रविवार, 13 अक्टूबर 2013

समुद्र कूल के मजदूर

रात भर हम भूखे थे
हमारे बच्चे भूखे थे
हमारे घर की छत उड़ गयी
जन बचाने के लिए कहीं भी चले जायेंगे हम
समुन्दर जब शांत होगा तब लौटेंगे हम
हमलोग तो रोज कमाने खानेवाले हैं बाबू
और वे चले गये
आँखों में फिर लौटने की आशा लिए |

समुद्र कूल के किसान

याद आया
सन 1999 में जगह जगह घूमते ग्रामीण
मांगते कपड़े पैसे
दुहाई देते बाढ़ की
हम लोग किसान हैं
सब बह गया बाढ़ में
माँ ! हम भिखारी नहीं हैं |
बस से आ गये थे शहर
बाढ़ग्रस्त गांवो के निवासी भटक रहे थे
जीविका की तलाश में |
इस बार की बाढ़ में भी तो
समंदर ने लील लिया है खेत किसानों के
जो खेत बचे हैं बंजर हैं
क्या खिलाएंगे अपने मालिकों को
शहर में सुरक्षित बैठा मन
है चिंतामग्न !
भूखा किसान हमें क्या खिलायेगा
दूरदर्शन की खबरों से परेशान
दो वर्षीय पुत्री बोल उठी ...
हम मैगी खायेंगे !
दूध नहीं मिलेगा तो
कोल्डड्रिंक पीयेंगे |

फायलिन


फायलिन आया
सुना तुमने !
अरे ! तो क्या हुआ
मुसीबत ही आयी न हमारे लिए
एक दिन की तनख्वाह कट जायेगी अब |
मन दौड़ गया
समुद्री तट के निवासियों की ओर
भरे पूरे गांव की ओर
जिनसे नाता था  हमारा मनुष्यता का
हमारे घरों में , आफिसों में मजूरी करते थे वे
कुछ चोरी भी करते थे
सब कोसते जी भर कर इन ग्रामीणों को
पर हमारे सहायक भी थे ये
बड़ी कम्पनी में कम करते कितने मजदूरों के गांवों का निशां मिटा दिया
सुना है सब सुरक्षित स्थानों में पहुंचा दिए गये थे
अब लौटेंगे वे
पर फिर से उन्हें अपने कच्चे मकान बनाने पड़ेंगे
गृहस्थी बसेगी
तब न स्कूल जायेंगे बच्चे
सागर !
तुम कितने मनमोहक हो
हमारे सहायक हो
पर ये तुम्हारा उफान डराता  है मुझे
मैं नहीं बसना चाहती
तुम्हारे पास |







गोताखारी



खाली समय में
डूबकी लगता है मन
और मुट्ठी में आये हर कण को
उछाल  देता है वह आकाश में
उन्हें टिमटिमाते देख
प्रसन्न चित  मन और गहरा गोता लगाता है
इस प्रकार बारम्बार गोताखोरी की प्रक्रिया
असीम चेतना से तन झंकृत हो  उठता है
मन सुखानुभूति में नहा उठता है
गोताखारी का आनन्द
गोताखोर ही जाने |

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

बुढ़ापा

1990

मैं पका फल नहीं 
ये न समझ टपक पडूंगा 
किसी एक शाम 
मैं तो सच्चाई हूँ 
जीवन की 
विम्ब हूँ 
तुम्हारे कल का 
कितना भागोगे स्वयं से !

युवा


1990  


हम शक्ति पुंज हैं
हम आकांक्षा हैं
सुधार डालेंगे हम
बिगड़ी किस्मत
तुलिका है हमारे हाथों में
रंग भरेंगे हर जीवन में
गीत गायेगा खुशियाली का
सुख समृद्धि का
देखना हर घर एक दिन |

सूरज

1990  

सूरज दादा !
तुम जल्दी क्यों आते हो ?
आ भी गये जल्दी तो
बादलों में क्यों न छुप जाते हो ?
मुझे नहीं अच्छा लगता
रोज जल्दी सो कर उठना
मुंह धोना और दौड़ लगाना |
क्या ही अच्छा होता
तुम एक दिन छुट्टी ले लेते
और मैं सारा दिन सोता रहता |