पार्क में खदबदाये विचार
जा रही हूं शहर से
मोह है
शहर छूटता जा रहा है........
शहर से निकल पा रही हूं
जीवित हूं तभी न
आगे बढ़ रही हूं
कुछ अंतराल पर रुकावटें आ जाती हैं
सामने अंधियारा हैं
एक दीपक जल रहा है
उसी ओर बढ़ना है
राह की कंटीली झाड़ियां काटनी है
भिड़ना है बनैले पशुओं से
झाड़ियां काटनी है
बढ़ते जाना है
बढ़ते ही जाना है
अंतराल आते रहें
राह में
कोई भय नहीं ।
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