आश्चर्य में
हूँ
आधी आबादी जी
रही है
पैतृक
संपत्ति विहीन
पुरुष को
तृप्त करती हुयी
उसकी सेवा
करती हुयी
झूठी शान और
इज्जत के झंडे तले
घुटन को
त्याग का नाम दे
सदा आर्थिक
सुरक्षा तलाशती रहती है
किसी
न किसी पुरुष रिश्ते से |
ये कैसी समानता है बेटे बेटी के कानूनी अधिकारों की ?
ये कैसी प्रगति है समाज की आज !
बेटी
माता पिता को स्वेच्छा से त्याग देती है
अपना घर बसाने को ?
बेटी से मात्र कर्तव्य की आशा है !
घरों को फेविकोल के जोड़ की तरह जोड़ने की आकांक्षा है !
ये कैसी विचारधारा है हमारी ?
आज भौतिक सुख सुविधाएँ बढ़ रही हैं
हमारा
" मैं "
दीमक
बन खा रहा है
हमारे अंतर्मन की इमानदारी को |