शनिवार, 19 जुलाई 2025

कोई भय नहीं

 


 

 

 

 

 पार्क में खदबदाये विचार

 

जा रही हूं शहर से

 

मोह है

 

शहर छूटता जा रहा है........

 

शहर से निकल पा रही हूं

 

जीवित हूं तभी न

 

आगे बढ़ रही हूं

 

कुछ अंतराल पर रुकावटें आ जाती हैं

 

सामने अंधियारा हैं

 

एक दीपक जल रहा है

 

उसी ओर बढ़ना है

 

राह की कंटीली झाड़ियां काटनी है

 

भिड़ना है बनैले पशुओं से

 

झाड़ियां काटनी है

 

बढ़ते जाना है

 

बढ़ते ही जाना है

 

अंतराल आते रहें

 

राह में

 

कोई भय नहीं ।

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