस्ताते देख
चुपके से नजानें क्यों लुढ़कती हुयी आ जातीं हैं जेहन में
माँ के हाथ की सूखी रोटियां |

कहाँ से आये आतंकवादी


10 February 2016
07:36
-इंदु बाला सिंह


रात हो गयी है
शहर पुस्तकालय सा खामोश है
अस्पताल ऊंघ रहे हैं
थाना जाग रहा है
सड़कें ठंडी हैं .... पर घर गर्म हैं
बंद पुस्तकें सी मौन हैं
जिंदगियां ........
मेरा शहर सहमा सा है .....यह सदा चौकन्ना रहता है .........
मेरे शहर के बच्चे
शैतानियां नहीं करते
वे अभिभावक की छाँव से सीधे तीर से निकल
पहुंचते हैं अपने विद्यालय  ............
सुना है -
आतंकवादी हमारे शहर की ओर रुख किये हैं ..........
आज विचारमग्न है मन ....... आखिर किस ग्रह से आये हैं ये आतंकवादी |

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

एक सोंच



-इंदु बाला सिंह


सती प्रथा  ठीक नहीं
विधवा विवाह  गलत नहीं
तो
कन्यादान क्यों सही    ...........
सोचूं मैं   । 

स्टील प्लांट बस रहा था



- इंदु बाला सिंह

याद है आज भी
दस वर्षीय
भयभीत सी अचम्भे से फ़ैली आँखों से दीखता दूर दूर तक का अँधियारा
जब उतरी थी
मैं रात के अंधियारे में
पिता के संग
राउरकेला के स्टेशन पर
और
रिक्शे में बैठ इस्पात एम्प्लॉयीज कॉलोनी को जाते हुये
सड़क  पर जलते बल्ब
दूर दूर तक फैला अँधियारा
और
पहाड़ बगल से गुजरना ..........
रोमांचित कर जाता है
भुलाये नहीं भूलता
काफी समय रिक्शा चलने के बाद
जगर मगर करती कालोनी भय मिटा दी थी   ...........
पिता को नौकरी लगी थी  ......... स्टील प्लांट बस  रहा था । 

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सच पारदर्शी है



- इंदु बाला सिंह

सच पारदर्शी होता है
तभी तो
बिना सबूत के भी हम जान पाते हैं
धोबी  के उच्च जीवन  स्तर
और
शिक्षक के निम्न जीवन स्तर .......  मानहानि   ...... की कहानी  । 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

कम नंबर का राज



- इंदु बाला सिंह

टीचर !
जब मुझे एग्जाम का  कोश्चन पेपर मिलता है
तो मुझे याद आती है मेरी मम्मी
और मैं डर  जाती हूं ........
मुझे याद आने लगती है
कम नंबर मिलने पर मम्मी  से मिलनेवाली  डांट  .....
और
गणित टीचर को समझ में आ गया
अपनी छात्रा के अंसर पेपर में मिलनेवाले कम नंबर का राज । 

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

गजब का अभाव



- इंदु बाला सिंह

यूं  लगता है
ट्रेन में बैठे हैं हम
घटनायें  ...... हिचकोले दे रहीं हैं
कभी जोर से ...कभी धीरे
कहां जा रही है ट्रेन !  ..... समझ ही न आ रहा
लोग दिख रहे हैं   ...... खिड़की से
शहर से ही गुजर रही है जरूर
पर कौन से शहर से गुजर रहे हैं हम पता नहीं
गजब की अनुभूति है
जो चाहते हैं हम
वह हमें मिलता नहीं
और
जो मिलता है
उसे हम चाहते नहीं ।