रविवार, 17 फ़रवरी 2013

दीमक बना मन


आश्चर्य में हूँ
आधी आबादी जी रही है
पैतृक संपत्ति विहीन
पुरुष को तृप्त करती हुयी
उसकी सेवा करती हुयी
झूठी शान और इज्जत के झंडे तले
घुटन को त्याग का नाम दे
सदा आर्थिक सुरक्षा तलाशती रहती है
किसी न किसी पुरुष रिश्ते से |
ये कैसी समानता है बेटे बेटी के कानूनी अधिकारों की ?
ये कैसी प्रगति है समाज की आज !
बेटी माता पिता को स्वेच्छा से त्याग देती है
अपना घर बसाने को ?
बेटी से मात्र कर्तव्य की आशा है !
घरों को फेविकोल के जोड़ की तरह जोड़ने की आकांक्षा है !
ये कैसी विचारधारा है हमारी ?
आज भौतिक सुख सुविधाएँ बढ़ रही हैं
हमारा " मैं "
दीमक बन खा रहा  है
हमारे अंतर्मन की इमानदारी को |

क्रूर मौसम

अँधेरे में
मनदीप के सहारे
चलता अस्तित्व एकाएक ठिठक गया
आशंका सही निकली
जोर की आंधी पानी के साथ आयी
दीपक को बुझने से बचाती चेतना बौखलाती रही
ओले पड़ते रहे
साँस हर पल रुकती सी लगी
आखिर थक गया मौसम
वह बौखलाई सी
देखने लगी
समेटने लगी अपने टूटे ख्वाबों को |