बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

नश्तर


०६.०८.०१       

                    
     
       ठीक तो है ..का नश्तर लगा कर तुमने
      फोड़  दिया पके फोड़े को .
      मवाद बह निकला .
      स्थान और काल लुप्त हो गए .
      दवाईयों पर जीती भौतिक सुख में डूबी दुनिया में
      स्वान्तःसूखाय के आदर्श में जीता मन 
     दुख धूप में तलाशने लगता है 
     एक आम की मुरझाई कोंपल को .
     जिसे पानी देना भूल गयी चेतना 
     पता नहीं कब से .
     छांव की तलाश में 
    चलते मन के थकते ही 
    हो जाती हैं आँखें सूनी   
   और बनने  लगता है 
   एक नया फोड़ा .
   अपनी ही पीठ पर लगा थपकी 
   कह उठता है  स्व.....  शुक्र है नासूर नहीं बना .
   अन्यथा दिमागी संतुलन न रहता .


       
         

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