०६.०८.०१
ठीक तो है ..का नश्तर लगा कर तुमने
फोड़ दिया पके फोड़े को .
मवाद बह निकला .
स्थान और काल लुप्त हो गए .
दवाईयों पर जीती भौतिक सुख में डूबी दुनिया में
स्वान्तःसूखाय के आदर्श में जीता मन
दुख धूप में तलाशने लगता है
एक आम की मुरझाई कोंपल को .
जिसे पानी देना भूल गयी चेतना
पता नहीं कब से .
छांव की तलाश में
चलते मन के थकते ही
हो जाती हैं आँखें सूनी
और बनने लगता है
एक नया फोड़ा .
अपनी ही पीठ पर लगा थपकी
कह उठता है स्व..... शुक्र है नासूर नहीं बना .
अन्यथा दिमागी संतुलन न रहता .