शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

रहती हूं दुश्मनों के कस्बे में


- इंदु बाला सिंह

पैसे ने ढहा दी ....दीवारें रिश्तों की 
चलो निहंग हैं ....तो क्या .... आजाद तो हैं
कल की कल सोंचेंगे ...
वैसे दुश्मनों के कस्बे में .... बड़ा मजा आता है ...
चलने में ... चलते रहने में ।

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